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क्या सरकार जे एन यू के ज़रिये देश को असल समस्याओं से भटका रही है?

अविनाश कुमार च़ंचल

मंगलवार 23 फरवरी की सुबह जब मैं यह ब्लॉग लिखना शुरु किया तो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पाँच छात्र प्रशासनिक भवन (एड ब्लॉक) पर बैठे थे। लेकिन वो सिर्फ पाँच नहीं थे। कैंपस में उनके साथ सैकड़ों छात्र भी बैठे हुए थे। रातभर एक बेहतर दुनिया और देश बनाने पर विचार करते हुए, गीत गाते हुए वो निर्भिक बैठे थे। जिन पाँच छात्रों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है, वे संविधान और कानून में विश्वास जताते हुए देशभर में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और शोषित तबकों पर किये जा रहे अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करने का आह्वान कर रहे थे। दूसरी तरफ पूरे देश में इन छात्रों के समर्थन में लोग लिख रहे थे। सोशल मीडिया पर इन छात्रों के भाषणों को अपलोड किया जा रहा था, उसे हजारों लोग शेयर कर रहे हैं, सुन रहे हैं। अपलोड किये इन्हीं भाषणों में से एक में छात्र ओमर खालिद कह रहा है- “अगर विश्वविद्यालय में असहमति का अधिकार नहीं है तो वह जेल जैसा है। इसलिए हम अपने बोलने की आजादी के लिये संघर्ष जारी रखेंगे।”

कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में आवाज़ उठाने वाली कार्यकर्ता सोनी सोरी पर हमला किया गया। अभी उनका ईलाज चल रहा है। रविवार 27 फरवरी को ग्वालियर में मशहूर समाजशास्त्री और जेएनयू में प्रोफेसर विवेक कुमार की सभा में हिंसक वारदात को अंजाम दिया गया। पूरे देशभर से ऐसी खबरें आ रही हैं, जिसमें बोलने की आजादी पर हिंसक हमले भी किये जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र के लिये असल खतरा ऐसी घटनाएँ हैं।

लेकिन इन सारी बुरी खबरों के बावजूद उम्मीद जिन्दा है। आज देशभर में हज़ारो लोग अपनी अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र को बचाने के लिेये सड़कों पर उतर चुके हैं। 18 फरवरी की शाम ट्विटर पर मंडी हाउस ट्रेंड कर रहा था। उसी दिन दोपहर मंडी हाउस से जंतर-मंतर एक प्रोटेस्ट मार्च निकाला गया। करीब 15 हजार लोगों ने इसमें हिस्सा लिया। हिस्सा लेने वालों में छात्र, प्रोफेसर, कलाकार, लेखक, मजदूर, किसान, सामाजिक कार्यकर्ता, सब थे। मार्च में शामिल लोग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की रिहाई की मांग कर रहे थे, जेएनयू के छात्रों पर लगे देशद्रोह के मुकदमे को हटाने की मांग कर रहे थे, जेएनयू को बदनाम करने की साजिशों के खिलाफ नारे लगा रहे थे।

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने एक बार फिर कुछ सवाल उठाये हैं:

क्या भुखमरी से आज़ादी की माँग देशद्रोह है? क्या दंगाईयों से आज़ादी की माँग देशद्रोह है? क्या मुनाफाखोर पूंजीवादी व्यवस्था से आज़ादी की माँग देशद्रोह है ? क्या अपने देश के खेत, पानी, जंगल को बचाने की मांग करना करने वाला राष्ट्रविरोधी है? क्या देश के पर्यावरण को बचाने की मांग करना राष्ट्रविरोधी है? क्या किसानों की आत्महत्या पर सवाल उठाना राष्ट्रविरोधी है? क्या विस्थापन के खिलाफ आवाज उठाना राष्ट्रविरोधी है? क्या सरकार की नीतियों से असहमत होना राष्ट्रविरोधी होना है?

