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समाचार जगत में दलितों की सीमित भागीदारी, पूरे कर्नाटक में मिले केवल ३ पत्रकार

मैत्रेयी बरुआ:

Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.

यह फोटो दिव्या त्रिवेदी द्वारा फेसबुक पर पोस्ट की गयी है

अगर रोहित वेमुला का एक दलित के रूप में उसके जीवन के संघर्ष को बयान करने वाला मर्मभेदी आखिरी पत्र सामने नहीं आता, तो उसकी मृत्यु को भी किसी आत्महत्या की आम घटना की तरह भुला दिया जाता। उसके आखिरी पत्र में लिखी बातों ने ना केवल देश भर में विशाल विरोध प्रदर्शनों की शुरुवात की, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया जगत में उच्च शिक्षण संस्थानों में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव पर बहसों की एक नयी श्रंखला को शुरू कर दिया।

पत्रकारिता की दुनिया के ऐसे परिदृश्य में जहाँ विभिन्न तबकों की भागीदारी को लेकर बहुत अधिक प्रयास नहीं किये गए हैं, एक लोकप्रिय पत्रिका में अभी हाल ही में आया एक विज्ञापन, सही दिशा में उठाया गया एक कदम लगता है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में जहाँ पत्रकारों को लेने की प्रक्रिया बेहद अनौपचारिक है और बहुत कम प्रकाशक और टेलीविजन चैनल, पत्रकारों के लिए विज्ञप्ति निकालते हैं। ऐसे में कथित पत्रिका का “केवल दलित या आदिवासी पत्रकार” के लिए आया विज्ञापन विरले ही देखने को मिलता है।

समाचार जगत में दलितों/आदिवासियों की भागीदारी पर विश्वसनीय जानकारी का अभाव है, वहीं विशेषज्ञों के अनुसार यह आंकड़ा बेहद कम है। मीडिया आलोचकों का कहना है कि जाति, साम्प्रदायिकता और भेद-भाव जैसे विषयों पर आने वाली ख़बरों में कमी का कारण दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक तबके के लोगों की समाचार जगत में सीमित भागीदारी है।

लेखक और ‘डीएनए‘ तथा ‘दी न्यू इंडियन एक्सप्रेस‘ के पूर्व मुख्य संपादक आदित्य सिन्हा के अनुसार, “वर्तमान समय में शुरुवाती स्तर पर लिए जाने वाले पत्रकारों का चयन विभिन्न मीडिया स्कूलों से किया जाता है। दलितों/आदिवासियों की विषम आर्थिक परिस्थितियों की वजह से उनके लिए इन संस्थानों के भारी भरकम खर्चे उठाना संभव नहीं है। इस कारण बहुत कम दलित/आदिवासी युवा इस तरह के शिक्षण संस्थानों में पहुँचकर पत्रकार बन पाते हैं।

मीडिया के सशक्तिकरण और स्वतंत्रता से सम्बंधित विषयों पर शोध करने वाली संस्था ‘दी हूट‘ की संपादक सेवंती निनन का कहना है कि उन्हें इस बात पर कोई शक नहीं है कि मीडिया के क्षेत्र में दलितों/आदिवासियों की संख्या बेहद सीमित है, लेकिन अब स्थितियां सुधर रही हैं। निनन आगे कहती हैं कि “दी एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म (ACJ) में दलित पत्रकारों के लिए स्कॉलरशिप हैं। वहां से निकला एक दलित छात्र ‘दी हिन्दू’ में राज्य स्तर का संवाददाता है। उनके पास अन्य राज्यों (तमिलनाडु से बाहर) से भी आवेदन आये हैं, और जल्द ही वहां से और दलित छात्र निकलकर आएंगे। दी इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन (IIMC) में भी ऐसे ही छात्रों के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं। लेकिन दलित और आदिवासी युवाओं का रुझान पत्रकारिता की बजाय शिक्षा और अन्य सरकारी संस्थानों में उनके लिए आयोजित आरक्षण की तरफ ज्यादा है। पत्रकारिता का क्षेत्र उन्हें एक सुरक्षित भविष्य का विकल्प नहीं देता।

