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स्वच्छ भारत के रास्ते की सबसे बङ़ी रुकावट हम खुद ही हैं

सलमान फहीम:

जब प्रधानमंत्री ने स्वयं अपने हाथ में झाङू पकड़ा था तो मुझे लगा था कि शायद अब मेरे मुल्क की काया पलट होगी और हमारा ये देश सही मायनों में स्वच्छ होगा। पर मेरा ये सोचना उतना ही गलत था जितना की एक बबूल के पेड़ से साए की उम्मीद करना। तो आखिर क्या वजह है कि आज एक साल से भी ज्यादा दिन गुज़र गए “स्वच्छ भारत” के नारे को, पर अब भी हमारा ये देश गंदगी के दलदल में उतना ही धसा हुआ है जितना पहले था। सरकार और उसके नुमाइंदे तो कटघरे में खड़े होते ही हैं पर कहीं न कहीं दोष तो हमारा भी है, कहीं न कहीं दोष हमारा ही है।

बात अगर नारों की हो तो हमारे देश में भगवान की कृपा से इसकी कभी कोई कमी नहीं रही, हर नयी सरकार के अपने नारे होते हैं, होने भी चाहिए, पर सरकारों को यह समझना होगा कि आज के हिंदुस्तान और पहले के हिंदुस्तान में ज़मीन और आसमान का फर्क है। पहले नेताओं के नारों पर लोग दिल्ली से लेकर जेल तक जाने को राज़ी थे क्योंकि उन नारों में अपना निजी स्वार्थ कम और सच्चाई ज्यादा होती थी और तब के लोग अपने बारे में कम और देश के बारे में ज्यादा सोचते थे। आज के हिंदुस्तान में नारे परिहास का विषय हैं और बङ़े अफसोस के साथ कहना पङ़ रहा है कि “स्वच्छ भारत” का नारा भी मज़ाक बन कर रह गया है।

इस दौर में जहाँ हमारी देशभक्ति महज़ सिनेमाघरों में राष्ट्रगान पर खड़े होने तक सीमित है या पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के दिन वाट्सेप या फेसबुक पर तिरंगे की फोटो लगाने तक, ये दर्शाता है कि हमारे पास भारत के लिए ही समय नहीं है, स्वच्छ भारत तो बङी दूर की कौड़ी है। सही मायनों में हमारा देश इस लिए भी साफ सुथरा नहीं क्योंकि किसी को देश की नहीं पङ़ी है। यहाँ आपको अपने घरों को चमकाने वाले करोड़ों मिलेंगे पर अपनी कालोनी या अपना मोहल्ला साफ सुथरा रखने वाले कम, और यही सोच “स्वच्छ भारत” के रास्ते का सबसे बङ़ा रोड़ा है। अपने घर में हम गंदगी करने से पहले दस बार सोचेंगे पर रास्ते पर वो केले का छिलका फेंकते वक्त हम एक बार भी नहीं सोचेंगे और ना सोचते हैं।

हम हिंदुस्तानियों को अल्लाह ने ना जाने किस मिट्टी से बनाया है, हम विदेशों में जाकर वहां की साफ सफाई देखकर इतने मंत्रमुग्ध हो जाते हैं कि वहां कचरा फेकने के लिए डस्टबिन ना भी हो तो हम अपनी जेब को डस्टबिन बनाने से गुरेज़ नहीं करते। वहीं अपने देश में कदम रखते ही हम में से कुछ गुटखे और पान की पीक से सड़क को इतना लाल कर देते हैं की काबिल से काबिल पेन्टर भी शर्मा जाये। आश्चर्य की बात ये है कि एक पढ़ा लिखा वर्ग इसमें संलिप्त है जिसको पता है कि उस पानी की बोतल या चिप्स के पैकेट की सही जगह डस्टबिन है ना की सड़क का किनारा। पर इसमें उनकी भी गलती नहीं क्योंकि ‘ये भारत है और यहाँ सब चलता है’, पर शायद उन्हें यह मालूम नहीं कि इसी “चलता है” ने आज हमारी मातृभूमि की ये दशा कर दी है कि इसकी सफाई के लिए सरकार को हमसे “स्वच्छ भारत टैक्स” वसूलना पड़ रहा है। यह बात और है कि इसका प्रभाव कम और दुष्प्रभाव होने की आशंका ज्यादा है।

मैं यह बात तजुर्बे से कह रहा हूँ क्योंकि गाहे-बगाहे मुझे ट्रेन में सफर करना पड़ जाता है और वहाँ मैंने देखा है कि कैसे लोग टिकट के साथ-साथ यह अधिकार भी पा जाते हैं कि वो मूँगफली का छिलका या तेल में सना कचौडियों वाला अखबार अपनी सीट के नीचे सरका दें। अगर आप ने साहस करके पूछ भी लिया तो जवाब ये मिलेगा, “पैसा दिये हैं, फोकट में थोड़ी ना बैठे हैं”। अब ज़रा अनुमान लगाइए कि “स्वच्छ भारत” टैक्स देने वाला गंदगी क्यों नहीं करेगा, आखिर उसने इसके पैसे दिए हैं।खैर, मैं आशा करता हूँ कि भारत के सवा सौ करोड़ लोग मुझे इस विषय पर गलत साबित करेंगे और सरकार भी इन पैसों का सही उपयोग करेगी।