और क्या कॉरपोरेट सेक्टर को लाखों करोड़ रुपये का टैक्स छूट दे देना राष्ट्रवादी कदम है? क्या किसानों की आत्महत्या को फैशन बताना राष्ट्रवादी कदम है? क्या किसी के घर में घुसकर उसके कथित रूप से कुछ खाने पर उसे मार देना राष्ट्रवादी कदम है? क्या अदालत परिसर में पत्रकारों, प्रोफेसरों और छात्रों के साथ खुलेआम मारपीट करना राष्ट्रवादी कदम है? क्या कानून और संविधान की मूल भावना के खिलाफ देश में नफरत की राजनीति करना राष्ट्रविरोधी कदम नहीं है? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश से इस परिपक्वता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वहां बोलने की आजादी, सवाल उठाने की आजादी और असहमत होने की आजादी दी जायेगी?

आज हमसब इन सवालों से जूझ रहे हैं। पिछले कुछ सालों से लगभग दुनिया भर में राष्ट्रवाद को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है। हमारे देश में भी यह बहस अपने तीखे सवालों से साथ मौजूद है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि वर्तमान सरकार अपने निजी हितों के हिसाब से राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश मे जुटी है? क्या टीवी चैनलों के माध्यम से जनता के बीच यह प्रचारित नहीं किया जा रहा है जो भी सरकार की नीतियों के खिलाफ बोले, वह राष्ट्रविरोधी है?

कन्हैया कुमार और जेएनयू इसी सरकारी प्रोपेंगडा के शिकार हुए हैं। इससे पहले भी सामाजिक कार्यकर्ता और अपने अधिकारों के लिये आवाज उठाने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा लगाया जाता रहा है। कूडंकुलम इसका एक उदाहरण है, जहां परमाणु परियोजना का विरोध कर रहे स्थानीय समुदाय के लोगों पर देशद्रोही होने का मुकदमा लगाया गया था, तमिलनाडू में शराबबंदी के खिलाफ गीत गाकर लोगों को जागरुक कर रहे लोकगायक कोवन पर भी देशद्रोही होने का मुकदमा लगाया गया। इसी तरह मध्यप्रदेश में स्थानीय वनसमुदायों के हितों के लिये संघर्ष कर रही प्रिया पिल्लई को राष्ट्रविरोधी बताया गया, देश के पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल उठाने वाली ग्रीनपीस जैसे संस्थाओं पर राष्ट्रविरोधी होने का आरोप लगाया गया, समावेशी विकास की बात करने वाले संस्थाओं का एफसीआरए निरस्त किया गया और अब जेएनयू को राष्ट्रविरोधियों का अड्डा बताया जा रहा है।

जेएनयू को शायद इसलिए टारगेट किया जा रहा है क्योंकि पिछले दशकों में इस विश्वविद्यालय ने देश भर के तमाम समस्याओं पर लगातार सरकारों से असुविधाजनक सवाल पूछता रहा है। उन्होंने विकास के उस मॉडल पर सवाल उठाने की हिम्मत की, जिसमें देश का एक बड़ा तबका गरीब से गरीब होता चला गया है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों पर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने कब्जा जमा लिया है और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा है।

देश आज कई गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। जब टीवी चैनल में जेएनयू पर पैकेज बनाया जा रहा उसी बीच छत्तीसगढ़ में कॉर्पोरेट कंपनी को खदान देने के लिये आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को नजरअंदाज किया जा रहा है, देश के कई हिस्सों में सैकड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, लोगों की भूखमरी से मौत हो रही है। रोहित वेमुला जैसे दलित छात्रों को विश्वविद्यालय में जातिगत भेदभाव की वजह से आत्महत्य करना पड़ रहा है। क्या यह खबरें पूरे देश को नहीं जाननी चाहिए, क्या उन्माद फैलाने की जगह इन सवालों पर पूरे देश में बहस नहीं होनी चाहिए, क्या साफ हवा, पानी और बेहतर जीवन का अधिकार सबको मिले, इसके लिये देश की सरकार और खुद सभी देशवासियों को नहीं प्रयास करना चाहिए?

लेकिन यह सारे सवाल आज गायब होते नज़र आते हैं। देश को असल समस्याओं से भटकाया जा रहा है। राष्ट्रवाद का मतलब किसी खास राजनीतिक पार्टी या नेता की अंधभक्ति बताया जा रहा है, उस समय राष्ट्रगान रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर को याद किया जाना जरुरी है, जिन्होंने कहा था- राष्ट्रवाद और मानवता में मैं सबसे पहले मानवता को चुनना पसंद करुंगा।

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