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सिस्टम से जो फायदा कन्हैया कुमार को मिलता है वो रोहित वेमुला को क्यों नही मिल पाता?

सुरेश जोगेश:

जहाँ आजकल अगड़ी जातियों की लड़ाई आरक्षण जैसे संवेधानिक अधिकारों से है वहीँ पिछड़ी जातियां आजादी के 68 साल बाद अब भी गरिमा के साथ जिन्दगी जीने के अधिकार को लेकर लड़ रही हैं, मुझे इसलिए लिखना पड़ता है।

मुझे इसलिए भी लिखना पड़ता है कि सिस्टम से जो फायदा कन्हैया व ‘निर्भया’ को मिलता है वो रोहित वेमुला व सोनी सोरी को नहीं मिल पाता।

24 घंटे से ज्यादा समय तक हुक्का-पानी बंद करने का वाईस चांसलर अप्पा राव द्वारा खाफ जैसा फैसला लिया जाता और दिल्ली के मीडिया दफ्तरों में बैठे लोग इससे अनभिज्ञ रहते हैं, मुझे इसलिए भी लिखना पड़ेगा। FTII से लेकर JNU तक, छात्र आन्दोलन/प्रदर्शन हर जगह होते आये हैं लेकिन ऐसा कहीं नहीं होता कि आपका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाय और आप 12 दिन तक खुले में उठें-बैठें, खाएं-पियें, नहायें-धोएं। और अब हुक्का-पानी बंद कर देना। क्या ऐसे फरमानों के पीछे जातिवादी मानसिकता काम नहीं करती?

कन्हैया की लड़ाई इन्हीं जातिवाद, ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद से हैं तो मैं भी उसका समर्थक हूँ। मैं उसकी इन सब बातों से इत्तेफाक रखता हूँ। लेकिन रोहित वेमुला की लड़ाई भी अगर इसी व्यवस्था से होती है तो उसका नाम भी मीडिया पहली बार अपनी जुबान पर तब लाता है जब न्याय की उम्मीद में 12 दिन खुले में रहकर वो अपनी जान दे देता है। बिना किसी जांच के उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। मीडिया तब भी चुप था, मीडिया आज भी चुप ही रहेगा।
कैंपस में खाना-पानी से लेकर बिजली, इन्टरनेट यहाँ तक तक कि एटीएम कार्ड ठप्प कर दिए जाते हैं। रही सही कसर फिर पुलिस पूरी करती है विरोध कर रहे छात्र-छात्रों को बड़ी बेरहमी से पीटकर(यौन उत्पीडन का भी आरोप है)। जो खाना-पानी बाहर से मंगवाया जाता है उसे भी गेट पर रोक दिया जाता है। इसी बीच कैंपस में खाना बनाने की कोशिश कर रहे छात्र-छात्राओं के साथ पुलिस द्वारा मारपीट की जाती है, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। पुलिस की इस क्रूर कार्यवाही का शिकार हुए छात्रों में से एक “उदय भानु” अब भी अस्पताल में हैं, गंभीर हालात में ICU मे हैं। उनके अनुसार उन्हें पुलिस द्वारा वैन में बंद करके मारा गया। मारपीट को उनके घाव चीख-चीखकर बयां करते हैं। इस पूरे घटनाक्रम की शिकार हुए छात्रों द्वारा टुकड़ों में वीडियोग्राफी कर इन्टनेट पर डाली जाती है, सोशल मीडिया के माध्यम से भी बात आमजन तक पहुंचाने की कोशिश की जाती है व मदद की गुहार की जाती ह। यह शर्म की बात ही है कि इस सब के दौरान राष्ट्रिय मीडिया के कानों तले जूं भी नहीं रेंगती।

एप्पल और अमेरिकी जांच एजेंसी FBI की लड़ाई चल रही है एक आतंकवादी के iPhone को अनलॉक(खोलने) को लेकर। एप्पल इसे खोलने से मना कर रही है। उसका तर्क है कि हम ग्राहकों के साथ साथ छलावा नहीं कर सकते। वो हमारे लिए सर्वोपरी हैं। दूसरी तरफ यह देखिये कि यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद की SBI ब्रांच से जारी हुए उन छात्रों के ATM कार्ड बंद कर दिए जाते हैं वो भी उस स्थिति में जब उनका खाना-पानी, बिजली-इन्टरनेट सब बंद है। आप इन दोनों कंपनियों को चलाने वालों की भी मानसिकता देखिये।

