हर एक मनुष्य के पास अपनी एक भाषा होती है, मां के दूध के आस्वादन के साथ ही हमारे कान में भाषा की मिश्री भी घुलती है, तब हम कुछ बोलने में समर्थ हो पाते हैं। शायद इसीलिए उस भाषा को हम मातृभाषा कहते हैं और उसे आदर और प्रेम की दृष्टि से देखते हुए एक जुड़ाव का अनुभव करते हैं। भाषा जुड़ने का एक अनिवार्य उपकरण है जिसके बल पर हम एक दुसरे के साथ अपनी भावनाएं, जानकारियाँ, विचार, बातें साझा कर पाते हैं।
लेकिन जब अगला व्यक्ति दुसरे भाषा क्षेत्र का होता है तब संवाद में कठिनाई उत्पन्न हो जाती है, उस समय हमें आवश्यकता होती है एक ऐसी भाषा की जिसको हम दोनों समझ पाएं। वह पुरे राष्ट्र की आवाज़ हो, समूचा राष्ट्र उस भाषा सूत्र में बंधा हो, यही परिकल्पना होती है एक ‘राष्ट्रभाषा’ की। इस प्रकार हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा न केवल भाषा है बल्कि एक संस्कृति है, संस्कार है, समुदाय है।
हिंदी को इन्ही गुणों के कारण राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी गई है क्योंकि हिंदी के भीतर विभिन्न भाषाओं की अनुगूंजें विद्यमान है – मारवाड़ी, मेवाती, मेवाड़ी, जयपुरी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, खड़ीबोली, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी, मैथिलि, मगही, भोजपुरी, कुमाउनी, और गढ़वाली की मधुर ध्वनियाँ हिंदी की प्राणभाषा है तो वहीँ पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उर्दू जैसी कई भाषाओं से स्नेह पाती हुई हिंदी बहुत कंठों से स्वर पाती है और पूरे भारत वर्ष में सहजतापूर्वक बोधगम्य होती है।
किन्तु वर्तमान में ये दशा ठीक विपरीत है। हम अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के घोर विरोधी होकर विदेशी भाषा के प्रेमपास में कैद हो रहे हैं। विदेशी भाषा या किसी अन्य भाषा का ज्ञान होना बुरी बात है मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूँ, लेकिन अपनी माँ को दुत्कार कर किसी दुसरे की माँ को अपना बनाना कहाँ तक न्यायोचित है?
किन्तु यह परिघटना एकाएक हुई, ऐसा बिलकुल नहीं है। इसके पीछे लम्बी साज़िश, सोच दलालों की खरीदी-बिक्री, अंग्रेजी पिट्ठुओं की काली करतूतों की कहानी है। इस किस्से के वर्तमान किरदार के रूप में हम-आप कैसे शामिल हो गए इस चाल को समझना बहुत ज़रूरी है।
मैकॉले ने १८३५ में अंग्रेजी की तरफदारी करते हुए कुतर्क दिया कि, “अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है। यह पश्चिम की भाषाओँ में भी सर्वोपरि है। यह भारत में शासकों द्वारा बोले जाने वाली तथा समुद्री व्यापार की भी भाषा है। यह भारत में वैसे ही पुनर्जागरण लाएगी, जैसे इंग्लैण्ड में ग्रीक अथवा लैटिन ले आई थी और जैसे पश्चिम यूरोप की भाषाओँ ने रूस को सुसभ्य बनाया था।’”
तब से लेकर आज तक अंग्रेज़ी समर्थक संभ्रांत वर्ग यही तर्क बार-बार हमारे समक्ष बेबाक होकर दोहरा रहा है। साधन, सत्ता, साहित्य में कब्ज़ा होने के कारण उनके द्वारा कुप्रचारित बातों में हमें सत्यता भी दिखाई देती हो तो यह चौकाने वाली बात नहीं है, क्योंकि झूठ को अगर कोई लगातार दुहराता है तब वह झूठ एक सच का रूप धारण कर लेती है। और यही स्वीकारोक्ति हमें राजनेताओं, तथाकथित बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों और शिक्षाविदों में देखने को मिली जो अंग्रेजी को विकास और उत्थान की भाषा सिद्ध करने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के साथ कदमताल करने लगे।
इस कदमताल में ऐसे लोग भी शरीक हो गए जिनको हम बड़े समाजसुधारक मानते आ रहे हैं। जब अंग्रेजों ने पहले पहल संस्कृत कॉलेज खोला तब राजा राममोहन राय ने इसकी खिलाफत करते हुए कहा कि “अगर ब्रिटिश हुकूमत की नीति इस देश को अन्धकार में रखने की है तो संस्कृत के अध्ययन का विकास सर्वोत्तम रास्ता होगा।” फिर मैकॉले ने राजा राममोहन राय और उनके समर्थकों से प्रेरणा पाकर भारत का पश्चिमीकरण करना शुरू कर दिया, उनके लिए अपना व्यापार ही सब कुछ था, उनका अपना औपनिवेशिक लक्ष्य था जिसके कारण कंपनी चाहती था कि “फिलहाल हमें एक ऐसे वर्ग के निर्माण का भरसक प्रयास करना चाहिए जो हमारे और हमारे लाखों शासितों के बीच एक दुभाषिय का काम कर सके। ऐसे मनुष्यों का वर्ग, जो रक्त और वर्ण से भारतीय हों लेकिन रूचि, सोच, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज हो।”
