वे ऐसे झूमते थे कि वहां मौजूद लोग भी थिरकने लगते थे, उनकी तान इतनी मीठी होती थी कि रोम-रोम में मिश्री घुल जाए। वे जब साज पर अपनी उंगलियां फेरते थे तब संगीत के साथ-साथ उदास दिलों में भी खुशियां चहक उठती थी। उनके बारे में कहा जाता है कि वे कभी गोंड राजा के दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे, उनका पूरा समुदाय खुशियों की तिजोरियां राजा के दरबार में न्योछावर किया करते थे।
लेकिन इसके बदले उनको क्या मिला? कहा जाता है कि एक दिन राजा ने किसी कारणवश उन सबको दरबार से निकाल दिया। फिर वे सब घुमंतू हो गए, लेकिन गीत, संगीत, नाचने, झूमने से उनका वास्ता बरकरार रहा, आखिर वे करते भी क्या उनकी सारी पीढ़ियों की कुल जमा पूंजी यही तो थी, इसके अलावा वे कुछ भी नहीं जानते थे। नृत्य, गीत, संगीत यही उनका समर्पण, जीवन और आजीविका का ज़रिया था।
जब मैं अपने बचपने को खंगालता हूं तो आज भी कुछ धुंधली सी तस्वीरें किसी मोंटाज़ की तरह आंखों के सामने गुज़रने लगती हैं। कभी मृदंग की थाप पर थिरकती हुई एक महिला दिखाई देती है, कभी उनके श्रृंगारिक गीतों के बोल कान में कुछ बुदबुदाने से लगते हैं, कभी गोदना (एक किस्म का टैटू) गुदती एक बुढ़िया, कभी रीठा और सील-लोढ़ा बेचने के लिए गलियों में गीत अलापती उनकी टोलियाँ, तो कभी सारंगी या चिकारा बजाते उस बड़े बाबा के हाथों को निहार पाता हूं जो शायद युगों-युगों से संगीत साधना में मग्न है।
यही सोचकर मैं किसी तरह छत्तीसगढ़ के बिलासपुर ज़िले में रहने वाले इन घुमंतुओं के डेरे में पहुंचता हूं, एक झोपड़ी के सामने टंगा फटा हुआ ढोल मुझसे कुछ कहता है। मैं उसके समीप पहुंचता हूं, तभी झोपड़ के अन्दर से आवाज़ आती है “कौन?” मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले पीछे से एक महिला की आवाज़ आती है “भैय्या साहेब आए हे..” दरअसल वे मुझे कोई सरकारी अफसर समझ रहे हैं जो वक़्त बेवक्त झिड़की देने आ टपकते हैं।
एक युवक के बाहर आते ही मैं उनको अपने बारे में बताता हूं। जब मैं युवक से नाच-गान के बारे में पूछता हूं तो वो फटे हुए ढोल की ओर देखते हुए जवाब देता है कि “बड़े-बुज़ुर्ग ये सब काम किया करते थे, अब कहां। तभी पीछे खड़ी महिला अपनी दादी के बारे में ज़िक्र करती है और मैं बिना समय गंवाए उनके पास पहुंचता हूं। दादी कहती है “अब कहाँ का नाचना-गाना बेटा….सब गया अब हम घूरे में रहते हैं, और कचरा इकट्ठा करते हैं।” यह कहते हुए वह बूढ़ी दादी गाने लगती हैं।
“आज कहां डेरा बाबू काल कहां डेरा, नदिया के पार मां बधिया के डेरा,तरी करे सांय-सांय रतिहा के बेरा”(आज हमारा डेरा कहाँ है, कल कहां होगा, नदी के किनारे डेरा होगा जहां रात सांय-सांय करती है) मेरे हिसाब से ये पंक्तियां उदासी की सर्वोत्कृष्ट पंक्तियों में से एक होगी।
गीत-संगीत तो केवल अब उनकी बूढ़ी आंखों और आवाज़ों में कैद है जो शायद कुछ सालों में दम तोड़ देगी। लेकिन मायूसी, तंगहाली और कूड़े के ढेर में रहने को विवश इन कलाकारों की वर्त्तमान पीढ़ियाँ अशिक्षा, मुफलिसी, बीमारियों से त्रस्त शासन के योजनाओं से दूर हाशिए पर हैं, कला का सरंक्षण तो छोड़िए, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
वह बूढ़ी दादी सही बोलती है “नाचने गाने से अब ख़ुशी नहीं मिलती।” दर-दर की ठोकरे खाते वे ‘देवार’ जाति के लोग अब संगीत से अलग-थलग और मुख्यधारा से कोसो दूर कचरे के ढेर में जीने के लिए विवश हैं।
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Useless article! The time has changed now, why should anyone feel sorry about them. It was a thing of past, now it’s gone. If they really wanna catch up with time, they should have changed themselves too.