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एक सेना अधिकारी की बेटी बता रही है कि उनका जीवन हमसे कितना अलग है

अमृत मान:

बेतुकी बातें किसी को भी पसंद नहीं आती और मैं भी इससे कोई अलग नहीं हूं। जब भी कभी किसी को बिना तथ्यों को जाने बात करते हुए और उन बातों के आधार पर कोई मत बनाते देखती हूँ, तो मेरे रोम-रोम में आग लग जाती है।

अभी हाल ही में, खुद को शिक्षित कहने वाले, दो सूट-बूट पहने सज्जनों को पठानकोट में हुए आतंकवादी हमले पर बात करते हुए सुना, जिसमे भारतीय सेना के सात बहादुर जवान शहीद हो गए थे। लेकिन ये दो लोग तथ्यों पे आधारित बातों की तरह इस हमले में मारे गए जवानों के परिवारों को मुआवजे के रूप में मिलने वाले ‘मोटे पैसे’ की बात कर रहे थे।

“हमें भी फौज में होना चाहिए था भाई”, इस बात को कहने के बाद अधजली सिगरेट को फर्श पर फेंक कर एक लापरवाह हंसी के साथ उनकी बातों का सिलसिला यहीं खत्म हो गया।

शायद मुझे उस वक़्त कुछ कहना चाहिए था, लेकिन मैं बस चुप-चाप खड़ी रही, मानो मेरा शरीर जम गया हो। पर इस तरह के लोगों को क्या और कैसे समझाया जाए, जिनके लिए सेना महज एक शब्द भर है।

मेरे पिता ने भारतीय सेना में रहकर 32 वर्षों तक देश की सेवा की। जब मैं बड़ी हो रही थी तो मेरी अपनी कई शिकायतें थी। मेरे पिता कभी भी मेरे स्कूल में होने वाली अध्यापकों और अभिभावकों की बैठक में नहीं आ पाए, उन्होंने मुझे कभी भी किसी खेल में हिस्सा लेते हुए नहीं देखा। ना कभी उन्होंने मुझे स्कूल की किताबों की खरीददारी करवाई और ना जाने कितने ऐसे मौके थे जब वो मेरे जन्मदिन पर मेरे साथ नहीं थे। क्यों हमेशा मेरी माँ को ही मुझे स्कूल छोड़ने जाना होता था? उस वक़्त मेरे मन में उनके लिए बहुत रोष भरा था।

[envoke_twitter_link]मैं समझ नहीं पाती थी कि मेडलों से चमकती उनकी सेना की वर्दी को वो क्यों घंटों तक ताकते रहते थे[/envoke_twitter_link], उसकी छोटी से छोटी सिलवटों को तलाशना, और लगभग ना नजर आने वाली धूल के लिए “बैटमैन भैया (सेना कि तरफ से अफसरों को मिलने वाला अर्दली)” को काम ठीक से ना करने के लिए झिड़कियाँ देने को मैं समझ ही नहीं पाती थी।

मैं कोशिश करती थी कि जान सकूँ, क्या फर्क है उनकी वर्दी और मेरी स्कूल की यूनिफार्म में। पर इस सवाल का जवाब मुझे मिल नहीं पाता था। मेरे लिए वो बस एक गहरे हरे रंग कि वर्दी थी जिसे मेरे पिता अपनी ड्यूटी के दौरान पहनते थे।

अपने सेना के कार्यकाल में मेरे पिता अधिकतर सीमावर्ती इलाकों में तैनात रहे, जिसकी वजह से मैं और मेरा परिवार ज्यादातर आर्मी क्वार्टर्स (सेना द्वारा आवंटित घरों) में उनसे दूर ही रहा।

मुझे सर्दियों कि वो एक दोपहर अब भी याद है, जब वो दरवाजे पर लाल रंग की स्वेटर पहने खड़े थे। मेरे पिता एक महीने की लम्बी छुट्टी पर आये थे। मैं बहुत खुश थी कि अब 30 दिनों तक पूरे परिवार को उनके साथ समय बिताने का मौका मिलेगा। 30 दिनों का एक ऐसा समय जब किसी भी तरह की सेना की कोई ड्रिल या कोई और काम नहीं होगा।

मेरी इन सब बातों के बीच, उन्होंने अचानक मुझसे पूछा, “तुम कौन सी क्लास में पहुँच गयी हो?” मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए जवाब दिया, “छठीं क्लास में”

