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तनु वेड्स मनु रिटर्न्स: कंगना ‘तेरा स्वैगर लागे सैक्सी’

जावेद अनीस:

भारतीयों के लिए सिनेमा मनोरंजन है, जिसके लिए उन्हें कम्प्रोमाइज़ भी करना पड़ता है। तभी तो [envoke_twitter_link]हमारी मनोरंजक फिल्मों में “अक्ल” का ध्यान नहीं रखा जाता[/envoke_twitter_link] है और मनोरंजन के नाम पर तर्कहीनता,स्टोरी की जगह स्टार, सेक्स,पागलपन की हद तक हिंसा, हिरोइन के जाघें और हीरो का सिक्स पैक परोसा जाता है। बेचारा दर्शक चुपचाप बिना कोई शिकायत किये इसे हज़म करता है, अब तो उन्हें ऐसी फिल्मों की लत भी लग चुकी है।

हिंदी सिनेमा में इस समय “अक्ल” वाली फिल्में दो तरह के लोग बना रहा हैं, एक के अगुआ अनुराग कश्यप जैसे लोग हैं जो विश्व सिनेमा से जरूरत से ज्यादा प्रभावित हैं और अपने आप को इतना सही और सटीक मानते है कि नकारे जाने के बाद जनता को ही करप्ट घोषित करने लगते हैं। दूसरी खेप वह है जो विश्व सिनेमा से प्रभावित तो है लेकिन उनके विषय के मूल में हिन्दुस्तान के दूरदराज में फैली हुयी कहानियां हैं जो लोगों के ज़िंदगी के करीब बैठती है, भाषा और समाज की लोकेलिटी भी मौजूद होती है। इनकी फिल्में एक तरह से विश्व सिनेमा और स्थानीयता का खूबसूरत फ्यूजन होती हैं। इस जमात में राज कुमार हिरानी, तिग्मांशु धूलिया, रितेश बत्रा आदि का नाम लिया जा सकता है। निर्देशक आनंद राय इसी स्कूल से आते हैं, इससे पहले वे ‘तनु वेड्स मनु’ और ‘रांझणा’ जैसी फिल्में दे चुके हैं।

कहने को तो यह फिल्म चार साल पहले आई ‘तनु वेड्स मनु’ का सीक्वल है, लेकिन उससे पहले यह अपनी बेटियों के साथ क्रूरता के लिए बदनाम हरियाणा के झज्जर की एक बेटी की कहानी है जो अपने जकड़नों को तोड़ कर उड़ने की कोशिश कर रही है। दत्तो नाम की यही किरदार इस सीक्वल को पहले से ज्यादा खास बना देती है। पहली फिल्म में तनु (कंगना रनौत) और मनु (आर माधवन) की शादी के साथ हैप्पी एंडिंग हो जाती है। सीक्वल में वहीं से कहानी आगे बढ़ती है।

अब वे दोनों लंदन में बस गए हैं, और उनके रिश्ते इस कदर खराब खराब हो चुके हैं कि तनु अपने मनु को पागलखाने भिजवाकर कानपुर वापस आ जाती है। बाद में मनु का खास दोस्त पम्मी (दीपक डोबरियाल)उसे पागलखाने से वापस इंडिया लाता है, यहाँ दिल्ली में पढ़ाई कर रही हरियाणवी ऐथलीट कुसुम सागवान उर्फ दत्तो की इंट्री होती है जिसे देख कर मनु हैरान रह जाता है क्योंकि दत्तो तनु की हमशकल है। इसके बाद शुरू होती है तनु और मनू के प्यार की जंग, जिसका शिकार बड़ी मुश्किल से अपना पंख फैला रही दत्तो बनती है। सारी खूबियों के होते हुए भी इस फिल्म का अंत निराश करता है, यह अपने ही खड़े किये हुए बगावती मापदंडों को दगा कर जाती है।

[envoke_twitter_link]इस फिल्म को दी बातें ख़ास हैं, फिल्म की कहानी, और कंगना रनौत[/envoke_twitter_link]। यह एक नायिका प्रधान फिल्म है यहाँ नायिकायें वर्जनाओं को तोडती हुई नज़र आती है, एक साथ इतनी खिलंदड़, बाग़ी, वर्जित कार्य करने वाली, समाज के बने-बनाए नियम तोड़ने वाली नायिकायें शायद ही पहले देखी गयी हों। वे रात में गावं की गलियों में शराब पीकर किसी पुरुष शराबी से टकराती है और सर झटकर आगे बढ़ जाती है। वह बिना मेकअप के सहज है और मानती है कि मर्द या तो भाई होते हैं या फिर कॉम्पटीटर। फिल्म की कहानी इसलिए भी ख़ास हैं क्योंकि यह विशुद्ध मनोरंजन करते हुए भी लड़कियों को ख़ास होने का अहसास कराती है और उन्हें यह बताती है कि अपनी शर्तों पर जीने में कुछ भी गलत नहीं है।

[envoke_twitter_link]कंगना रनौत नाम हिंदी सिनेमा में नायिका को नये मायने दे रही है[/envoke_twitter_link], वह फिल्म दर फिल्म ऐसी लकीर खींच रही है जिन पर आने वाली फिल्मी बालाओं को चलना है। इस फिल्म में वह डबल रोल में हैं और इन दोनों किरदारों में वह बिल्कुल अलग लड़कियां दिखती हैं, हरियाणवी एथलीट के रोल में तो उन्होंने कमाल कर दिया है, दत्तों को उन्होंने शिद्दत से जिया है। यह अभी तक का उनका सबसे अच्छा अभिनय है।

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