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लालूजी, क्या आप जैसे समाजवादी नेता दलितों के हक़ की लड़ाई ईमानदारी से लड़ने के लिए तैयार हैं?

जीतेन्द्र कुमार:

आदरणीय लालूजी,

आदरणीय इसलिए कि आप हमारे बुजुर्ग हैं लेकिन चरण स्पर्श नहीं। चरण स्पर्श तो आपकी समाजवादी परम्परा में भी नहीं रहा है, ऊपर से अपने बुजुर्गों को भी मैं ‘जय भीम’ से ही संबोधित करता रहा हूँ। इसलिए क्षमा चाहूँगा कि अधिकतम आदर व सम्मान दिल में किसी के लिए होने पर भी चरण स्पर्श नहीं कर सकता। अगर यह लोकनीति है तो ऐसी कई ब्राह्मणवादी लोकनीतियों को ख़ारिज करने की अनुशंषा आप खुद उन दिनों कर चुके हैं जब आपने ‘भूरा बाल’ साफ़ करने को कहा था।

पत्र के ज़रिये ही सही पर यह मेरी आपसे निजी नहीं बल्कि एक राजनितिक मुलाक़ात है। और जब देश में फासीवाद की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रखी हो जिसमे मेरे विश्वविद्यालय समेत सभी लोकतांत्रिक संस्थानों पर गम्भीर हमले हो रहे हों, तब इन फ़ासीवादियों को शिकस्त देने की लड़ाई में आपके सहयोग पर आपको आदर देना अपेक्षित है। 90 के दशक में मैंने खुद अपने स्कूल में साजन फ़िल्म के गाने की तर्ज़ पर “देखा है पहली बार.. बाभन के आगे गोबार” जैसे गाने गाये हैं। आडवाणी के रथ को रोकने का मतलब तब समझ आया जब थोड़े बड़े हुए। लेकिन तब तक थोड़ा बड़ा होना ही समस्या बन चूका था। एक तरफ केंद्र में फासीवादी, वैमंस्यकारी बीजेपी की सरकार देख चुके थे तो दूसरी तरफ गुंडों और बाहुबलियों के दम पर चल रही आपकी सरकार ने बिहार में सामंतो से गठजोड़ कर लिया था। लक्ष्मणपुर बाथे से लेकर बथानी टोला तक के पीड़ित दलितों को आपकी सरकार न्याय न दिला सकी। आपके बाद सत्ता में आये नितीश कुमार ने आते ही उस अमीरदास आयोग को भंग कर दिया जिसके भरोसे बिहार के सामंतवादी ताकतों को सजा दिलवाई जा सकती थी। अभी के आपके सहयोगी यही नितीश कुमार थे जिनके कार्यकाल में आरएसएस निष्कटंक अपने पाँव फैलाता रहा और समाज में धर्म और जाति की जहरीली पौध विकसित करता रहा।

नरेंद्र मोदी के रूप में देश के लोकतंत्र पर हुआ यह हमला नया नहीं है। सफल हमले की शुरुआत तो तभी हो गयी थी जब पहली बार भाजपा ने देश में सरकार बना ली थी। उसी दौर में हुए 2002 के गुजरात दंगो को नहीं भुलाया जा सकता।
लेकिन जनता ने उस सांप्रदायिक सरकार को सत्ता से बाहर किया और विकल्प में कांग्रेस और वामपंथ की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को भारत का भविष्य सौंपा। वही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन जो आज फिर से फासीवाद के खिलाफ़ एकजुट होते नजर आ रहे हैं। एक बार तो इस एकजुटता पर सवाल खड़े करने में डर सा लग रहा है। लेकिन क्या यह एकजुटता प्रोडक्टिव है? अल्पमत की एक फासीवादी सरकार की नीतियों की वजह से ही वही फासीवादी सरकार आज पूरे बहुमत में है। देश भर में दलितों आदिवासियों का शोषण उस दौर में भी हुआ। उसी दौर में विनायक सेन समेत पूरे कुडनकुलम के ग्रामीणों पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। नंदीग्राम में भी किसानों पर गोलियां इन्ही पार्टियों की सरकार ने चलवाई जो आज फासीवाद के खिलाफ़ लामबंद हो रहे हैं। बिहार में सवर्णों का आतंक इसी फासीवाद के खिलाफ एकजुट हो रहे पुरोधाओं के शासनकाल में फैला।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हमेशा ही लोकतांत्रिक मूल्यों पर हो रहे हमले के खिलाफ़ रहे हैं। आज जब इसी विश्वविद्यालय पर प्रत्यक्ष रूप से हमले हो रहे हैं तो इसके खिलाफ एकजुटता की बात हो रही है। लेकिन एकजुटता किनके साथ! वह जो धर्मनिरपेक्ष तो हैं लेकिन जातिवादी हैं? उनके साथ जो सामंती तत्वों के खिलाफ़ खड़े होने का दावा करते हैं लेकिन असल में बाहुबलियों को संरक्षण देते हैं? उनके साथ जो बात तो समाजवाद की करते हैं लेकिन असल में पूंजीपतियों की नीतियों को लागू करते हैं? उनके साथ जो रोहित वेमुला के संघर्षों को भुलाना तो चाहते हैं लेकिन जेएनयू में एडमिशन के वक़्त लिए गए साक्षात्कार के नंबर कम करने के खिलाफ हैं? सालों से जेएनयू में ऐसे साक्षात्कारों में दलितों और पिछड़ों को 30 में से 0 या 1 नंबर दिए जा रहे पर तथाकथित प्रगतिशील फासीवादी विरोधी खेमा चुप है।