२०१४ में काफिला में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार “दी एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म- एक गैर फायदेमंद शिक्षण संस्थान में आरक्षित सीटें नहीं हैं, लेकिन २०१३-१४ में यहाँ पिछले वर्ष की तरह ४ दलित/आदिवासी छात्रों को स्कॉलरशिप दी गयी। अगर स्कॉलरशिप को छोड़ दिया जाए तो दी एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म में दलित/आदिवासी छात्रों की संख्या बेहद कम है- तीनो वर्षों के छात्रों में कुल मिलाकर मात्र १.५ प्रतिशत।” इसमें यह भी कहा गया है कि “इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ जर्नलिज्म एंड न्यू मीडिया, ज़ेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्युनिकेशन, टाइम्स स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म और सिम्बायोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन में दलित/आदिवासी छात्रों के लिए किसी भी प्रकार की आरक्षित सीटों या स्कॉलरशिप का प्रावधान नहीं है।”

दलित इंडियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) के परामर्शदाता और दलित लेखक चन्द्रभान प्रसाद के अनुसार “हमारे मीडिया जगत में बहुलवादी और उदारवादी प्रवृत्ति का अभाव है। अधिकांश पत्रकार और संपादक ऊँची जातियों और संपन्न परिवारों से आते हैं।”
उनका ये भी कहना है कि, “दलित/आदिवासी पत्रकारों की कमी, साफ़ तौर पर पिछड़े तबके से सम्बंधित ख़बरों को मीडिया द्वारा दी जाने वाली प्राथमिकता की कमी की ओर इशारा करती है।”

लेख के आरम्भ में वर्णित पत्रिका का विज्ञापन भी इस कमी की तरफ ही संकेत करता है।

वहीं जब इस पत्रिका के कार्यकारी संपादक से जब इस विज्ञप्ति के बाद की प्रतिक्रिया को जानने के लिए ईमेल भेजा गया तो उसका कोई जवाब नहीं मिल पाया।

प्रेस कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया (PCI) समेत किसी भी सक्षम एजेंसी द्वारा दलितों/आदिवासियों की समाचार जगत में सटीक संख्या या भागीदारी को लेकर आज तक किसी भी प्रकार का सर्वे नहीं किया गया है। और यह बेहद साफ़ है कि मीडिया की मुख्य धारा में इन सामाजिक वर्गों से बेहद कम लोग शामिल हैं।

प्रायः ‘योग्यता’ की कमी और दलित/आदिवासी ‘रुझान’ सरकारी संस्थानों में अधिक होने को पत्रकारिता के क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के लोगों की कमी के मुख्य कारणों के रूप में बताया जाता है।

हालत अब भी बदलें नहीं हैं: कर्नाटक की स्थिति:

कर्नाटक राज्य में दलित/आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर शोध करने वाले संस्थान डॉ. अम्बेडकर रिसर्च इंस्टिट्यूट के संचालक, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और कर्नाटक सरकार के प्रशाशनिक अधिकारी बाला गुरुमूर्ति का कहना है कि, दलितों और आदिवासियों से जुड़े मुद्दों को तब तक प्रमुखता नहीं दी जाती तक कि इनकी प्रवृत्ति हिंसक ना हो, जैसे कि बलात्कार, हत्या या आत्महत्या से जड़े मुद्दे।

डॉ. अम्बेडकर रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना कर्नाटक सरकार द्वारा १९९४ में की गयी थी। इस संस्थान का संचालन सामाजिक कल्याण विभाग के निर्देशों के अनुसार किया जाता है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य कर्नाटक राज्य में दलितों/आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर अध्ययन करना है।

गुरुमूर्ति, बहुत कम पत्रकारों के, दलित/आदिवासी और अन्य उपेक्षित तबकों को लेकर संवेदनशीलता होने की बात पर जोर डालते हुए कहते हैं कि “सामाजिक बहिष्कार का क्या? एक दलित को कई अपमानजनक स्थितियों और संघर्ष से गुजरना पड़ता है। टीवी चैनलों पर दिखाई जाने वाली कितनी बहसों में इन विषयों पर चर्चा की जाती है।

करीब दो दशक पहले दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार बी.एन. उनियाल ने एक विदेशी संवाददाता के कहने पर दिल्ली में एक दलित पत्रकार को खोजने का प्रयास किया, क्यूंकि वह संवाददाता बहुजन समाज पार्टी और पत्रकारों के बीच हुए विवाद पर एक “दलित” पत्रकार से चर्चा करना चाहता था। श्री उनियाल एक भी दलित पत्रकार नहीं खोज पाये, इस निराशाजनक खोज का नतीजा नवंबर १६, १९९६ को पायनियर में छपे उनके अग्रणी लेखइन सर्च ऑफ़ अ दलित जर्नलिस्ट” के रूप में सामने आया।

