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आज़ाद हिन्दुस्तान में छात्रों और युवाओं की राजनीतिक भूमिका – एक समालोचना

अभिमन्यु:

हमारे देश में छात्रों और युवाओं की सामाजिक व राजनीतिक भागीदारी सिर्फ़ आज़ादी की लड़ाई तक ही सीमित नही थी। समय-समय पर उन्होने अपनी समुचित भूमिका का निर्वहन भी किया है। देश में आज़ादी के बाद गठित होने वाली पहली गैर कॉंग्रेसी सरकार के गठन में भी इनकी समग्र भागीदारी थी। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल का सफल विरोध पूरे देश में हुआ जिसमे युवाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस सिलसिले मैं जब जय प्रकाश नारायण पहली बार पटना आये थे, तब उन्होनें वहाँ के छात्रों को संबोधित करते हुए ऐतिहासिक गाँधी मैदान से “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया। इस आंदोलन ने अन्य पिछड़ी जातियों को सामाजिक बराबरी की लड़ाई का एक अचूक हथियार दिया। फलस्वरूप लालू, नीतीश, रामविलास जैसे कई अन्य नेताओं ने बिहार में अपनी पहचान बनाई और सामाजिक उत्थान व गैर बराबरी के खिलाफ लड़ाई को आने वाले दिनो में जारी रखा है।

युवाओं एवम छात्रों की सक्रियता से हमारा लोकतंत्र सफलता के साथ अपने नये रूप में सामने आया। इसके विरोध के बीज का प्रॅस्फुटन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से (१९७१ में हुए आम चुनाव में कथित धाँधली का आरोप राज नारायण ने लगाते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुक़दमा दायर किया) हुआ जब इंदिरा गाँधी के नापाक मंसूबे को न्यायपालिका ने चिन्हित कर दंडित किया।

१९७८ में मंडल आयोग का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने किया था। १९८० में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी। बी पी मंडल जो इस आयोग के एकमात्र सदस्य थे, ने २७% गैर पिछड़ा वर्ग के लिए सभी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश की थी। इससे पूरे देश में राजनीतिक उथल-पुथल मच गयी थी। चारों ओर इसको लेकर इसके पक्ष और विपक्ष में विरोध प्रदर्शन का दौर चल रहा था। एक बार फिर देश के विश्वविद्यालयों से छात्रों और युवाओं की आवाज़ सड़क से संसद तक गूँज रही थी। इस आरक्षण के आंदोलन को ९० के दशक में देश भर के विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा प्रमुखता से चलाया गया। हालाँकि शुरू से ही इसे सवर्ण मानसिकता वाले ब्राह्माणवादी छात्रों के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। इस आरक्षण के कदम से उनकी सामाजिक सत्ता के नियंत्रण के खिसक जाने का ख़तरा उत्पन्न हो गया था। साथ ही हज़ारों साल की इस दासता के व्यसन के भी नेस्तनाबूद होने की पहल हो चुकी थी। अतः ये काफ़ी हिंसक हो गये और अपनी प्रभुसत्ता को बचाए रखने के लिए इन्होनें भ्रामक तिकड़म का प्रयोग भी यथासंभव किया। हालाँकि १९९० से २००० के मध्य तक यह कुछ खास मौकों और जगहों पर ही सक्रिय रह पाया, मगर छात्रों और युवाओं की राजनीतिक सक्रियता कभी कम नही हुई। हाँ यह थोड़ा मद्धम ज़रूर था।

हमारे देश की आबादी का लगभग ६५ प्रतिशत हिस्सा युवाओं का है। इनकी मतदान प्रक्रिया में तत्पर एवं त्वरित हिस्सेदारी ने चुनावी प्रक्रिया को काफ़ी मजबूती प्रदान की। ना सिर्फ़ हिन्दी पट्टी के क्षेत्र बल्कि पूर्वोत्तर के राज्य असम में भी अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में एक व्यापक छात्र आंदोलन हुआ था। १९७९ में शुरू हुए राज्यव्यापी छात्र आंदोलन का मुख्य आधार सीमापार बांग्लादेश से हो रहे कथित घुसपैठ का था। अखिल असम छात्र संघ के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन ने आख़िरकार केंद्र की उस वक़्त मौजूदा राजीव गाँधी की सरकार के साथ ऐतिहासिक असम समझौता किया। इसके फलस्वरूप १९८५ में हुए विधान सभा चुनाव में प्रफुल्ल कुमार महन्त के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ। प्रफुल्ल कुमार महन्त इस छात्र आंदोलन के नेता थे।

लिंगदोह समिति का गठन- छात्रों को राजनीति से दूर करने का सरकारी प्रयास

२००६ में केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने जस्टिस जेम्स माइकल लिंगदोह के नेतृत्व में इसका गठन किया था। इसके गठन के पीछे सरकार ने छात्र राजनीति के आपराधिकरण को ज़िम्मेवार ठहराया था। सरकार का कहना था कि छात्र राजनीति के नाम पर अपराधी लोग विश्वविद्यालय की छवि खराब कर रहे हैं, और उन्होने इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। इस अपराधीकरण को दूर करने के लिए इस समिति ने जो अपने सुझाओं की रिपोर्ट सौंपी वो दरअसल छात्रों को राजनीति से दूर करने का प्रयास मात्र जान पड़ रहा था और कुछ नही।

इस पूरे दौर में जे एन यू के छात्रों ने देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया और इसको लेकर वो माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी गये और अपना पक्ष जोरदार तरीके से रखा। हालाँकि इसमे उन्हे सफलता नही मिली मगर पूरे देश का युवा छात्र अब खुल कर इस मुद्दे पर अपनी बात रख रहा था। परिणामस्वरूप २००७ से २०१० तक यहाँ कोई छात्रसंघ का चुनाव भी नही हो सका। बहरहाल अब पुर देश में लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुकूल ही छात्रसंघ चुनाव संपन्न हो रहे हैं।

