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क्या है दंगों की समस्या का हल? “इस देश की मिट्टी कई बार लहूलुहान हुई है, पर अब और नहीं”

सलमान फहीम

छब्बीस जनवरी का वो दिन मैं चाह कर भी नहीं भूल सकता। मैं विद्यालय से गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम मना कर लौट रहा था, मुख्य अतिथि का देशभक्ति भरा भाषण सुन कर मेरा तन मन देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत था। इसी भावना में बह कर मैं हर एक नुक्कड़ और चौराहे पर जाकर तिरंगे को सलामी दाग रहा था और साथ में जो लडडू मिल रहे थे उनको बड़े मज़े से हज़म भी किये जा रहा था। इन सब बातों में वक्त कब निकल गया पता ही नहीं चला और मैं घर एक घंटे देरी से पहुँचा। मैं अपनी सफाई मे कुछ केह पाता उससे पहले अम्मी ने मुझे दो-तीन थप्पड़ रसीद कर दिए। वो डरी हुई थीं, उसी डरे सहमे लहजे में उन्होंने मुझसे कहा कि अल्लाह के वास्ते कालोनी से बाहर मत निकलना,मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था,अपने कमरे में जाते जाते मैने  अब्बा की आवाज़ सुनी। वो अम्मी से केह रहे थे कि सब जल के खाक़ हो गया,कि शहर में बहुत बड़ा दंगा हो गया था।

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मैं शायद तब सात या आठ साल का था पर इन बीते सालों में मैंने कभी भी अब्बा की ज़बान से लफ्ज़ दंगा नहीं सुना था। मुझे लगता था कि अम्मी अब्बा कुछ ज्यादा ही परेशान हो रहे हैं, पर शाम होते-होते मुझे एहसास हो गया था कि उनका डर जायज़ था। शहर में एक अजीब सा मातम छा गया था,कभी रह रहकर गोलियों की आवाजें आतीं तो कभी पुलिस की गाड़ियों के साइरन बजते। रात होते-होते किसी कर्फ्यू नाम की चीज़ का भी एलान हो गया था और सारी दुकानें बंद हो गई थीं। ये वो दौर था जब मोबाइल सिर्फ अमीरों के हाथों में होता था और फेसबुक व वाटसएप का आविष्कार नहीं हुआ था, कौन कहाँ किस हाल मे था वो ऊपरवाला ही बेहतर जानता था। अंधेरा थोड़ा और गहराया तो अब्बा अपने दोस्तों के साथ कालोनी के गेट पे खड़े हो गये, दिल में डर और हाथों में लाठी लिए वो रात भर कालोनी पे पेहरा देते रहे। घरों में सबकी आँखों में नींद भरी हुई थी पर कोई सो नहीं रहा था। शायद ऊपरवाला भी नहीं सो रहा था, शायद इसलिए हम ज़िंदा थे, शायद।

सुबह का सूरज बहुत देर से निकला, मेरे दिमाग मे सवालों का ज्वालामुखी फट रहा था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। आखिर दंगों में कितनी शक्ति थी कि मेरे स्कूल के साथ-साथ उसने पूरा शहर बंद करवा दिया, आखिर क्या था इन दंगों में जिससे अम्मी, अब्बा और पूरी कालोनी डरी हुई थी। दंगों ने ऐसा कौन सा जादू किया कि रातों रात अशफ़ाक चाचा, जिनसे अब्बा की कुछ दिनों पहले लङाई हुई थी वो हमारे घर पर आकर अब्बा से बातें कर रहे थे, और आलोक चाचा जो रोज़ मुझे चाकलेट देते थे वो हमारी कालोनी के पास भी नहीं आते थे। दंगों ने ज़ैद के अब्बा की दुकान जला दी थी और आलोक चाचा की भी, शायद इसीलिए वो अब चाकलेट देने नहीं आते थे। मैं अम्मी को रोते देख रोता था पर मुझे इस बात की बहुत खुशी थी कि दंगों ने मेरा स्कूल बंद करवा दिया था। दंगे शहर में कैसे आ गए मुझे नहीं पता था पर अम्मी बता रही थीं कि छब्बीस जनवरी के दिन झंडा फहराने को लेकर हिंदू-मुस्लिम छात्रों में कुछ कहा सुनी हो गई थी और उसी की वजह से ये दंगा शहर में आया था। सुनने में ये भी आया था कि कुछ छात्र “वनदे मातरम” गाना चाहते थे और कुछ “सारे जहाँ से अच्छा” और बस इतनी सी बात पर पूरा शहर जल रहा था। तब किसी ने नहीं बताया था कि ये दंगा आखिर होता क्या है, मैं जानना चाहता था पर ना तो अम्मी ने कुछ बताया ना ही अब्बा ने।