माफ़ कीजियेगा ऐसी एकजुटता से मुझे आपत्ति है। ऐसी एकजुटता थोड़े समय के लिए फासीवाद को रोक भले सकती है लेकिन उसे और मजबूत करने के लिए। जैसा कि 2014 में हुआ। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दस साल ही नरेंद्र मोदी के राष्ट्रिय पटल पर पादुर्भाव का कारक है।

‌ ऐसी एकता जिससे भविष्य का खतरा बढ़ जाय, मुझे मान्य नहीं है। इस मोदी के बाद कांग्रेस और उसके बाद उससे भी बड़ा मोदी आगे आये, ऐसी एकता बेकार है। यह सत्ता का बंदरबांट करने के लिए बनाई जा रही एकता है। क्या हम फिर से 2004 की स्थिति में किसी तरह वापस लौटना चाहेंगे जिसमे बीजेपी तो सत्ता से बाहर हो लेकिन गरीबों व मजलूमों पर धर्म के बजाय आर्थिक नीतियों का दमन चलता रहे? या हम एक ऐसी एकता का खाका तैयार करें जो दमन व शोषण के भी खिलाफ हो, फासीवाद के साथ साथ। हम फासीवाद के खिलाफ़ जेएनयू में आवाज उठाते रहें और महिलाओं को यहाँ के एडमिसन में मिलने वाली छूट बंद हो जाय। देश भर में घूम रोहित वेमुला के लिए न्याय की मांग करें लेकिन अपने ही विश्वविद्यालय में ओबीसी रिजर्वेशन कम कर दिया जाय।

इस तरह की फ़र्ज़ी लड़ाई और फ़र्ज़ी एकता का मैं विरोध करता हूँ। फासीवाद अगर देश से भागेगा तो केवल नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने से नहीं, बल्कि जब सभी शोषितों को उनका अधिकार मिलेगा। इसमें छोटी से छोटी लड़ाइयां शामिल हैं।

हमारे विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष अभी आपसे मिलने और पटना में रोहित वेमुला के साथ हुए भेदभावपूर्ण अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने गए हैं। लेकिन वहीँ उनके जिला बेगुसराय में ही दो भूमिहीन दलित मजदूरों की हत्या वहां के सामंतो ने कर दी है जिसके कातिलों को आपकी सरकार बचा रही है। अगर उनके कातिलों को बचाकर भी आप जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष से गर्मजोशी से मिल रहे हैं तो आपको याद दिला दूँ कि यहीं के छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर भी थे। वो छात्रसंघ अध्यक्ष जिसने जेएनयू में ओबीसी छात्रों की असल में लड़ाई लड़ी थी और आपसे मुस्कुराकर मिलने नहीं बल्कि आपके बाहुबली एमएलए के विरोध में सीवान की सडकों पर उतरा था और सीने पर गोली खाई थी। जिसकी बहादुर माँ जीवनपर्यंत आपके विरोध में खड़ी रही। वही चंद्रशेखर जिसके लिए कभी जेएनयू के छात्रों ने जब बिहार निवास का घेराव किया तब आपके गुंडे साले साधू यादव ने गोलियां चलाई थी। ये जेएनयू आज भी चंदू का जेएनयू है। बेगुसराय के दलितों को न्याय दिलाये बिना रोहित वेमुला के समर्थन में खड़े होना लफ्फाजी है। धार्मिक उन्माद के खिलाफ लेकिन जाति उत्पीड़न के समर्थन में खड़े लोगों की एकता फासीवाद के खिलाफ एकता नहीं बल्कि लफ्फाजी है। और जेएनयू के ढेरों छात्र इन लफ्फाजिओं में नहीं फंसने वाले। चाहे आप हमारे छात्र अध्यक्ष को कितना ही वीवीआईपी ट्रीटमेंट क्यों न दें।

आपके ही राज्य का एक छात्र

जीतेन्द्र कुमार
116, झेलम
जेएनयू, नई दिल्ली 67

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