Site icon Youth Ki Awaaz

टीचर की डांट से बचने का तरीका जब हमने निकाला, हम एक बहुत ज़रूरी बात तो भूल ही गए

To whom does the city belong? To really answer this question we need to think beyond property and possession, and see things in terms of home and a sense of belonging. These young Delhiites will share stories about their city in this column. It is a city with its ears close to the ground, made up of narrow bylanes, street corners, tea stalls and numerous places where people meet and talk. The writers have emerged from collectives engaged in writing practices hosted by Ankur Society for Alternatives in Education in Delhi’s working class neighborhoods.

पूजा:

स्कूल में रोज़ जैसा ही सामान्य दिन था, क्लासों से गूँजता हुआ और कानों में दाखिल होता बच्चों का वही शोर जो समझ से बाहर था। सब कुछ न कुछ अपनी बाते लिए बैठे थे। वहीँ कुछ क्लासों में सन्नाटा भी था।

इस समय हमारी क्लास बच्चों से भरी हुई थी। सामने की तरफ शांति की मूरत हमारी शोभा मैडम जी बैठी थी। शोभा मैड़म एक चालीस-पैंतालिस साल की बेहद शांत और अनुशासन पसंद टीचर हैं। चेहरा गोल, सांवला और झुर्रियों से ढका है और उनकी मोटी-मोटी आँखें हम पर नज़र रखने के कारण दिनोंदिन और मोटी होती जा रही हैं।

वे हमेशा की तरह आज भी क्लास में बैठी हुई कुछ काम कर रही थी। बच्चों की फुसफुसाहट से ज़रा-सा शोर क्या हो गया, उनकी शांति भंग हो जाती। वे चिल्लाती हुई कहने लगी, “मैं इतनी छोटी भी नहीं हूँ कि तुम लोगों को दिखाई ही न दूँ।” उनकी इतनी-सी बात से ही सब सहम गए। उन्होने अपनी सबसे मनपसंद लड़की, छाया जो कि क्लास में उनकी एजेंट की तरह काम करती है, को अपने पास बुलाया और सबकी कॉपी जमा करने को कहा। जिनके पास अभी कॉपी थी उन्होंने कॉपी जमा कर दी।

सबके पास से आज कॉपी नहीं मिली, इसलिए अकड़ के साथ हमसे कहने लगी, “दो दिन बाद मैं तुम सब की कॉपी चेक करूंगी और जिसका काम पूरा नहीं हुआ उसके नंबर भी काट लूँगी।”

उनके बोले गए ये शब्द हम बच्चों के दिल-ओ-दिमाग पर गहरा असर छोड़ गए। उनके ये सामान्य से लगने वाले शब्द हमारी मस्ती भरी ज़िंदगी से हमें निकाल कर उस कामगार कि ज़िंदगी जीने को मजबूर कर देतें हैं जो अपना पिछला पड़ा हुआ काम पूरा करने के लिए बेलगाम ओवर-टाइम करने लगता है। हमें कुछ दिनों का ही नहीं बल्कि महीनों का बाकी पड़ा काम पूरा करना था।

उस दिन सारा इतिहास अपनी बेपरवाही कि शक्ल में वापस याद आ गया। जब हम स्कूल से छूट कर घर आते ही बस्ते को इस तरह पटक देते थे जैसे वह सदियों से हमारे कंधों पर बोझ की तरह लदा पड़ा हो। घरवालों का बार-बार कहना कि क्या स्कूल में टीचर कोई काम नही देती, तो उन्हें तसल्ली देने के लिये यह कहने मे कोई हर्ज़ नही होता कि हमने तो अपना सारा काम स्कूल में ही निपटा लिया है, आपको चेक करना हो तो कर लो। हमें यह बात पता थी कि हमारी कॉपी पर लिखी हुई तारीख के अलावा वे कुछ और नहीं समझ पायेंगे और सबूत के बतौर हमारी लिखावट तो वहां मौजूद थी ही।

लेकिन अपने इस इतिहास को याद करने के बाद हमें अपने आप पर गुस्सा और शर्म दोनों आ रहा था और साथ-साथ उन छाया जैसों से जलन भी होती, जो अपना सारा काम पूरा कर टीचर की नज़रों में वाहवाही बटोरती रहती है।

देखते ही देखते हमारे अड़तालीस घंटों की डेड लाइन में से सिर्फ तीस-बतीस घंटे ही बच रह थे। इस सोच-सोच में ही हमारे स्कूल की छुट्टी भी हो गयी। फिर वही घर जाना और बस्ता फेंक कर स्कूल के सारे गिले-शिकवे भुला कर बाहर गली में अपने दोस्तों के पास खेलने निकल आना।

खेल ही खेल में अपने स्कूल के काम की टेंशन वापस याद आई तो जल्दी से खेल बीच में ही छोड़ घर की तरफ दौड़ पड़ी और कॉपी के पन्नों को इधर से उधर पलटने लगी। जिस वक्त मैं पन्नो को भरने में उलझी थी तो घर के बाकि लोग टेलिविजन देखकर मेरा मन ललचा रहे थे।

