मैं लुधियाना रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम मैं बैठ कर सोच रहा था कि मैं यहाँ अभी क्यों हूँ? मुझे तो १५ दिन बाद जाना था | पर आज ही क्यों? मन ही मन मैं गुस्से में था | वैसे भी मैंने बस एक महीने पहले ही १०वी की परीक्षा दी थी, और अब मैं मज़ा करना चाहता था | साल में एक ही बार मौका मिलता है पंजाब आकर सब से मिलने का, खुश होने का, खेतों में जा कर हवा से बातें करने का और आसमान में उड़ने का।
मैं अपने खयालों में खोया हुआ था, कि इतने में मुझे किसी ने आवाज़ दी, “हरबंस”। पीछे मु़ड़ कर देखा कि मेरी बड़ी बहन कमल थी। कमल ने कहा, “पापा का फ़ोन आया है। दादा जी अब ठीक हैं।” पापा और मम्मी हमारे साथ ही आये थे, पर दादाजी की तबियत ख़राब होने की वजह से वे जल्दी चले गये और हमारी रिजर्वेशन बाद की करवा दी।
मैं अभी खुद से बाते कर ही रहा था कि इतने में अनाउंसमेंट हो गयी “सर्वोदय” गाड़ी के आने की। गर्मी का मौसम था, भला हो रेलवे का कि हमें AC में रिजर्वेशन मिल गई। मैं अपनी बेहन के बॉडीगार्ड जैसा था, उम्र में छोटा था, पर उसका बुहत ख़्याल रखता था। मैंने दोनों बेग उठाये और अपनी बेहन के पीछे-पीछे चल दिया। कमल इस सोच में थी कि वो बड़ी है और रिजर्वेशन कोच तक मुझे ले जाएगी, और मैं पीछे इसलिये चल रहा था की मैं अपनी बेहन का ख़्याल रख सकूं। हम जा कर अपनी सीट पर बैठ गये और मैने सामान सीट के नीचे रख दिया। थोड़ी जगह कम थी तो मैं जगह बना रहा था, इतने में कुछ हाथ मेरी तरफ बढ़ते दिखाई दिये और बड़ी ही दया और आदर के साथ मुझे किसी ने कहा, “मैं कुछ मदद कर दू?”
मैंने देखा, कि एक इंसान जिसकी उम्र लघभग ५० साल के आस पास होगी, खादी कुर्ता और पजामा पहने हुए, एक हाथ मैं बायोलॉजी की किताब थी और आँखों पै मोटा सा चश्मा लगा खड़ा था, मानो कोई प्रोफेस्सोर हो। मेरे दिमाग ने मानो एक तस्वीर खड़ी कर दी, लगभग वैसी जैसे जो आदमी राम तेरी गंगा मैली में मंदाखिनी को बेच देता है। अब इसमें मेरा कसूर नहीं, हिंदी फिल्मे बनती ही ऐसी हैं। मैंने मन ही मन मैं उसका नाम “शकुनी” रख दिया।
शकुनी ने फिर से कहा, “बेटे, मैं कुछ मदद कर दूं?” मुझे अच्छा नहीं लगता जब कोई मुझे “बेटा” कहै, मैंने चिड़ कर कहा “नहीं, नो थैंक्स।” शायद मेरे जवाब देने का ढंघ उसे अच्छा नहीं लगा।
कुछ समय बाद TC भी टिकट चेक करके चला गया, और मैंनै गांधीजी की जीवनी पढ़नी शुरू कर दी। कुछ समय बाद मेरा ध्यान शकुनी की तरफ गया, मानो कह रहा हो की सरदार इतनी ऊची सोच वाली किताब पड़ रहा है। मेरा गुस्सा सातवे आसमान पर पहुँच गया। मैं तो उस पर ध्यान भी नहीं दे रहा था, पर उसने कमल से बात करनी शुरू कर दी। छे सीटों का केबिन था पर हम तीन ही थे। उसने कमल से बेटा-बेटा कह कर सारी बाते पूछ ली। क्या करते हो, कहा रहते हो। मेरा शक पक्का होता जा रहा था की शकुनी नेक इंसान नहीं है, पर मैं कमल को कैसे समझाऊ, उम्र में बड़ी जो है.