यहाँ से यह साफ़ नजर आता है कि छात्रों के प्रदर्शन/आंदलन को दबाने के लिए सबने एकजुट होकर काम किया। मीडिया ने भी इसमें बखूबी साथ दिया, लोकतंत्र का चौथा हिसा होते हुए भी।

क्रिकेट मैच की तरह पल-पल की खबर, यहाँ तक कि लाइव विडियो सोशल मीडिया पर डाली जाती है। देश का समस्त पीड़ित-प्रताड़ित इसे पढता व देखता है। अगर कोई इस दौरान पिक्चर से बाहर होता है तो वो है मीडिया।
अगर मीडिया की मजबूरी को समझने की कोशिश की जाय तो वो क्या हो सकती है?
क्या उसे डर था उसके साथ पुनः मारपीट होने का? मुझे ऐसा नहीं लगता।

अगर उसे डर था भी तो उसे जातिवाद के मुद्दे पर पीछे नहीं हटना चाहिए था जैसे वो राष्ट्रवाद के मुद्दे पर नहीं हटा। देश के तमाम बड़े चैनलों के पत्रकार लाइव कवरेज/इंटरव्यू के लिए स्टूडियो छोड़ प्रदर्शन में के साथ-साथ कोर्ट तक जाते हैं।

मैं इस बार भी वही उम्मीद कर रहा था। मुझे जैसे ही इसके बारे में आधी-अधूरी जानकारी प्राप्त हुई। मैंने पूरी खबर व कवरेज के लिए मीडिया को खंगाला। इस उम्मीद में कि मीडिया के लिए इस वक़्त सबसे बड़ा मुद्दा यही होगा शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस का आक्रमण व लोकतंत्र की हत्या। हर अख़बार से लेकर लाइव डिबेट व प्राइम टाइम शो तक खंगाले और फिर न मिलने पर सोशल मीडिया पर। यह अनुभव मुझे हैरान-परेशान कर देने वाला था। मुझे इसलिए भी लिखने पड़ा।

खैर, घटना को अब कुछ दिन होने के बाद मीडिया के कुछ चैनलों ने अपनी शाख बचाने के लिए जहमत उठायी है एक-एक, दो-दो आर्टिकल लिखने की। इस अमानवीय घटनाक्रम पर मानवाधिकार संघठनों ने सवाल उठाये हैं। एक मानवाधिकार संघठन ने वाईस चांसलर को नोटिस भी थमाया है। वहीँ मानवाधिकार संघठन “एमनेस्टी इंटरनेशनल” ने भी पुलिस की शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर क्रूर कारवाही की निंदा है व गिरफ्तार किये 2 प्रोफेसर और 25 से ज्यादा छात्रों को शीघ्र रिहा करने की मांग की है साथ ही पुलिस के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के लिए निष्पक्ष जांच की मांग की है। बुधवार(22 मार्च) को गिरफ्तार किये गए इन लोगों 24 घंटे में न्यायलय के लिए समक्ष पेश तक नहीं किया गया जो कि कानून द्वारा अनिवार्य है। इन्हें न्यायलय के समक्ष पेश होने के लिए सोमवार तक का इंतजार करना होगा।

इस अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति के लिए “राष्ट्रिय मानवाधिकार संघठन”(NHRC) ने तेलंगाना सरकार व “मानव विकास संसाधन मंत्रालय”(MHRD) को नोटिस भेजा है तो “एशियन ह्यूमन राईट कमीशन” ने भी इसकी कड़ी निंदा की है इसे तानाशाही बताया है।

जो कुछ भी हो, यह सब संभव हुआ एक साझी सोच से जिसमे जातिवाद साफ़-साफ़ झलकता है। यह मैं ही नहीं “एमनेस्टी इंटरनेशनल” की यह रिपोर्ट भी कहती है। यूएन एक्सपर्ट (संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के गठन को पेश करने के दौरान) की नयी रिपोर्ट के अनुसार जाति व्यवस्था काफी लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करने का काम कर रही है।

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