नज़रों के सामने पड़ी कॉपी में शोभा मैडम की ही शक्ल नज़र आती। महीनों का बचा काम इतनी जल्दी बिना किसी मदद के कर पाना मुश्किल था इसलिए कुर्सी पर बैठे हुये किसी सोच में डूबी थी और अपने शातिर दिमाग में मैडम की डांट से बचने की कोई तरकीब लड़ा रही थी। फिर अचानक से उठी और अपनी कॉपी के पिछले पन्नो को बड़े गौर से देखने लगी। कई पन्नो पर शोभा मैडम के बिलकुल एक समान हस्ताक्षर थे। मैं उसी हस्ताक्षर पर बार-बार पेंसिल दोहरा रही थी।

बच्चों को साइन करने का बड़ा शौक होता है। लेकिन टीचर के साइन को गौर से देखना दिमाग में अजीब सी हलचल पैदा कर रहा था। अगले दिन उटपटांग सी किसी चाल को बुनकर बड़ी ही चहल-पहल के साथ अपनी सहेलियों के ग्रुप के पास आकर खड़ी हो गई और मौका मिलते ही नीलम को बताया। नीलम ने फिर सहेलियों को संबोधित किया, “मेरे पास शोभा मैडम कि डांट से बचने की लिए एक रामबाण उपाय है।” सभी हैरत के साथ पूछने लगे, “बता न यार क्या बात है?”


“तो सुनो मेरी तरकीब। मैं सोच रही हूँ कि क्यों ना हम अपना आधा-अधूरा काम करके कॉपी को खुद से चेक करके मैडम को दिखा दें कि हमारी कॉपी तो आपने पहले ही चेक कर दी थी…। लेकिन यह बात सिर्फ हमारे बीच ही रहनी चाहिए और मैडम की छाया को तो बिलकुल भी पता नहीं चलनी चाहिए।”
सभी मेरे चेहरे को देख ही रहे थे कि क्लास में टीचर दाखिल हुई और इतनी ही बात पर महफिल को तोड़ते हुये सभी अपनी-अपनी जगह बैठ गए।

इस तरकीब को सुनकर सब ठहाके मार कर हंस रहे थे। बस फिर क्या था, नीलम भड़क उठी और कहने लगी, “अपना सारा काम ईमानदारी से पूरा तो करो, मैं भी देखती हूँ तुम को कितने मार्क्स मिलते हैं।” शोभा मैडम भी क्लास में आ चुकी थी। उनके गुस्से से भरे चेहरे को देखने पर पता चला कि मैडम के अल्टिमेटम के सिर्फ चौबीस घंटे ही रह गए हैं। फिर समझ आया कि टीचर के प्रकोप से सिर्फ वही तरकीब हमें बचा सकती है। अब तो हम इंतज़ार कर रहे थे कि कब मैडम जाएँ और हम उस तरकीब पर अमल करें। टीचर के जाते ही सभी मेरे डेस्क के पास ऐसे जुट गए जैसे गुड़ के पास मक्खियाँ क्योंकि यह आइडिया भले ही मेरे पास था लेकिन टीचर कि जगह हस्ताक्षर करने कि हिम्मत तो सिर्फ नीलम में थी।

हमें अब अपना काम जल्दी करना था। हमारा काम बड़े ज़ोरों-शोरों से चल पड़ा और आखिरकार शोभा मैडम के आने से पहले ही खत्म भी हो गया। सभी के कहने पर नीलम ने सबसे पहले खुद ही की कॉपी मैडम के फर्जी हस्ताक्षर कर मैडम को दिखाने ले गयी। जब मैडम को दिखाने के लिए कॉपी टेबल पर रखी तो मैडम कभी कॉपी को देखती तो कभी नीलम को, नीलम भी कभी कॉपी को देखती फिर मैडम को और अपनी निगाहें नीचे झुका लेती। अचानक मैडम ने कहा “और बताएं कितने मार्क्स देंगी आप अपने ही कॉपी को, शोभा मैडम नंबर दो?” और कुर्सी से उठ एक थप्पड़ जड़ दिया और कहने लगी, “कल अपने साथ अपने पैरेंट्स को भी ले आना, ज़रा उन्हें भी तो पता चले कि उनकी बेटी कितनी तरक्की पर चल रही है।”

इतना सुनते ही सब हंसने लगे। नीलम ने जब देखा कि उसकी बेइज्जती पर दोस्त सब ही हंस रहे हैं तो उसे गुस्सा आ गया। उसने हम सहेलियों को देखते हुए कहा, “हँस क्या रही हो? तुमने भी तो अपनी कॉपी मुझसे ही चेक करवाई है।” यह सुनकर मैडम उनके पास गई और उनके पीछे भी पड़ गई।

उस दिन हम सब को एक साथ दो मुहावरों का मतलब और उनका असल ज़िंदगी मे उपयोग भी पता चला-

पहला- जिसका काम उसी को साजे, दूजा करे तो ठेंगा बाजे…
(यह हम सब पर सूट होता था)

दूसरा- हम तो मरेंगे सनम, तुमको भी ले के डूबेंगे…
(यह नीलम पर फिट बैठता है)

पूजा का जन्म 1996 दिल्ली में हुआ। ये अभी बी॰ए सेकंड इयर मे पढ़ती है । दक्षिणपुरी में रहती हैं। अंकुर के मोहल्ला मीडिया लेब पिछले एक साल से जुड़ी है इन्हे लेब सुनने सुनाने माहोल मे मे अपनी रचनाओ को सुनने और दूसरों की रचनाओ सुन कर उस पर संवाद करना पसंद है। इनकी दोस्ती किताबों से जल्दी होती है।

Exit mobile version