मेरे और उनके बीच एक अजीब सी शांति थी। और जब खुद को बेहद कम जताने वाले मेरे पिता ने मुझे देर तक गले से लगाए रखा, तो यह अनुभव मेरी आशाओं से बिलकुल परे था। उस दिन शाम को हम अपनी छोटी सी स्कूटी पर गोलगप्पे और चिकन सूप खाने बाहर गए। उस शाम लगा कि यही जिंदगी असल है।

1999 में जब करगिल युद्ध हुआ, तो मैं सातवीं क्लास में पढ़ रही थी। हालांकि ‘ऑपरेशन विजय’ के दौरान मेरे पिता की तैनाती पूर्वोत्तर में थी, पर वो सेना की इंटेलिजेंस कॉर्प्स के साथ गहन रूप से काम कर रहे थे।

मैं और मेरी माँ एक बार फिर आर्मी क्वाटर्स में उनसे दूर अम्बाला छावनी क्षेत्र में रह रहे थे। पूरे एक साल तक लगभग हर दिन सेना की गाड़ियों में आते, तिरंगे में लिपटे जवानों के शवों को देखना, बेहद डरावना अनुभव था।

अपने पति को खो देने वाली, सेना के जवानों और अधिकारियों की पत्नियों की चीखें आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती हैं। बंदूकों की सलामी, और चारों और फैली दुःख की चादर, हमारे जीवन का बयां ना किये जा सकने वाला, एक बड़ा हिस्सा है।

एक साल के बाद जब मेरे पिता घर आये तो उनके पास मुझे सुनाने के लिए उनके सेना के अनुभवों के नए किस्से थे। कुछ ऐसे अनुभव जो उन्हें पहली बार हुए थे। अब शायद मैं बड़ी हो गयी थी, अब शायद मैं उन्हें समझ सकती थी, उनके ना होने को समझ सकती थी।

दूध के डिब्बे में छुपाकर ए.के. 47 ले जाते किसी युवा आतंकवादी का किस्सा, कुपवाड़ा में उन्हें हिमदंश लगना, या तलाशी अभियानों के दौरान उनकी बांह में गोली लगने के किस्सों से मुझे कौतुहल होने लगा। मैं उनकी आंखों की चमक को देख कर समझ सकती थी कि उनके इस जूनून के आगे दुनिया की कोई भी और चमक फीकी थी।

2007 में वो सेना से रिटायर हुए। एक दिन जब मैं सोफे पर उनके साथ बैठी थी तो उन्होंने कहा, “ये वर्दी मेरा मान-सम्मान सब कुछ है, ये मेरी 2 सालों की सेना की कड़ी ट्रेनिंग का नतीजा है, मेरे देश के साथ मेरी प्रतिबद्धता का सूचक है, कुछ ऐसा जिसे केवल मैं ही समझ सकता हूँ। ये मेरे लिए एक नौकरी से बढ़कर कहीं ऊपर थी।”

इस जूनून को मैं सेना की वर्दी पहने हर शख्स में देखती हूँ। और जब कोई इस वर्दी का अपमान करता है, तो यह मुझे मेरा निजी मामला लगता है। मुझे मेरे पिता शहीद ले. कर्नल निरंजन कुमार, गरुड़ कमांडो गुरसेवक सिंह, सूबेदार फ़तेह सिंह, हर एक एन.एस.जी. कमांडो और सेना के हर एक सिपाही में दिखते हैं।

मुझे बेहद दुःख होता है, जब कोई बिना सोचे समझे सेना के लोगों को मिलने वाली सुविधाओं और पेंशन आदि को लेकर कुछ भी कह देता है। ऐसे लोगों को याद रखना चाहिए कि इनमे से बहुत से लोग इन सुविधाओं को इस्तेमाल करने के लिए पूरा जीवन भी नहीं जी पाते हैं।

किसी से जबरदस्ती सेना का हमेशा सम्मान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन ये जरूर याद रहे कि देश की रक्षा का कर्त्तव्य निभाते हुए शहीद होने वाले सेना के किसी भी सिपाही या अधिकारी को लेकर हल्की बातें नहीं कही जा सकती। याद रहे कि उनका भी आप ही की तरह एक परिवार है, उनकी भी आप ही की तरह जिंदगी से उम्मीदें हैं, लेकिन दुर्भाग्य से जिंदगी उन्हें दूसरा मौका नहीं देती।

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लेख अनुवाद- सिद्धार्थ भट्ट

(फोटो प्रतीकात्मक है)

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