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दिल्ली की अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में क्या होगा छात्र राजनीति का भविष्य?

अनूप:

पिछला एक-डेढ़ साल देश भर की छात्र राजनीति के लिए उथल-पुथल का समय रहा है। एक के बाद एक विश्वविद्यालयों में मचते हुए कोहराम, कड़ी दर कड़ी जुड़ते हुए, एक लम्बी श्रृंखला बनाते गए। वर्तमान में देखने पर पिछले एक-डेढ़ साल का समय छात्र आंदोलनों के लगातार आगे बढ़ते जाने और गहन होते जाने का समय दिखता है। इन तमाम आंदोलनों की पृष्ठभूमि को देखें तो यह पायेंगे कि यह सभी छात्र संघर्ष, अपने-अपने परिसरों के सवालों-समस्याओं से जूझते हुए और उन्हीं को संदर्भित करते हुए अपने आंदोलनों की रुपरेखा तैयार करते गए। फिर वो चाहे दक्षिणपंथी वाईस चांसलर की नियुक्ति से उपजा ऍफ़.टी.आई.आई. का लम्बा संघर्ष रहा हो, या महिला उत्पीड़न पर यूनिवर्सिटी प्रशासन को चुनौती देता जादवपुर यूनिवर्सिटी का आन्दोलन। ऐसे कितने ही आन्दोलन अपने-अपने परिसरों की रूपगत विशिष्टता के अनुसार बनते-बदलते रहे हैं। दिल्ली के कॉलेज ऑफ़ आर्ट में चला छात्र संघर्ष इसी कड़ी में स्थानीय समस्या और सवाल के इर्द-गिर्द जमा होती राजनीतिक चेतना का ही स्पष्ट उदाहरण है। इन तमाम स्थानीय सवालों-समस्याओं और आंदोलनों की गति से उर्जावान दिल्ली की छात्र राजनीति की दिशा भी तय होती रही है। साथ ही दिल्ली की छात्र राजनीति में नए केंद्र भी उभरे, जो दिल्ली की प्रगतिशील छात्र और युवा राजनीति के विभिन्न केन्द्रों और कार्यकर्ताओं को करीब भी लेकर आए। अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की आंतरिक राजनीति और बाहरी छात्र संघर्षों में यूनिवर्सिटी छात्रों की मौजूदगी को इसी रुपरेखा द्वारा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

जैसा कि ऊपर बताने की कोशिश की गयी है, कि अलग-अलग छात्र संघर्षों में स्थानीय सवालों-समस्याओं की अहम भूमिका रही है। लेकिन दिल्ली से शुरू हुआ ओक्युपाई यू.जी.सी. आन्दोलन एम-फिल और पी.एच.डी. की छात्रवृत्ति को बंद करने के मुद्दे से उपजा ऐसा आन्दोलन बना जिसने तमाम स्थानीय सवालों-समस्याओं को एक मंच पर एकत्रित किया। विभिन्न स्थानीय समस्याओं-सवालों को एक केंद्र प्रदान करता यह आन्दोलन, विभिन्न यूनिवर्सिटी छात्रों के बीच संवाद का भी माध्यम बना। ओक्युपाई यू.जी.सी. आन्दोलन समय के लम्बे अन्तराल में फैला ऐसा आन्दोलन बनकर उभरा जिसने कैंपस के भीतर के कई छात्रों (संगठन से जुड़े और साथ ही साथ स्वतंत्र छात्र) को एक साथ समूहगत किया और साथ ही विभिन्न परिसरों के छात्रों को भी एक-दुसरे को जानने-समझने का अवसर दिया। इस प्रकार इस आन्दोलन ने विभिन्न स्थानीय विशिष्टताओं की समानताओं को समझने का अवसर ज़रूर दिया।

अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति के लिए भी यह पहला अवसर था कि यूनिवर्सिटी परिसर से बाहर राजनीतिक अभिव्यक्ति द्वारा खुद को संगठित और बेहतर ढंग से व्यवस्थित किया जा सके। जैसे कि ऊपर मैंने ज़िक्र किया ही है, कि देश भर में हुए विभिन्न छात्र संघर्ष जहाँ एक ओर स्थानीय सवालों-समस्याओं द्वारा गतिमान और संगठित हुए। वहीं इनके इर्द-गिर्द बनने वाली राजनीतिक चेतना के सामान्यीकरण की प्रक्रिया को समझने में पुराने प्रगतिशील राजनीतिक स्वरूप सफल नहीं हो पाए, और उन सामान्यीकरणों का क्रियान्वयन भी ना हो सका। इसीलिए इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि छात्र राजनीति में नए राजनीतिक प्रयोग हमेशा ही वामपंथी और प्रगतिशील छात्र राजनीति के पुराने स्वरूपों के प्रति उदासीन क्यों है? क्यों आज दलित राजनीति या वामपंथी राजनीति की स्वतंत्र समझ रखने वाले छात्र, प्रगतिशील राजनीति के क्षेत्र के भीतर ही पुरानी राजनीतिक संरचनाओं से संतुष्ट तो हैं ही नहीं, बल्कि उनके कटु आलोचक हैं? या तो छात्र समुदाय राजनीति से सम्पूर्ण रूप से कटा हुआ है या उसका विरोधी है, या फिर वह एक नयी संरचना के उत्थान के लिए प्रयासरत दिखता है। अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में हुए राजनीतिक कार्यक्रमों को इसी रूप में समझा जा सकता है।

अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली, एक युवा यूनिवर्सिटी है, जिसने अभी अपने 10 साल भी पूरे नहीं किये हैं। २००७ में दिल्ली सरकार द्वारा विशेषकर मानविकी के गहन और गम्भीर अध्ययन के उद्देश्य के लिए बनाई गयी इस यूनिवर्सिटी ने छोटे अंतराल में ही अपना व्यापक उत्थान किया है। मसलन, ७ स्नातक पाठ्यक्रम, २१ परास्नातक पाठ्यक्रम और १३ शोध पाठ्यक्रमों के साथ यूनिवर्सिटी में छात्रों की संख्या कोई १८५० के आस-पास है। ऐसे अपेक्षाकृत छोटे लेकिन अकादमिक विभिन्नता से परिपूर्ण इस परिसर में राजनीति चुनौतीपूर्ण कार्य है। वह भी ऐसे सन्दर्भ में जब यूनिवर्सिटी छात्रों में उच्च मध्यम वर्गों और उच्च वर्गों-वर्णों के छात्रों की अच्छी-खासी संख्या है। दूसरी ओर, यूनिवर्सिटी में छात्रों के मुद्दे प्राथमिकताओं की दृष्टि से इतने अधिक अलग-अलग रहें हैं, कि उन मुद्दों को एकताबद्ध करके राजनीतिक दिशा को समझ और तलाश पाना पिछले ४ वर्षों में लगभग हो ही ना सका था। मसलन कुछेक छात्रों के लिए फीस-वृद्धि का मुद्दा ज़रूरी रहा तो वहीं कई उच्च वर्गीय छात्रों का यह भी कहना रहा कि जब फीस इतनी अधिक ली जा रही है तो उसके अनुसार सुविधाएं दी जाएं। कुछ अल्पसंख्यक छात्रों के लिए अकादमिक अध्ययन में अंग्रेजी की कड़ी अनिवार्यता मुद्दा रही, तो इसके ही विरोध में कुछ छात्र हिंदी भाषा में लिखने के संघर्ष को हिंदीवाद से जोड़ते हुए दिखे और कुछ मामलों में इस ज़रूरत को अव्यवहारिक भी बताया गया। यूनिवर्सिटी में कुछ छात्र यदि डीटीसी बस पास की उपलब्धता की लड़ाई को लड़ रहे थे, तो वहीं कुछ छात्र इस से अलग प्रशासन से यूनिवर्सिटी क्षेत्र में कार पार्किंग की बहस में उलझे थे।