सरकारों की बात हो, पिछली या अब की, एक चीज़ बड़ी अजीब लगती है। हर सरकार भारत को स्वच्छ करने के इस मिशन को अपनी साख का सवाल समझती है ना की देश की साख का। इसलिए इसका प्रचार प्रसार तो ज्यादा होता है पर ज़मीनी हकीकत ऊँट के मू मे ज़ीरे जितनी भी नहीं होती है। मौजूदा सरकार स्वच्छ भारत को शौचालयों के निर्माण से जोड़ कर देखती है, मोदी सरकार का संकल्प है कि 2019 से पहले 12 करोड़ शौचालयों का निर्माण किया जाये, वो बात अलग है कि एक साल में यह आंकड़ा अभी लाखों तक ही पहुँचा है। शुरुआत में इस अभियान में तेजी दिखी, नेता-अभिनेता सबने हाथ में झाङू पकड़ा और फोटो भी खिचवायी पर धीरे-धीरे इसका बुखार उतर गया।जो शौचालय बने उनमें से कई आज धूल फाक रहे, कुछ में गोबर के उपले रखे जा रहे और कुछ बंद हो गये। कई शौचालयों में पानी की टंकी नहीं, जहां टंकी है वहाँ पानी का पाइप नहीं और जहाँ दोनो है वहाँ पानी ही नहीं। पर सरकार इन ही शौचालयों का श्रेय लेते नहीं थकती, न देश में और ना ही विदेशों में।

शौचालयों का निर्माण आवश्यक ही नहीं अतिआवश्यक है, खासकर उस देश के लिए जहाँ की 60 फीसद आबादी इससे अछूती है, पर केवल निर्माण ही काफी नहीं बल्कि उसकी समीक्षा भी ज़रूरी है और ज़रूरी है ये सुनिश्चित करना कि वह आम जनता के इस्तेमाल के लिये योग्य हो। उसके बाद अगर सरकार श्रेय ले तो ये उसका हक होगा पर उससे पहले ये वोट बटोरने का महज़ एक ज़रिया ही बन कर रह जायेगा। इसके साथ ही सरकार को “कचरा नियंत्रण” या “वेस्ट मैनेजमेंट” पर कोई ठोस काम करके दिखाना होगा, मैं उम्मीद करता हूँ कि प्रधानमंत्री जी अपने सिंगापुर दौरे से इस बिंदु पर अहम जानकारी लेकर आयेगें। आपको बताते चलू कि सिंगापुर का “वेस्ट मैनेजमेंट” दुनिया में अव्वल दर्जे का माना जाता है। “कचरा नियंत्रण” सुनने में जितना सरल लगता है असल में है उससे लाखों गुना जटिल और हमारे देश के लिये तो ये 125 करोड़ गुना मुश्किल है, पर कई दशकों बाद इस देश में पूर्ण बहुमत की सरकार आई है और हमें एक ऐसा प्रधानमंत्री दिया है जो इन विषयों पर खुल के बोलता है, अब देखना यह होगा कि वह इस दिशा में काम कितना कर पाता है।

इसे दुर्भाग्य ही कहिये की आज़ादी के तकरीबन सात दशक बाद भी सफाई और स्वच्छता के लिए इस देश को किसी अभियान की ज़रूरत पड़ रही है जबकी होना तो कुछ और ही चाहिये था। दरअसल बात ये है कि इस देश में अधिकारों की बातें ज्यादा होती हैं, कर्तव्यों की बहुत कम।हमने इतने सालों में अपनी इस माँ को दिया ही क्या है सिवा गंदगी और कूड़े के, हमने इसके हर एक अंग को गंदा किया है। पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, हमने कुछ नहीं छोड़ा है, हमने इसको अपने घर की गंदगी से नवाज़ा है, अपनी गाड़ियों के धुएं से और अपनी फैक्ट्रियों के जहरीले पानी से।पर अब शायद वो वक्त आ गया है जब इस माँ को उसका अधिकार मिलना चाहिये, स्वच्छता का अधिकार, साफ सुथरा रहने का अधिकार।हमें इस देश के प्रति अपना कर्तव्य समझना होगा, हमें समझना होगा कि भारत तब ही स्वच्छ होगा जब हर भारतीय स्वच्छ होगा, जब उसकी सोच स्वच्छ होगी।आइये हम सब मिलकर भारत को स्वच्छ बनाये, ना सिर्फ अपने लिये बल्कि अपने आगे आने वाली नस्लों के लिये ताकि वो एक स्वस्थ भारत में साँस ले सके, एक स्वच्छ भारत में जी सके।

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