१७ वर्ष बाद, २०१३ में, दिल्ली के एक अन्य पत्रकार और लेखक एजाज़ अशरफ नें अपने एक लेख में पूरे देश में मात्र २१ दलित पत्रकारों के होने की बात कही।

कर्नाटक में केवल तीन दलित पत्रकार:

आज श्री उनियाल की दलित पत्रकार की असफल खोज के २० वर्ष के बाद, इस रपोर्ट के लेखक कर्नाटक राज्य में केवल ३ दलित पत्रकार ही तलाश पाये। इनमे से दो, कन्नड़ समाचार पत्र और एक, अंग्रेजी समाचार पत्र में कार्यरत हैं।

उन्होंने अपनी जाति के बारे में बताते हुए समाचार जगत में दलित पत्रकार के साथ होने वाले भेदभाव की बात कही। अपने भविष्य को लेकर आशंकित, इनमे से दो ने नाम बताने पर असमर्थता जताई, केवल एक पत्रकार ही अपने नाम के खुलासे को लेकर सहज दिखे।

लोकप्रिय कन्नड़ दैनिक प्रजावनी में कार्यरत के.एस. गणेश कहते हैं कि, “हम लोगों कि संख्या बेहद कम है, मैं मेरे अलावा, कोलार जिले में दलित समुदाय से आने वाले केवल एक ही पत्रकार को जानता हूँ।

गणेश पत्रकारिता के क्षेत्र में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को स्वीकार करते हुए कहा कि, “यह काफी जाना-माना रहस्य है। अगर हम इसके बारे में बात करें तो इसे हमारे खिलाफ लिया जाता है और हम पर पत्रकार जगत को जाति के आधार पर बांटने के आरोप लगाए जाते हैं।

उन्होंने आगे कहा “अपने यहाँ रिक्तियां ना होने कि बात को अमूमन एक बहाने के रूप में प्रयोग किया जाता है। मेरे अखबार के कोलार संस्करण में नियमित रूप से प्रकाशित होने वाले दलित और पिछले समुदाय से जुड़े मुद्दों को, बंगलुरु के संस्करण में प्रकाशित नहीं किया जाता।

अन्य दो पत्रकार जो अपने नाम के खुलासे को लेकर सहज नहीं थे, उनमे से एक वरिष्ठ पत्रकार जो कि एक प्रख्यात अंग्रेजी दैनिक में १० वर्ष से भी अधिक समय से कार्यरत हैं, के अनुसार, “अगर मैं पत्रकार जगत में दलित/आदिवासी पत्रकारों को लेकर गहरी पैठ बनाए पूर्वाग्रह की खुल कर बात करूँ तो इस क्षेत्र में मेरा भविष्य असुरक्षित हो जाएगा।

वो आगे कहते हैं, “इस तरह के कई प्रकरण सामने आये हैं जब मीडिया कंपनियों में एक हर तरह से योग्य दलित पत्रकार की जगह, वरिष्ठ सम्पादकों के प्रभुत्व के कारण, उनके रिश्तेदारों को दे दी जाती है।

एक कन्नड़ दैनिक में कार्यरत दूसरे दलित पत्रकार ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि, ” ऊँची जाति के लोगों का कहना ये होता है कि दलित पत्रकारों में योग्यता की कमी है, और उनकी भाषा पर पकड़ भी कमजोर है।”

क्या हम भुलावे में जी रहे हैं:

बहुत अधिक, उच्च जाति के पत्रकार, मीडिया में जातिगत भेदभाव की बात स्वीकार नहीं करते। कोलकाता से एक ब्राह्मण महिला पत्रकार कहती हैं, “हम पत्रकारों की कोई जाति या कोई धर्म नहीं होता, जाति को मीडिया से बाहर रखिये।” वो आगे कहती हैं, “मैं जाति व्यवस्था को नहीं मानती और ना ही इसका अनुसरण करती हूँ। ऐसा किसने कहा है कि एक ब्राह्मण दलितों के बारे में नहीं लिख सकता। एक पत्रकार होने के लिए आपको संवेदनशीलता से अधिक किसी और गुण की जरुरत नहीं है।”