इन व्यापकताओं और विरोधों के बीच, यूनिवर्सिटी की फोरम पॉलिटिक्स ने ४ साल के समय में अलग-अलग मुद्दों को समझा, उठाया और कुछ हल भी खोजे। यहाँ दुसरे परिसरों की अराजनीतिक संस्कृति से उलट, अम्बेडकर यूनिवर्सिटी को अलग ले कर आना जरुरी है। जैसे यहाँ सक्रिय राजनीति में कार्यरत छात्र, संगठनात्मक राजनीति से न जुड़ कर, विभिन्न विचारों और सवालों को एक मंच के रूप प्रस्तुत करते रहे हैं। (अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में हालिया दौर तक किसी भी संगठन की औपचारिक इकाई नहीं है)। इसे किसी भी तरह से अराजनीतिक तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता। पिछले ४ सालों में बने मंचों को अगर याद करें, तो इसमें सबसे पुराना मंच, ‘स्टूडेंट फोरम’ रहा है। इसके अलावा भी कई मंच रहे, जैसे, प्रोग्रेसिव एंड डेमोक्रेटिक स्टूडेंट कम्युनिटी ऑफ़ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी डेल्ही, नार्थ-ईस्ट फोरम, और छात्रों-शिक्षकों का सामूहिक फोरम, एल.जी.बी.टी. क्वीर कलेक्टिव, और हालिया दौर में बना दलित-बहुजन-आदिवासी कलेक्टिव। ओक्युपाई यू.जी.सी. आन्दोलन एक ऐसे अवसर के रूप में अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की राजीनीति से जुड़ा, कि व्यापक और विभिन्न मुद्दों को एक एकताबद्ध सूत्र प्राप्त हुआ, जिसने राजनीतिक रूप से सक्रिय छात्रों को एकत्रित किया। लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया कि इन स्थानीय सवालों को चाहे, आक्युपाई यू.जी.सी. के तात्कालिक मुद्दे ने एक कॉमन ग्राउंड दिया हो, लेकिन यूनिवर्सिटीयों के बीच के वर्गीकरणों और यूनिवर्सिटी में छात्रों के मध्य के वर्गीकरणों की समझ को भी इस आन्दोलन ने सामने रखा। बहरहाल, इन वर्गीकरणों को समझने में ना जे.एन.यू.एस.यू. के नेताओं की कोई दिलचस्पी रही, ना ही संगठित वामपंथी दलों ने, इसमें कुछ रचनात्मक हस्तक्षेप ही किया। और इसीलिए अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की राजनितिक समझ में यह शंका और गहराने लगी कि क्या आन्दोलन जे.एन.यू. केन्द्रित तो नहीं हो रहा?

ऐसे राजनीतिक सवाल मेरे मन में भी निरंतर उठते रहे कि राजनीतिक चेतना का सामान्यीकरण जो इतने लम्बे समय बाद अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की राजनीति में देखने को मिला है, क्या इसकी रूप-रेखा और जटिलता को समझने को संगठनात्मक वामपंथी ताकतें तैयार हैं? क्या ओक्युपाई यू.जी.सी. आन्दोलन किसी व्यापक विमर्शगत सामान्यीकरण (ब्रॉडर डिस्कर्सिव जनरलाइजेशन) का छात्र राजनीति में क्रियान्वन कर सका? अभी अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के भीतरी राजनीतिक विमर्श और बहसें इन सवालों से टकराने में लगी ही थी कि हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलित छात्र नेता, रोहिथ वेमुला ने, यूनिवर्सिटी प्रशासन के जातिवादी-ब्राह्मणवादी रवैये से आजिज़ आकर अपनी जान दे दी। रोहिथ की ‘संस्थागत हत्या’ ने देश की छात्र राजनीति को ओक्युपाई यू.जी.सी. के संघर्ष से व्यापक बनाते हुए जातिवादी-ब्राह्मणवादी तन्त्र के खिलाफ छात्र आन्दोलन को और मज़बूत बनाया। रोहिथ का खुद का अपना मुद्दा भी कई महीनों से उसकी फ़ेलोशिप का रुकना भी था, इसीलिए इन सवालों का आपस में जुड़ना तय था। इस आन्दोलन ने ओक्युपाई यू.जी.सी. के बाद अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की आन्तरिक राजनीति में एक नयी लहर पैदा की। जिसमे एक ओर पुराने छात्र कार्यकर्ता, नयी समझदारी के साथ आन्दोलन में उतरे वहीं, कई नए छात्र भी इस संघर्ष में गोलबंद हुए। इस पूरी प्रक्रिया में अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की राजनीति में एक नयी और प्रगतिशील घटना यह हुई कि पूरे देश में अम्बेडकरवादी संगठनों के उभार की श्रृंखला में अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में भी ‘दलित-बहुजन-आदिवासी कलेक्टिव (डी.बी.ए.सी.)’ नाम के एक फोरम का प्रयोग सामने आया।

