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आज का किसान: मौसम और सीमित साधनों की दोहरी मार का शिकार

विकाश कुमार:

किसान बेहाल है तथा कृषि संकटकालीन अवस्था से गुजर रही है। इसके बावजूद राष्ट्रीय पटल पर बहसों का दौर जारी है। इस विषय ने संसदीय राजनीति और कृषि विकास की राजनीति को आंदोलित किया है। इन सब के बीच किसानों की माली हालत को लेकर कृषि वैज्ञानिकों, विश्लेषकों तथा राजनेता पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच खूब घमासान तथा उठा-पटक चल रही है और भारतीय कृषि के जीर्णोद्धार के कार्यक्रम हेतू उपाय सुझाए जा रहे हैं। हालाँकि यह माहौल अभी बहसों तक ही सीमित है, इसका धरातल पर आना अभी बाकी है। इस सब के बीच उन मुद्दों पर सहमति बनाना जरुरी हैं, जो किसानों तथा कृषि के भविष्य को संवार सकें।

यहाँ पर हम पहला बिंदु ओलावृष्टि तथा बेमौसम बारिश के चलते फसलों को होने वाले नुकसान का लेते हैं, जिसने पूरे उत्तर-पश्चिम भारत के किसानो को कहीं का नहीं छोड़ा है। सवाल उठता है कि आखिर फसल खराब हुई कैसे? इसका उत्तर हम जलवायु परिवर्तन और अपनी कृषि-व्यवस्था में खोज सकते हैं। कई ऐसे मौके आए जब तापमान में हुई अचानक बढ़ोतरी ने फसल को समय से पहले पकने पर मजबूर कर दिया और इसके चलते उत्पादन में कमी आई। इस बार फसल पकी नहीं कि ओलावृष्टि तथा बेमौसम बारिश ने अपना कहर ढा दिया। फलस्वरूप फसलें अधिक खराब हुईं लेकिन इस सब के पीछे एक और कारण हमारा प्रबंधन तथा तकनीक की कमी भी रहा। हमने विदेशों से आधुनिक यंत्र तो आयातित किये परन्तु कृषि के आधुनिकीकरण का सही प्रयोग तथा कृषि ज्ञान व साथ ही मौसमी कुचक्र का सही प्रबंधन करना भूल गए।

तत्पश्चात हम कृषि से सम्बंधित आर्थिक नुकसान, आर्थिक मुआवजे, सब्सिडी और साथ ही किसान की आमदनी से जुड़े हुए मुद्दे की बात करते हैं। इस बार भारतीय किसान की फसल नष्ट हुई तो केंद्र सरकार ने मुआवजे की राशि ५० प्रतिशत से घटाकर ३३ प्रतिशत तक कर दी। कृषि सब्सिडी की बात पहले भी उठती रही है, कि किसानों को फसलों पर सब्सिडी दी जाए। चीन, अमेरिका तथा कई अन्य पश्चिमी देश तो अपने देश के किसानों को ८० से ९० प्रतिशत तक की सब्सिडी मुहैया कराने जैसे सामाजिक सुरक्षा के कदम उठाते आएं हैं, लेकिन भारत इस मामले में अभी बहुत पीछे है। हमारा देश अभी डब्लू.टी.ओ. के अंतराष्ट्रीय मानकों के बीच ही फँसा है, जिसकी वजह से पश्चिमी देश नही चाहते कि भारत अपने किसानों को अधिक सब्सिडी मुहैया कराये। और जब सब्सिडी का ये हाल है तो सरकार किसानों की आमदनी क्या तय कर पाएगी? बहुत से विश्लेषकों तथा कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों की आमदनी पर प्रमुखता से जोर दिया है। लेकिन सरकार किसानों की आमदनी पर ध्यान देने के बजायअधिक कृषि ऋण देने और किसानो के पिछले कर्जों को माफ करने में लगी हुई है। आज किसानों को ऋण की नही, आमदनी की जरुरत हैं। एन.एस.एस.ओ. (नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन) २०१४ का एक आंकड़ा कहता है कि खेती-बाड़ी के कार्य में लगे एक किसान परिवार को प्रत्येक महीने केवल ३०७८/- रुपए की ही आमदनी होती है। कम आमदनी की वजह से मजबूर किसानों को अपने आर्थिक गुजारे हेतू अन्य विकल्पों की तलाश करनी पड़ती है। रोजगार के अन्य विकल्प मिलने पर वह खेती छोड़ने को तैयार भी है, जो कि एक चिंताजनक स्थिति है।

तीसरा बिंदु भूमि-अधिग्रहण से जुड़ा है। हाल ही में संसद में दो बार अध्यादेश द्वारा इस संशोधित भू-अधिग्रहण बिल को रखा गया| इससे पहले २०१३ में निजी प्रोजेक्ट हेतू भू-अधिग्रहण के लिए संबंधित ग्रामसभा से ८० प्रतिशत तथा पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के लिए ७० प्रतिशत लोगों की सहमति आवश्यक थी। लेकिन राजग सरकार के इस प्रस्तावित बिल में, संप्रग सरकार के पूर्व अनुमोदित बिल के उलट, भू-अधिग्रहण की सहमति को बिलकुल दरकिनार कर दिया गया है। आज इस पर देश का किसान नाराज है। ऐसे में एक किसान अपनी जिस भूमि पर खेती करता आया था, सरकार अगर उसकी जमीन को ऐसे ही ले लेगी तो कृषि का क्या होगा? तथा किसान जो खेती करके कमाता था, वह कमाई भी उससे छिन जाएगी। उसके हाथ आएगा तो बस मुआवजा, जो पता नहीं उसके घर केआंगन में कब तक पहुँच पायेगा। इसका उत्तरदायित्व किसका होगा, इसमें सटीकता नही आ पायी है| जब तक ये बातें साफ़ होंगी तब तक कई किसानों के हाथ से उनकी खेती योग्य जमीन जा चुकी होगी।

आज भारत में कृषि को बाजारवाद तथा उदारीकरण के इस दौर में नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है, कई सुधारात्मक तरीके अपनाए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए किसानों को फिर से अपनी फसलों में विविधता को लाना होगा। सरकार को भी इस हेतू नीतियों के निर्माण में आगे आना होगा ताकि विविधतापूर्ण खेती-बाड़ी के साथ-साथ पशुपालन को भी बढ़ावा दिया जा सके। साथ ही किसानों द्वारा फसल चक्र के प्रयोग से खेतों की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने पर जोर दिया जाए। कृषि उत्पादों को सब्सिडी के दायरे में लाया जाए। कृषि की भलाई के लिए व्यवसायिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए ताकि जिन किसानों को गेहूं, मक्का, आलू तथा धान की खेती लाभकर नही लगती वो किसान दलहन, तिलहन और मसालों की खेती कर सकें। साथ ही एक अन्य विचार जिसकी आज बड़ी प्रासंगिकता बन रही है, वह है एक सशक्त कृषि आयोग का गठन, जो किसानों तथा कृषि सुधार हेतू नीतियों का निर्माण करे, उनके क्रियान्वन तथा कृषि पर नवाचार को अपनाते हुए सुधारों को गति प्रदानकरे।

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