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सैराट: जाति व्यवस्था के बीच प्रेम को तलाशती एक सशक्त फिल्म

अमोल रंजन:

उस दिन कुछ दोस्तों के साथ दिल्ली के साकेत सिनेमा में एक मराठी फिल्म “सैराट” देखने गया। हालाँकि पिछले काफी दिनों से फिल्में देखने के कई अन्य विकल्प होने के कारण सिनेमा हॉल जाना हो नहीं पा रहा था। फिर सोशियल मीडिया पर कुछ लोग इस फिल्म की ऐसी तारीफ़ कर रहे थे, कि जब एक दोस्त ने फिल्म देखने के लिए पूछा तो मुँह से हाँ ही निकला।

फिल्म के पहले शॉट को देखने से लगा जैसे मैं शोलापुर जिले के करमाला गाँव में अपने बचपन के मोहल्ले में पहुँच गया हूँ। टेनिस की गेंद से खेला जाने वाला क्रिकेट टूर्नामेंट, लाउडस्पीकर पर मजाकिया कमेंटरी, आखरी ओवर में चौक्के-छक्के मार कर मैच जीतना। किसी नेता जी के द्वारा पुरस्कार वितरण और उनका भाषण, किसी लड़के का किसी लड़की पर दिल आना और फिर लड़की का उस लड़के पर दिल आना (माफ़ कीजियेगा मैं यहाँ अपने नज़रिए से देख रहा हूँ)। पर जैसे-जैसे फिल्म में यह सब हो रहा था, कुछ चीज़ें ऐसी भी हो रही थी जो मैंने ना तो अपने मोहल्ले और गाँव में देखी थी और ना ही ज्यादा सिनेमा में। यहाँ आर्चि (लड़की) ही परश्या (लड़के) को घूरे जा रही थी और परश्या शर्म से उसको मना किये जा रहा था। लड़की जब-जब फिल्म के किसी फ्रेम में रॉयल एनफील्ड या ट्रैक्टर चला के आ-जा रही थी, सिनेमा हॉल में बैठी जनता चौंके जा रही थी। इस फिल्म में आर्चि उच्च जाति और सम्पन्न परिवार से है जिसके पास राजनितिक ताकत भी है और परश्या निम्न जाति के गरीब परिवार से है। पर जब फिल्म में आर्चि पुलिस थाने में परश्या के बचाव के लिए संघर्ष करती है तो वो ना सिर्फ अपने परिवार, परश्या और अधिकारियों को आश्चर्यचकित करती है बल्कि सिनेमा में चित्रित समाज में प्यार के लिए संघर्ष को नए आयाम देने लगती है।

मध्यांतर के बाद आर्चि और परश्या के संघर्ष का पड़ाव हैदराबाद शहर बन जाता है जहाँ कोई उनका पीछा तो नहीं कर रहा होता है, लेकिन जीवन जीने के संघर्ष में उन्हें दौड़ कर कई सीमायें लांघनी होती हैं। आर्चि जो इससे पहले तक अपना जीवन पूरी सुविधाओं के साथ जी रही थी, अब वह खुद को किसी मलबे के ढेर पर बिखरी हजारों झुग्गियों में से एक में पाती है। वह उसके पास से होकर जाने वाले नालों में बहकर आने वाली शहर की सच्चाइयों को अपनी साँसों में बसाने के लिए संघर्ष करती है। परश्या का भोलापन भी धीरे-धीरे शहर की आपधापी में छिपने लगता है, एक सीक्वेंस में परश्या आर्चि को गुस्से में आकर थप्पड़ मार देता है, मर्दानगी और पित्रसत्ता उसके आर्चि के लिए प्यार के ऊपर हावी होती दिखती है। परश्या को अपनी गलती का अहसास होने तक, आर्चि उससे दूर चली जाती है। फिल्म के निर्देशक नागराज मंजुले, जो फिल्म के शुरूआती क्षणों में नज़र भी आते हैं, सिनेमा को अपने साहसी चरम पर ले जाते हैं। वो आर्चि और परश्या के प्यार के सपनों और संभावनाओं में भी ले कर जाते हैं और हमारे सामाजिक व्यवस्था की गहरी विषमताओं और इसकी गहराईयों में भी।

१७० मिनट की यह फिल्म अगर एक प्रेम यात्रा है, तो इसका अंत आर्चि और परश्या के जीवन की सच्चाई है। जाति व्यवस्था और लिंग भेद से ग्रसित हमारा समाज कब आपको हलक से पकड़ के पटक देता है आपको पता नहीं चलता। यह हमारी सांसों में घुला हुआ है, “सैराट” फिल्म के कथानक के हर मोड़ पर यह देखने को मिलता है और अंत तक आपकी बुद्धि और कल्पनाओं के साथ खेलता रहता है।
फिल्म को देखने के बाद जब हम लोग निकले तो सभी भावुक थे। सभी अपनी-अपनी भावनाएं व्यक्त करने की कोशिश करने के बाद अपने-अपने रास्ते को चले गए। मैं भी इस फिल्म के सफ़र के बाद अपने खुद के सफ़र में झाँकने को मजबूर हो गया। मेरा सफर ना सिर्फ मेरी अपनी कहानी थी, बल्कि कई और लोगों की कहानियाँ भी थी जिन्हे मैंने कभी आत्मसात किया था। ना जाने कितनों की कहानी इस फिल्म के ४० मिनट तक, कितनों की ६० मिनट तक, कितनों की ९०-१२०, तो कितनों की कहानी इस फिल्म से भी आगे तक जाती है। सभी के अपने मोड़ हैं, और अपने-अपने अंजाम भी। उन सब कहानियों की समानताएं और भिन्नताएं जोड़ता ऑटो लेकर मैं घर वापस पहुँचा। पर फिल्म की डरावनी सच्चाई गयी नही थी। वो लगातार पूछे जा रही थी, कि क्या आर्चि और परश्या का प्यार संभव था? क्या उनका प्यार संभव है? सोते-सोते लगा जैसे इस फिल्म की ताकत शायद यही थी कि ये लगातार सवाल पूछे जा रही थी।

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