‘डी.बी.ए.सी.’ की राजनीति का अच्छा पक्ष यह रहा कि दलित और पिछड़े छात्रों ने निरंतर एक साथ बैठना शुरू किया और इसी क्रम में यूनिवर्सिटी प्रशासन के इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि ‘अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर’ में हर वर्ष किसी सवर्ण को ही बुलाया जा रहा है। प्रख्यात इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर को अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर में बुलाये जाने पर कलेक्टिव (डी.बी.ए.सी.) ने कुछ ऐसे तथ्यों और सवालों को सामने रखा जिन पर बात तो लम्बे दौर से की जा रही थी, लेकिन कुछ किया नहीं जा सका था। बाबा साहेब के नाम से विकासशील एक यूनिवर्सिटी, जो कि वाईस चांसलर की सहमति सहित, (दलित शोधार्थी रोहिथ वेमुला की संस्थागत हत्या पर आधिकारिक तौर पर निंदा व्यक्त करे) अगर अपने ही एक अत्यंत महत्वपूर्ण वार्षिक कार्यक्रम, ‘अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान’, में लगभग हर वर्ष किसी उच्च जातीय अकादमिक या विद्वान को आमंत्रित करती दिखे, तो उसके सिद्धांत और व्यवहार में बड़ा अंतर दिखाई देता है। प्रो. थापर को बुलाये जाने का यह आमन्त्रण और इस आमन्त्रण पर वाईस चांसलर को लिखे अपने पत्र द्वारा डी.बी.ए.सी., यूनिवर्सिटी में छात्रों के बीच कुछ हद तक इस बात का सामान्यीकरण करने में सफल हो पायी। इस तथ्य और व्याख्यानमाला में लगातार सवर्णों को बुलाये जाने के इस जातिवादी-ब्राह्मणवादी अभ्यास के खिलाफ कड़े शब्दों में आपत्ति जताते हुए, वाईस चांसलर को लिखे पत्र द्वारा यूनिवर्सिटी में एक विमर्श ज़रूर खड़ा हुआ। दुर्भाग्य की बात यह रही कि हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय की घटना पर निंदा व्यक्त करने वाले कुलपति महोदय ने, अपने ही परिसर के दलित-आदिवासी छात्रों के इस सवाल का जवाब देने की जरूरत ना समझी। मुलाक़ात तो दूर की बात रही, छात्रों के ख़त का जवाब ख़त द्वारा देना कुलपति महोदय ने मुनासिब न समझा।

इसी तरह का एक प्रकरण तब सामने आया था जब अपनी लिबरल पहचान की लालसा में यूनिवर्सिटी ने एन.ए.ए.सी. (नेशनल असेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन कॉउन्सिल) के आने के दौरान भी बाबा साहेब के विचारों के विरुद्ध आचरण दिखाया था। मुझे याद आता है कि कुछ तीन साल पहले, कार्ल मार्क्स के एक कथन को कुछ साथियों ने ग्राफिटी के रूप में दीवार पर लिखा था। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने कुछ ही दिनों में उसी सम्बन्धित स्थान में, जहाँ कि ग्राफिटी थी, दिवालीनुमा रंग-रोगन करा कर, मार्क्स के कथन के हर चिन्ह को वहां से मिटा दिया था। विडम्बना यह रही कि 2014 में एन.ए.ए.सी. के आने पर यूनिवर्सिटी प्रशासन ने ‘सजावट’ के नाम पर छात्रों को दीवारें सजाने के लिए प्रेरित किया। और न सिर्फ प्रेरित बल्कि इसके लिए रंग-पेंट आदि का सामान भी यूनिवर्सिटी द्वारा ही मुहैया कराया गया। इसी दौरान इसी रंग-रोगन सजावटी और कृत्रिम लिबरल पहचान को गढ़ने की प्रक्रिया के दौरान, कुछ छात्रों ने वैक्लिपिक सेक्सुअल आकांक्षा के चित्र को दीवार में चित्रित किया, जिसे रातों-रात वाईस चांसलर और डीन ऑफ़ स्टूडेंट सर्विसेज की निगरानी में नैतिक-अनैतिक की बहस के निष्कर्ष के तौर पर तहस-नहस कर दिया गया। यूनिवर्सिटी की दीवारों पर बाकी चित्र तो अपना लिबरल गीत गाते दिखाई पड़ते रहे, (आज तक इस महान ऐतिहासिक कांड के साक्ष्य यूनिवर्सिटी परिसर में दिखते हैं) लेकिन एक सूनी दीवार पितृसत्ता की निगरानी में सुलगती रही। आगे चलकर आंबेडकर यूनिवर्सिटी में यह जगह म्युसियम ऑफ़ डिजायर के नाम से कुछ वक्त तक अवश्य जानी गयी। इसी प्रकरण पर स्कूल ऑफ़ कल्चरल एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशन के तत्कालीन डीन ने अपने आधिकारिक पद से इस्तीफा भी दिया, जिसे तुरंत ही स्वीकार भी कर लिया गया। इसी तरह पिछले वर्ष ओक्युपाई यूजीसी के समय दीवारों पर महंगी फीस, फण्ड कटौती और कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों से संबंधित ग्राफिटी को भी यूनिवर्सिटी प्रशासन ने महामहिम राज्यपाल के यूनिवर्सिटी दौरे के बहाने से हटवा दिया।