लिंगदोह लागू होने के बाद- छात्र राजनीति का बदलता स्वरूप

लिंगदोह समिति के क्रियान्वयन और अनुमोदन से छात्रों के समक्ष एक गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया। पहले जो छात्र राजनीति को अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहते थे वो अब वैसा कर पाने में सक्षम नही रह गये। नियमानुसार उनके छात्र जीवन के राजनीतिक कॅरियर की समय सीमा अब सीमित हो चुकी थी, जिसे वो ना चाहते हुए भी मानने के लिए बाध्य हैं।

खैर इसके लागू होने से सरकार की असल मंशा का पता अब साफ तौर पर चल चुका था। छात्र राजनीति को आपराधिकरण से मुक्त करने के नाम पे जिस तरह से उन्हें सुनियोजित तरीके से राजनीति से ही दूर करने की साजिश हो रही थी,का अब पर्दाफाश हो चुका था।

विगत वर्षों में हुए भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान के छात्रों का आंदोलन हो या हैदराबाद विश्वविद्यालय में हुए तथाकथित दलित शोधार्थी छात्र रोहित वेमूला द्वारा किए गये आत्महत्या से उपजा आक्रोश हो अथवा जे एन यू में इस साल ९ फ़रवरी की तथाकथित राष्ट्रविरोधी नारेबाज़ी से उपजे विवाद के फलस्वरूप हुए विरोध प्रदर्शन, इन सबसे एक बात तो साफ होती है कि हमारे देश का युवा छात्र राजनीतिक रूप से सजग व उद्वेलित है।

जून २०१४ में भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान के छात्रों ने गजेन्द्र चौहान को इसके निर्देशक बनाए जाने पे अपना कड़ा विरोध दर्ज कराया था। पहली बार पूर्ण बहुमत वाली दक्षिणपंथी विचारधारा की सत्तारूढ़ केंद्र सरकार को छात्रों के इस प्रकार के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा था। यह सिर्फ़ नियुक्ति का ही विरोध नही था बल्कि एक खास किस्म के दक्षिणपंथ की राजनीति का राजनीतिक विरोध भी था।

इसी कड़ी में अगला प्रतिरोध का स्वर हैदराबाद विश्वविद्यालय से उठा जब वहाँ के एक दलित शोध छात्र रोहित वेमूला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा। जब वहाँ के छात्रों ने इसका जबरदस्त विरोध करते हुए आंदोलन शुरू किया एवं इस घटना की निष्पक्ष जाँच की माँग की तो जो तथ्य सामने आए वो बहुत ही चौंकाने वाले थे। रोहित ने आत्महत्या नही की थी, उसकी तथाकथित सांस्थानिक हत्या हुई थी और इसके लपेटे में विश्वविद्यालय प्रशासन और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री तक की संलिप्तता पाई गयी थी।

हालाँकि अभी जे एन यू प्रक्रम में एक और बात सामने आई है। जहाँ जे एन यू को एक ओर मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है और वहाँ के छात्र सिर्फ़ हिन्दुस्तान के आंतरिक मुद्दे पे ही नही वरण पूरी दुनिया के शोषित वंचित तथा दबे कुचले लोगों के साथ अपनी आवाज़ उठाते रहे हैं, उनको वहीं के अंबेडकेरवादी छात्र संगठन के विरोध का जोरदार सामना करना पड़ रहा है। ९ फ़रवरी की घटना के उपरांत तीन छात्रों के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चला। सभी को तिहाड़ जेल भेजा गया। अभी फिलहाल तीनो ६ महीने की जमानत पे बाहर हैं। मगर इस घटना की विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा हुए जाँच में तकरीबन २० छात्रों को दोषी ठहराया गया और उन्हें जुर्माने के साथ निलंबन जैसी सज़ा भी सुनाई गयी। इसके विरोध में वहाँ के छात्र संघ ने आमरण अनशन भी किया।

जहाँ तक मेरा मानना है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय के आंदोलन और जे एन यू के आंदोलन में शुरुआती दौर में एक समानता उपजती दिख रही थी। मगर यह सूरतेहाल जल्द ही पलट गया। अंबेडकरवादी छात्र संगठन ने मार्क्सवादी विचारधारा के आंतरिक जाति व्यवस्था के ब्राह्माणवादी चरित्र तथा व्यावहारिक जातिगत आचरण पे भी खुलकर हल्ला बोल दिया है।
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“यह सही है कि खुद आंबेडकर ने ही कहा था कि वे कम्युनिस्टों के खिलाफ हैं। हालांकि आरएसएस को यह अच्छे से पता होगा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था क्यूँकि उन्होंने देखा कि वे उसी [आरएसएस] के कुल-खानदान से हैं- वे कम्युनिस्ट ब्राह्मण लड़कों का एक गिरोह थे जो मार्क्सवादी उसूलों की रटंत लगाते थे लेकिन जातियों की जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करते हुए ब्राह्मणवादी चरित्र दिखाते फिरते थे “-हतत्प://हाशिया.ब्लॉगस्पोट.इन/2015/07/ब्लॉग-पोस्ट_10.हटम्ल – बड़े बड़े झूठ: आनंद तेलतुंबड़े )

फिलहाल दोनो ओर से आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। यह एक नया अध्याय है इस देश की छात्र राजनीति का, जिसकी शुरुआत जे एन यू से हो चुकी है। अब देखना यह होगा कि सामाजिक संघर्षों की यह लड़ाई किस मोड़ पे क्या रुख़ अख्तियार करेगी।

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