हालाँकि कुछ ऊँची जाति के पत्रकार, दलितों और उपेक्षित वर्ग के पत्रकारों के साथ होने वाले भेदभाव की बात को स्वीकार करते हैं। लेकिन वो इसके लिए मीडिया कंपनियों के मालिकों और सम्पादकों, जो इस फासले को कम करने में अक्षम रहे हैं को दोषी मानते हैं।

कोलकाता से एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार समीर कार पुरकायस्थ कहते हैं, ” जाति की राजनीती के अस्तित्व पर बात करना आसान नहीं है। बहुत कम संपादक और मीडिया कंपनी मालिक, जाति जैसे मुदों पर चर्चा को प्रोत्साहित करते हैं।”

इस स्थिति को कैसे बदला जाए:

चन्द्रभान प्रसाद कहते हैं कि, “अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ न्यूज़पेपर एडिटर्स (asne.org) की तर्ज पर भारत में भी न्यूज़रूम एम्प्लॉयमेंट डाइवर्सिटी सर्वे की तरह का एक सर्वे कराया जा सकता है। भारतीय दलितों की स्थिति अमेरिका के अश्वेत नागरिकों की तरह है। अमेरिकी प्रेस ने अश्वेत पत्रकारों की संख्या को बढाकर स्थिति को सुधारा है। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ न्यूज़पेपर एडिटर्स का सर्वे इस बात की पुष्टि करता है।

१९७८ से अमेरिकी पत्रकारिता और समाचार जगत में विविधता को बढ़ाना, ऐ.एस.एन.इ. का प्रमुख लक्ष्य है। ऐ.एस.एन.इ. की वेबसाइट का कहना है कि वे समाचार और पत्रकारिता के क्षेत्र की संस्थाओं को विभिन्न समुदाय के लोगों को सम्मिलित करने के लिए प्रेरित कर रहें हैं ताकि समाज के अलग-अलग तबकों से ख़बरें सबके सामने आ सकें।

दलित/आदिवासी पत्रकारों का एक प्रमुख आरोप वेतन की अपारदर्शिता का भी है। हैदराबाद के दी न्यू इंडियन एक्सप्रेस के दलित लिपिक नागराजू कोप्पुला की कैंसर के कारण हुई मृत्यु के बाद उनके मित्रों ने इस समाचार पत्र पर जाति के आधार पर भेदभाव के कारण कम वेतन देने के आरोप लगाए।

लेकिन उनकी बातों को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी गयी, क्यूंकि किसी सशक्त संस्था ने भी इस मामले में कोई रूचि नहीं दिखाई। नागराजू के नियोक्ता की मुआवजे की मांग और राष्ट्रीय मानवाधिकार कमीशन के हस्तक्षेप के बावजूद भी कुछ ख़ास नहीं हो पाया।

लेकिन कई अन्य लोगो का कुछ और ही मानना है। पुरकायस्थ कहते हैं कि, “जाति या लिंग से अलग यह किसी भी पत्रकार के लिए सामान है। सामान पद पर कार्यरत पत्रकारों के वेतन का आधार उनका कार्यक्षेत्र निर्धारित करता है। अंग्रेजी पत्रकार उनके समानांतर पत्रकारों से अधिक ही वेतन प्राप्त करते हैं। पत्रकारों कि चयन प्रक्रिया की ही तरह उनके वेतन पर भी खुलकर चर्चाएं नहीं होती। ऐसे में दलित पत्रकारों के साथ वेतन को लेकर जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को लेकर कुछ कहना मुश्किल है।

वहीँ निनन का कहना है कि इस विषय पर सार्वजनिक तौर पर अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

श्री उनियाल अपने लेख ” इन सर्च ऑफ़ ए दलित जर्नलिस्ट” के, मीडिया कंपनियों के मालिकों और सम्पादकों को इस विषय की गम्भीरता और पत्रकारिता तथा समाचार जगत में ब्राह्मणवादी सोच के प्रभुत्व को ना समझा पाने को लेकर बहुत निराश थे।

आज दो दशकों बाद भी हालात कुछ ख़ास नहीं बदले हैं: आज भी समाचार जगत और पत्रकारिता के क्षेत्र में दलित और आदिवासी पत्रकारों की भागीदारी बेहद सीमित है

Read the English article here.

About the author: Maitreyee Boruah is a Bangalore-based freelance journalist and a senior member of 101Reporters.com, a pan-India network of grassroots reporters. Her reporting reflects issues of society at large and human rights in particular.

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