सवाल यह है कि इस जातिवादी-ब्राह्मणवादी और असवरवादी प्रशासनिक अभ्यासों द्वारा यूनिवर्सिटी किस तरह के उदारवाद की बात करना चाहती है? बहरहाल इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जातिवादी-ब्राह्मणवादी अभ्यास को प्रश्नांकित करते हुए डी.बी.ए.सी. ने एक अम्बेडकर चेयर की बात भी उठाई, जिसके तहत परिसर में अम्बेडकर चिंतन पर विचार-विमर्श हो सके। इसी बीच साथ ही साथ स्टूडेंट फोरम के कुछ साथियों द्वारा निकाले जा रहे अखबार ‘ए.यू.डी. अखबार’, में कई छात्रों ने पहले से कार्यरत स्टूडेंट फोरम की कार्य-प्रणाली पर आलोचनाएँ प्रकट करते हुए, कई ऐसे मुद्दों पर ध्यान दिलाया जिस ओर ध्यान नहीं गया था एक ओर जहाँ इस अखबार की रिपोर्ट, स्टूडेंट फोरम की राजनीति की ब्राह्मणवादी-पुरुषवादी आलोचना करती है। तो वहीं दूसरी ओर, छात्रों की मनोवैज्ञानिक थकान और अवसाद, अकादमिक भाषा और एक ख़ास तरह के अकादमिक लेखन की प्रत्याशा का दबाव और भाषाई संकटों के विभिन्न रूपों को भी सामने लेकर आती हैं। इसी गहमा-गहमी में इस बात पर ध्यान गया कि बाहरी राजनीति के साथ सामंजस्य बनाने की हड़बड़ी में क्या छात्र-राजनीति भीतरी मुद्दों को विस्थापित तो नहीं कर रही? क्या बाहर के राजनीतिक परिवर्तन के अनुरूप चलने की ज़रूरत में, छात्र राजनीति कुछ सवालों-समस्याओं को अलग तो नहीं कर रही? इसका कारण चाहे कुछ भी हो, (रणनीतिक या कुछ भी), मगर क्या यह एक वर्चस्ववादी रुख तो नहीं?

इस तरह “अम्बेडकर यूनिवर्सिटी डेल्ही न्यूज़लैटर” से उपजी आलोचनाओं ने यह विमर्श छात्र राजनीति और ‘स्टूडेंट फोरम’ की राजनीति के इर्द-गिर्द पैदा किया, कि क्या हम उसी संरचना को ही पुन:उत्पादित तो नहीं कर रहे जिससे कि हमारा मतभेद है? बहरहाल, इसी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच छात्र-संघ चुनावों की भी सूचनाएं प्राप्त हुई, जिसकी सुगबुगाहट पिछले ६-८ महीनों से थी। ‘डी.बी.ए.सी.’ के उत्थान ने यहाँ एक और मदद यह की, कि चुनाव पर होने वाले विमर्श में यह मुद्दा शुरू से ही केंद्र में रहा कि चुनाव के भीतर आरक्षण का एक निश्चित प्रावधान हो। ६ अप्रैल को हुई लम्बी मीटिंग की ज़ोरदार बहस इसी विमर्श के इर्द-गिर्द हुई। इस में सहमति से यह बात समझी गयी कि ना सिर्फ जातिगत बल्कि तमाम शोषित अस्मिताओं के लिए आरक्षण की अनिवार्य ज़रूरत है। लेकिन समस्या यह रही कि आरक्षण को लागू करने का कोई वैकल्पिक मॉडल अपने शोधगत निष्कर्षों के साथ मौजूद नहीं था। और दूसरी तरफ बात यह भी थी कि चुनाव जिस प्राविधि से हो रहे थे, उसमे हर एक पाठ्यक्रम से एक छात्र प्रतिनिधि को चुने जाने की प्रणाली थी। और पाठ्यक्रमों में आरक्षण को लागू कर सकना तर्कसंगत तो ना था, और नैतिक रूप से गलत भी था।

