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याकूब मेमन की फाॅंसी से दादरी में हत्या तक, कैसे पड़ता है मीडिया का नाकारात्मक प्रभाव

 विक्रम प्रताप सिंह सचान

30 जुलाई को आतंकी याकूब मेमन को फाँसी दी गयी। एक आतँकी को विदा करने के लिये जबरदस्त भीड़ उमड़ी। समाचारपत्रो और न्यूज़ चैनल्स पर विदाई समारोह सजीव दिखाया गया। मनाही के बावजूद। ये ख्याल लाजिमी था कि एक आतँकी को विदाई देने का क्या मतलब? भीड़ में जो लोग जुटे क्या हासिल करना चाहते थे? उनकी मंशा या शंका क्या थी? इस बात का जवाब कभी ढंग से समझ नहीं आया। किन्तु तार्किक तौर, तथ्यों के आधार पर, ये मान लेने में कोई सँकोच नहीं था की लोग सम्विधान की अपेक्षा व्यक्ति विशेष और उसके द्वारा किये गये कार्यो को तरजीह दे रहे है। न्यूज़ चैनल्स छोटा शकील और उनके लोगों को लाइव टेलीकास्ट कर रहे थे। एक भगोड़ा 1.2 अरब की सँख्या वाले लोकतन्त्र को धमकी दे रहा था। किन्तु बेशर्मी के साथ TRP के लिये सजीव प्रसारण था।

उस शाम और उसके हफ्तों बाद तक समाचारपत्रो और न्यूज़ चैनल्स को बारीकी से खंगाला। पर आतँकी को महिमामण्डित करने वाले लोगों के विरोध में कोई बयान खोजे ना मिला। लगा मानों समूची मीडिया समूचे धर्मनिरपेक्ष बिरादरी, समूचे संवेदनशील लोग चुप्पी की चादर ओढ़े बैठे हो! लगा जैसे नंगा सच देखने के बाद भी लोग आँखें घुमाकर निकल जाना चाहते हो। ये तथ्य देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहे शायद इसके लिये पचा लिया गया। किन्तु जरा सोचिये, सच से आँखें फिरा लेने से, मौन हो जाने से क्या सच बदल गया। विरोध ना करना मूक समर्थन जैसा ही तो था। किन्तु जिस सहजता से आतँक के इस महिमामण्डन को स्वीकार किया गया वो चौकाने वाला था। यहाँ ये तथ्य गौरतलब है कि आतँकी याकूब को भारत की दण्ड सँहिता का पालन करते हुये फाँसी दी गयी। बचाव का हर मौका भी किन्तु अंततः सज़ा हुयी और मौत मिली। लोगो की भीड़ कमोवेश उस दण्ड का विरोध करती नज़र आई। ये दण्ड के साथ भारत कि न्याय व्यवस्था का विरोध था। भारतीय होने का विरोध था।

अब देखिये, २ महीने बाद दादरी में एक हादसा हुआ। गोकशी की अफवाह पर एक हत्या हुयी। यकीनन हत्या निन्दनीय और मानवाधिकारों का उल्लघंन करने वाली थी, शर्मनाक थी। किन्तु हत्या को हिन्दू-मुस्लिम का तमगा लगा कर प्रचारित किया गया। देश-व्यापी सुनियोजित साजिश करार दिया गया। अब देश की मीडिया, धर्मनिरपेक्ष बिरादरी, संवेदनशील लोग कुण्डली मार कर बैठे है दादरी में। समाचारपत्रों में न्यूज़ चैनल्स में सोशल मीडिया बस २ हफ्ते से एक खबर थी। नगर पन्ना, राष्ट्रीय पन्ना, और अन्तराष्ट्रीय पन्ना सब पढ़े पर सब जगह खबर घूम फिर कर एक ही थी, दादरी काण्ड, हर नेता से लेकर वायुसेना के मार्शल साहब भी बयान देने से नहीं चूके। सवाल लाजिमी है। जब खुले देशद्रोह का मूक समर्थन किया गया तो फिर यहाँ लाउडस्पीकर लेकर चिल्लाना क्या दोहरे मानदण्डों का प्रतीक नहीं है? क्या हमे ये नहीं चाहिये की एक राजनीतिक और पेशेगत रोटियाँ सेंकी जा रही है? दादरी से पहले एक हादसा बरेली में हुआ, एक दरोगा जी को कुछ पशु तस्करो को मार दिया। सरकारी ड्यूटी करते दरोगा की मौत का लोगो को इल्म तक ना हुआ और अब देखिये! सोचिये भी। सोचना और समझना जरूरी है।

एक बच्चे को किताबों में ये पढ़ाया जाता है की देश धर्मनिरपेक्ष है। यही बात उसके मन में तब तक रहती है जब तक वो खुद निर्णय लेना नहीं सीख जाता। जब बच्चा बड़ा होता है, खुद अच्छे बुरे की पहचान करने लगता है। तब साहित्य, दूरदर्शन, समाचारपत्र की खबरें, न्यूज़ चैनल्स जो केवल खबरें बताते है( व्यक्तिगत राय नहीं) उस से प्राप्त सामाजिक ज्ञान के आधार पर फैसला करता है। सो कुल मिलाकर बहुत समझदार हो जाने के बाद ये निर्णय लेना मुश्किल नहीं की वो किस पाले में रहना चाहता है। या ये कहना होगा कौन बेहतर है। कश्मीर में रोज चलती गोलियाँ, रोज मरते देश के सैनिक, पड़ोसी देश की साजिश से हलकान होने की खबरें, जगह-जगह होते विस्फोट साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय खबरें भी हर खबर कुछ सीखाती है। कुल मिलाकर आसपास होता घटनाक्रम ये सिखाता है क्या-क्या सही क्या गलत। वही सीख कर लोग आगे बढ़ते है। कुल मिलाकर जबरदस्ती का प्रचार कई बार बेहद नकारात्मक प्रभाव डालता है।​

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