एडम स्मिथ ने अपनी किताब ‘वेल्थ ऑफ़ नेशन’ में लिखा है कि “व्यापारियों का शासन किसी देश का कदाचित दुर्भाग्य होता है, उससे छुटकारा आसान नहीं।” सचमुच, भारत की आज़ादी के बाद भी हमें अंग्रेज़ियत से छुटकारा आज तक नहीं मिल पाया और हम स्वभाषा को कुण्ठाभाव से और परभाषा को कुलवंती बनाकर सिंहासन पर बैठाए हुए हैं। न्गुगी वा थ्योंगो ने अपने लेख भाषा के साम्राज्यवाद में लिखा हैं कि “गुलाम बनाने का दूसरा तरीका विजेता की भाषा को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना था। इसे जीते हुए की भाषा बना दिया गया था। जनता के समूह से अलग करके जिन्हें स्कूली व्यवस्था में शामिल कर लिया गया था, उन्हें नए आईने दिए गए थे जिसमें वे अपनी और अपनी जनता की तस्वीरें देख सके जिन्होंने यह आईना दिया था…हमारी भाषाएँ अंग्रेजी के साथ इस तरह मिलीं जैसे अंग्रेजी किसी विजेता राष्ट्र की भाषा हो और हमारी भाषा किसी पराजित देश की।
यही पराजय की परिस्थितियाँ हमारे समक्ष हर रोज़ निर्मित होती है जब हम अंग्रेजी ज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं। हम स्वभाषा के कितने भी बड़े जानकार हों, हमारी जानकारियां अन्य विषयों के सम्बन्ध में भी क्यों न दुरुस्त हो लेकिन इंग्लिश भक्ति के बगैर सब व्यर्थ है। हालाँकि आज़ादी के आन्दोलन की भाषा हिंदी रही है, स्वतंत्रता जागरण की भाषा हिंदी रही है, समाज सुधार की भाषा हिंदी रही है, अनेकानेक समाचारपत्र, साहित्य, हिंदी में रचे गए थे, लेकिन आज़ादी के बाद सब सत्तालोलुपता और भाषाई राजनीति की भेंट चढ़ गई। कहीं आर्य बनाम द्रविण के नाम पर विवाद, तो कहीं उर्दू बनाम हिंदी के नाम पर फसाद और इस लड़ाई का सीधा फायदा अंग्रेजी की झोली में गई वह बलवती होती गई, हम लड़ते रहे, वह विज्ञान, अनुसंधान, कानून, तकनीक की भाषा बन गई हम लड़ते रहे, फिर वह हमारी मातृभाषाओं को निगलने के लिए आतुर है तो क्या फिर भी हम लड़ते रहेंगे?
सरकार की गलत नीतियों की वज़ह से आज हमारा समाज दो वर्ग में बंट गया है – एक वर्ग वो जो अंग्रेजी सोचता है, जानता है, बोलता है, शासन करता है, और दूसरा वो जो अंग्रेजी नहीं जानता, अपनी मातृभाषा या हिंदी बोलता है और उस पर शासन होता है। वह मज़दूर है, किसान है, ग्रामीण है, कस्बाई है, अपने जड़ से जुड़ा हुआ है लेकिन कुंठित है। अंग्रेजीभाषी उन्हें हिकारत की निगाह से देखते हैं, बड़े-बड़े अफसर, नेता, साहब उनको लतियाते हैं और ‘असभ्य’ का दर्जा देते हैं। वह मातृभाषी हीन भावना से ग्रस्त होकर या तो हार मान लेता है या फिर स्वभाषा को त्यागकर अंग्रेजी की शरण में चला जाता है…इसमें उसका कोई दोष नहीं होता आखिर जीने के लिए पैसा तो चाहिए न तो पैसा आएगा रोजगार से और रोजगार की भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है अंग्रेजी। और इस प्रकार हम लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। एक भाषा का समाप्त होना केवल उसका समाप्त होना नहीं होता, बल्कि एक संस्कृति, सभ्यता, समुदाय का समाप्त होना होता है। एक भाषा के पीछे सदियों का अनुभव, सदियों की मेहनत, खून, पसीना, आंसू, जीवन, मृत्यु, संघर्ष सब होता है क्या हम अपनी भाषाओँ को मरते हुए देख सकते हैं? लेकिन हमारी सरकार लम्बे समय से हमारी भाषाओँ को मरते हुए देख रही थी अब एक नई सरकार के आने से उम्मीद जगी है कि हमारी भाषाओँ को उचित दर्जा मिले, सम्मान मिले लोकतंत्र में लोकभाषा को सत्ता मिले क्योंकि भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते थे कि “अंग्रेजी पढ़ी के जदपि सब गुण होत प्रवीन। पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन।”
Vid
The world is moving towards accepting one universal Language. Not only India, but China and many other countries are accepting English as the universal communication medium. It will not only bring people closer but will also help understand each other without much chaos. Internet and technology boom is also one big reason why English is fast becoming popular all over the world. What’s wrong in that? Why people always like to dwell in past and never want to move forward ?
Akshay Dubey Saathi
बेशक बाजारीकरण की वज़ह से एक वैश्विक भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार तेज है लेकिन इसका क्या मतलब कि अन्य भाषा हेय या अवैज्ञानिक है।