कन्हैया ने लालू प्रसाद का पैर छुआ। यह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग ढंग से नागवार गुज़रा। पाँव छूने से कुछ लोगों के संस्कारी मन को चोट लगी – मन, जो लालू जी से नफरत करता है। इस लिहाज़ से मुझे अच्छा लगा कि कन्हैया ने लालू जी का पैर छुआ। लालू जी इस सम्मान के योग्य हैं।
अपनी बात कहने के पहले मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैंने कुछ आम्बेडकरवादी मित्रों के द्वारा कन्हैया को शुरू में ही भूमिहार कहे जाने पर अपनी आपत्ति दर्ज की थी, और कहा था कि कन्हैया का सचेत स्वागत होना चाहिए। कई लोगों से फोन पर इस सन्दर्भ में बात भी की, खासकर उनसे जो कन्हैया के खिलाफ लिख रहे थे।
कन्हैया हमारा है, हमारे प्रतिरोध में शामिल है, इसलिए संवाद तो होने ही चाहिए, निजी और सार्वजनिक भी। कुछ दिन पहले जे. एन. यू. में संभाजी भगत के गीत रिलीज के बाद मैंने कन्हैया से कहा भी था कि, “आपसे बात करनी है.” विनम्र कन्हैया ने मेरा इशारा समझाते हुए कहा भी कि जरूर करते हैं, लेकिन तब समय नहीं था। मुझे भी लौटना था – बात फिर कभी पर चली गई। हालांकि कन्हैया के संगठन के दूसरे नेताओं से मेरी इस बीच बात हुई भी।
इस बीच पटना की सभा में एक विरोधी की पिटाई कर दी गई। कन्हैया ने उसका विरोध किया, लोगों को ऐसा करने से मना किया। हालांकि कई लोग पटियाला हाउस और पटना की पिटाई में फर्क करना चाहते हैं, मुझे फर्क इस लिए नहीं दिखता कि पुलिस के संरक्षण से आश्वस्त लोगों ने पटियाला हाउस कोर्ट में हमला किया और पटना में भी इसी संरक्षण के प्रति आश्वस्त लोगों ने काला झंडा दिखाने वाले किसी शख्स को पीटा। उसे बाहर भी किया जा सकता था। लोकतंत्र में काले झंडे दिखाना खुद कन्हैया के मित्रों का भी हथियार रहा है। विरोध भले ही गलत हो, लेकिन विरोध का हक़ तो पिटने वाले को था ही। इधर ‘संघियों’ को इस पिटाई के बाद लोकतंत्र की या अभिव्यक्ति की आजादी की याद आ रही है, यह भी कम मजेदार नहीं है।
चिंता के विषय सिर्फ इस तरह की आकस्मिकतायें नहीं है। सवाल दूसरे भी हैं। कन्हैया आकस्मिक तौर पर जिस नायकत्व को हासिल कर चुका है, जिसे मोदी सरकार के अति आत्मविश्वास और मीडिया के नायक-खलनायक गढ़ने की ख्वाहिशों ने उसे उपहार में दिया है, उसका मतलब क्या है? क्या इस नायकत्व का मतलब यह है कि वह मोदी विरोधियों के मंचों पर विरोध के भाषण करते रहे़? डिबेटर को सुनने का एक आनन्द होता है, जरूरत भी है, लोग मोदी की अतिवाचालता से ऊब गए हैं, उन्हें कन्हैया का भाषण अच्छा भी लग सकता है, लेकिन क्या समय ने उसे इसी भूमिका के लिए चुना है, पिछले दिनों?
क्या यह ठीक नहीं होता कि कन्हैया पिछले कई महीनों में देश भर के विद्यार्थियों के बीच पनपे असंतोष को संबोधित करता, उनके मुद्दों पर उन्हें संगठित करता। अबतक के भाषणों से एक सवाल यह भी बनता है कि उसके संगठन और पार्टी के रणनीतिकार आखिर तय क्या कर रहे हैं – एक ओर जय भीम-लाल सलाम का नारा और दूसरी ओर हर मंच पर कन्हैया। क्या उसके संगठन को एक दलित विद्यार्थी को कन्हैया के साथ ही संगठन और मुद्दों को खड़े करने की जिम्मेवारी नहीं देनी चाहिए थी? इन दिनों उसके संगठन से लेकर बाहर तक विद्यार्थियों के आन्दोलन से ऐसे कई लोग सामने आये भी हैं – लेकिन हम सब एक नायक की पूजा के अभ्यस्त हैं। इसीलिए कन्हैया की पालकी को ढोने वाले विचित्र उन्माद से भरे हैं – ध्यान रहे दलित – बहुजन युवा अब ऐसी किसी पालकी को ढोने के पहले सवाल करेंगे, हाँ जिसकी पालकी है, उसकी जाति भी जानना चाहेंगे…।