बहस के दौरान इस बात पर कुछ सहमति बनी कि पहली स्टूडेंट कॉउंसिल और संविधान समिति में, ४०+X की संरचना को क्रियान्वित किया जाए, जिसमे ४० सदस्य पाठ्यक्रमों से हों, और X, जिन्हें कि खोजना है, आरक्षित हों। इस सहमति के बावजूद भी, ‘डी.बी.ए.सी.’ और कई स्वतंत्र छात्रों का यह मानना रहा कि बिना आरक्षण के चुनावों को नहीं होने देना चाहिए। जबकि छात्रों का एक समूह चुनाव में जाना चाहता था। इन्ही सब गहमा-गहमी के बीच, एक ओर जहाँ ‘डी.बी.ए.सी.’ और कुछ छात्रों ने इलेक्शन के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाये, तो वहीं दूसरी ओर, ‘स्टूडेंट फोरम’ के छात्रों के एक समूह ने दलित-पिछड़े और महिला राजनितिक छात्र कार्यकर्ताओं के बीच इलेक्शन के अपने विचारों के साथ विमर्श स्थापित किया। अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की राजनीति का महत्वपूर्ण पहलू यह भी रहा कि राजनीतिक मतभेदों के बावजूद, चुनाव के दिन ‘डी.बी.ए.सी.’ और कुछ छात्रों ने चुनाव मुख्यालय के बाहर जब धरना किया, तो उनके धरना करने के अधिकार का चुनाव लड़ रहे छात्रों ने भी समर्थन किया। राजनितिक मतभेदों के बीच भी छात्र-एकता का यह तथ्य इस बात से भी समझ आता है कि धरने पर बैठे छात्रों की शिकायत करने के लिए कई चुनाव लड़ रहे साथियों को कहा भी गया। अंतत: इन सभी गहमा-गहमी के बीच चुनाव सम्पन्न हुए, और चुनी हुई कॉउंसिल का जातीय और जेंडर आधार (पर्याप्त तो नहीं पर) काफी बेहतर रहा।

अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति के इस विमर्श को यदि समझें तो इसका मकसद उस संरचना को बार-बार विखंडित करने का प्रयास करना है, जो समरूप राजनीति की बुनियाद रखती है। जिसके माध्यम से सभी वर्गीकरण अपने रूपात्मक तरीके से छात्र राजनीति में सामने आ पाए। आरक्षण, दरअसल उन तमाम हाशिये की अस्मिताओं-आवाज़ों तक पहुँचने की कोशिश है, जो केंद्र के विरोधी युग्मों के खेल में अदृश्य या अनुसुनी रह जाती हैं। इसलिए अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की वर्तमान राजनीति की कोशिश केंद्र को बार-बार विकेन्द्रित करने की है। इसीलिए यहाँ इस बात पर एक सहमति बनती दिख रही है कि न सिर्फ निम्न जातीय बल्कि महिलाओं, वैकल्पिक सेक्सुअल समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यक, क्षेत्रीय अल्पसंख्यक (मसलन तनाव ग्रस्त क्षेत्रों के छात्र), भाषाई अल्पसंख्यक और निम्न वर्गीय छात्रों की मौजूदगी को आरक्षित किया जाए। और इसी प्रयास की पूर्ति के लिए ‘अम्बेडकर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट कॉउंसिल’ ने अपनी पहली ही कॉउंसिल मीटिंग में इस प्रस्ताव को पास किया कि जब तक X श्रेणी के छात्र चुन कर कॉउंसिल के भीतर नहीं आते तब तक संविधान सभा बनी नहीं मानी जायेगी। संविधान का एक शब्द नहीं लिखा जाएगा। और इसी प्रक्रिया के अनुरूप कॉउंसिल और यूनिवर्सिटी के कुछ अन्य छात्र फ़िलहाल इन गर्मी की छुट्टियों में आरक्षित तबके की रिसर्च एक्टिविटी में कार्यरत हैं। इसी सवाल की सम्भावना की तलाश के लिए कि, क्या पुरानी संरचनाओं का अतिक्रमण करते हुए किसी नयी छात्र राजनीति की संरचना तक जाया जा सकता है?

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