पता ही नहीं चला कि कब रात हो गयी। खाने के बाद शकुनी ने एक चॉक्लेट मुझे और कमल को दे दी, कमल तो बस जैसे इन्तजार ही कर रही थी और फटाक से खा गयी, पर मैं जेम्स-बाेंड का फैन हूँ, मैंने वह चॉक्लेट खाई नहीं, जेब मैं रख ली। मुझे कमल की चिंता हो रहा थी, मैं सारी रात नहीं सोया और शकुनी पर ध्यान रखता गया।
सुबह हुई, ट्रैन अहमदाबाद पहुँचने वाली थी कि पापा का फ़ोन आया, “दादा जी की तबियत ख़राब हो गई है, हम उन्हे हॉस्पिटल लेकर जा रहे हैं। तुम सीधा श्री जी हॉस्पिटल आ जाना।” मुझे लगा कि शकुनी ने सुन लिया, पर उसने कुछ कहा नहीं। कमल अभी भी खर्राटे मार रही थी, मानो चॉक्लेट में सचमुच बेहोशी की दवा हो। पर वो फ़ोन की आवाज़ सुन कर उठ गयी। उसने कहा “AC में ठण्ड के मारे नींद नहीं आ रही थी, बस यूही सो रही थी।” हम दोनों भाई-बहन चिंता में थे कि हॉस्पिटल कैसे जायेंगै, पापा कभी भी हमे अकेले घर से बहार नहीं जाने देते थे, पता ही नहीं था अब कैसे जायगे। हम बाते कर रहे थे और लग रहा था कि शकुनी सब सुन रहा है, मानो प्लान बना रहा हो कि कैसे हमे किडनैप करैगा। फिर क्या, मैं उस पर और नजर रखने लगा।
जब ट्रैन अहमदाबाद पहँची, हमारे कोच के बाहर बहुत से लोग हाथों में माला ले कर खड़े थे, मानो किसी बड़े आदमी का स्वागत करने आए हों। यात्रियों की भीड़ में मानो पता नहीं शकुनी कहा खो गया। हम जैसे ही नीचे उतरे, हमने देखा कि बहुत से लोग फूलमालाओं के साथ शकुनी का स्वागत कर रहे थे, और “डॉ. जोशी अमर रहें” के नारे लगा रहे थे। हमें किसी ने बताया कि शकुनी का नाम डॉ. परेश जोशी है, वो बायोलॉजी के माहिर है। उन्होने ही कैंसर की दवाई बनाई है और वे जम्मू से एक सेमीनार में भाग लेकर लौट रहे हैं, जिस में भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल थे।
मै और कमल अभी भी पेरशान थे कि हम अस्पताल कैसे जायगे और दादाजी कैसे होंग। फिर से एक जानी पहचानी सी आवाज़ सुनायी दी, “बेटे, मैं कुछ मदद कर दू?” देखा तो शकुनी, ओह, शकुनी नहीं डॉ जोशी थे। मैं इस बार ना नहीं कह सका। उन्होने अपनी सरकारी गाड़ी में हमे हॉस्पिटल छोड़ा, वहाँ के डॉक्टर से मेरे दादा जी का पूरा हाल चाल पता किया, पापा को अपना मोबाइल नंबर दिया और कहा “कुछ भी काम हो फ़ोन कर देना।” डॉ. जोशी की धर्मपत्नी ने मेरी माँ को होसला दिया। जाते-जाते उन्होने हमे घर भी छोड़ा।
मैं बुहत शर्मिंदा था, खुद पर गुस्सा आ रहा था। मैंने सबसे पहले सारी फिल्मों की cd बाहर फेकी और कसम खाई की कल्पना के आधार पर कभी भी किसी के बारे में सोच की परछाई नहीं बनाउँगा. “अगर राम के वेश में रावण हो सकता है, तो रावण के वेश में राम क्यों नहीं?”
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Sanjay K Bhavsar
What a real life incident explanation Harbansbhai – It is true : अगर राम के वेश में रावण हो सकता है, तो रावण के वेश में राम क्यों नहीं?”
Harbans Singh Sidhu
Thank you, Sanjay. Its entire story base on the fiction and even name of charter as well. But, theme of story that I have experienced many times even at bad times I did not see faces around me from whom I had hope and many who were present, I did not hope form them. Its life, which thought us. Never assume anyone charter on base of your assumption. Thank you. With Best Wishes, Harbans Singh Sidhu
Mayank
Simple ! Still effective .Well done
Harbans Singh Sidhu
Thank you, Mayank for your appreciation.