आज बरसों बाद मुझे दंगे का सही मतलब पता चल गया है, मुझे पता चल गया है कि आग इंसानों को जलाती है और दंगा इंसानियत को। गोलियां बेशक शरीर को लहूलुहान करती हैं पर दंगा हमारी रूह को ज़ख्मी करता है और एक ऐसा ज़ख्म देता है जो सदियों में नहीं भरता। मुझे ज्ञात हो गया है कि हम चाहे आज़ादी की कितनी भी सालगिरह मना ले पर सही मायनों में हम आज भी गुलाम हैं। हम गुलाम हैं मज़हब के, ज़ात के, भाषा के और शायद हम गुलाम हैं उस मानसिकता के जिसमे मज़हब को इंसानियत से बढ़कर देखा जाता है। आज मुझे एहसास हो गया है कि हमजो अनेकता में एकता का नारा लगाते फिरते हैं, वो महज़ हमारी ज़बान से निकलता है, हमारे दिल से नहीं। हम आज भी भेदभाव और नफरत की जंजीरों में कैद हैं और शायद हम इसी तरह कैद रहेंगे और शायद दंगे भी इसी तरह होते रहेंगे। हम उस समाज का हिस्सा बनते जा रहे जहाँ छोटी सी छोटी बात पर दंगे हो जाते हैं, कभी मंदिर को लेकर तो कभी मस्जिद को, कभी त्योहारों को लेकर तो कभी मामूली कहासुनी को लेकर, यहां तक की बच्चों की लङाईयां भी कभी-कभी दंगे का रूप धारण कर लेती हैं।

हमारे देश में अहिंसा और सदभावना की बहुत बड़ी बड़ी बातें होती हैं, होती आई हैं और होती रहेंगी पर ये सब तब तक नामुमकिन हैं जब तक हम हमारे बीच की ये दीवारें नहीं गिरा देते। मज़हब की दीवार, जात-पात की, भाषा की, रंग की, अमीरी-ग़रीबी की। हमें समझना होगा कि दंगों से किसी का भला नहीं होता सिवाय चंद नेताओं का, धर्म के चंद ठेकेदारों का, जिनका इंसानियत से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं होता। हम सब को एक साथ मिलकर इंसानियत की आवाज़ को इतना बुलंद करना होगा कि उसके आगे दंगों का शोर दब जाए। कोई देश तब तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक उसमें रहने वाले हिंसा से खुद को अलग नहीं कर लेते, जब तक वहां अमन और चैन ना हो। हमें हिंदू, मुसलमान, सिख या इसाई होने से पहले हिंदुस्तानी होना पड़ेगा, तब ही हमारा देश कामयाबी की नई इबारत लिख सकेगा। हमें सम्मान देना होगा एक दूसरे को, एक दूसरे के मज़हब को, भाषा को, जाति को और सबसे ज़्यादा एक दूसरे की आज़ादी को। सोचने, बोलने, लिखने और सुकून से रहने की आज़ादी।

दंगे हमसे हमारी आज़ादी छीन लेते हैं, किसी माँ से उसका बेटा, किसी पत्नी से उसका पती, दंगे दुकानें जला देते हैं और उनसे भरने वाले पेट को भी। हमारे देश का इतिहास दंगों से भरा पड़ा है, देश के विभाजन से लेकर अब तक, इस देश की मिट्टी कई बार लहूलुहान हुई है, पर अब और नहीं। मैं उम्मीद करता हूँ कि जो कोई भी मेरा ये लेख पढ़ रहा होगा, वो वक्त आने पर मज़हब की जगह इंसानियत को चुनेगा, असहनशीलता की जगह सहनशीलता को और दंगों की जगह अमन और शांति को। मैं उम्मीद करता हूँ कि अब इस देश में फिर कोई दंगा ना होगा ताकि फिर कोई बच्चा यतीम न हो, फिर किसी के माथे से सिंदूर न पोछा जाए, फिर किसी अबला की अस्मत न लुटे, ताकि फिर कभी चिताओं और कफनों के ढेर न लगे। ताकि फिर सारे जहाँ से अच्छा बने हिंदोस्ताँ हमारा।

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