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क्यों सरकारें आदिवासियों को सभ्य बनाने के लिए प्रयासरत है…

अरुणिमा सिंह:

Translated from english to hindi by Sidharth Bhatt.

अभी हाल ही में “फर्स्टपोस्ट” पर एक लेख पढ़ा, जो विकास की अवधारणा और उसे लेकर प्रचलित सोच की संकीर्णता का बहुत अच्छा उदाहरण है। इस लेख में दिए गए तर्क के अनुसार, किसी आदिवासी के मूलनिवासी होने के बाद भी उसका वहां की ज़मीन पर कोई अधिकार नहीं होता, इस प्रकार के तर्क वैश्विक स्तर पर विकास की परिभाषा को दर्शाते हैं, जहाँ विभिन्न संस्थान, सरकारें और पूंजीपति साथ मिलकर उन संसाधनों का चिंताजनक गति से दोहन कर रहे हैं, जिन पर असल हक़ उस क्षेत्र विशेष के मूलनिवासियों यानि की आदिवासियों का है। प्राकृतिक संसाधनों के इस अंधाधुंध दोहन के दौर में आदिवासियों को क्या मिलता है? पुनर्वास और मुआवजे के वायदे जो कभी भी सही तरीके से पूरे नहीं किये जाते। इन आधे अधूरे वायदों की कीमत उन्हें अपने घर, अपने आहार, अपनी संस्कृति और जीवनशैली को खोकर चुकानी पड़ती है, और मैं ऐसे संसार की कल्पना नहीं कर सकती जहाँ यह नीतिगत हो, या जहाँ इस तरह की सोच को प्रोत्साहित किया जाता हो।

मैं एक बात साफ़ और सीधे शब्दों में कहना चाहती हूँ, उन्हें यानि कि आदिवासियों को एक विशेष कानून की जरुरत है, जिससे ऊपर उल्लेख किया गया लेख बिलकुल भी सहमति नहीं दिखलाता। हम जब भी आदिवासियों के अधिकारों की बात करें तो हमें उनकी जीवनशैली और संसाधनों को ज़हन में रखना होगा। वो भले ही किसी अभ्यारण्य के संरक्षित प्राणी ना हों, लेकिन वो हमारे समकक्ष हैं, और उनकी ये बराबरी हम में से किसी को भी उन्हें उनके मूलस्थान से विस्थापित करने का अधिकार नहीं देती। लेकिन दुर्भाग्यवश ये भारत में हो रहा है

सरकार ना केवल आदिवासियों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर रही है, बल्कि वन अधिकार कानून के द्वारा आदिवासियों को दिए गए अधिकारों का भी हनन कर रही है। यदि तथ्यों की बात करें तो यह लेख वन अधिकार कानून को दरकिनार किये जाने के प्रयासों को भली-भाँति दर्शाता है।

इन सभी प्रयासों के पीछे कहीं ना कहीं सियासी हुक्मरानों का नीतिसंगत होने का भाव तो है ही और साथ में ये भी दिखाने की कोशिश है कि ये सब जनकल्याण और विकास के लिए किया जा रहा है। जानकारी के आभाव में इस मुद्दे को लेकर अधिकतर लोगों का रुख काफी उदासीन है। मूलनिवासियों की जरूरतें अधिकांश लोगों की सोच में प्राथमिकता पर तो छोडिए, वो कहीं दूर-दूर तक भी नहीं हैं। इस तबके के लिए मूलनिवासी एक “पिछड़े” समुदाय से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं जिन्हे “विकास” कि सख्त जरुरत है, और इस तथाकथित विकास के लिए उन्हें उनकी जीवनशैली छोड़ने पर विवश करने और उनकी जड़ो से काटने से अच्छा और क्या हो सकता है! हममें से ज्यादातर लोग श्रेष्ठता की उसी विचारधारा में जकड़े हुए हैं, जो ब्रिटिश राज में आदिवासी समुदायों को नियंत्रण में रखने और उन्हें “सभ्य” बनाने के विचार को जन्म देने के लिए जिम्मेदार थी।

यहाँ मैं अपना तर्क कुछ अलग तरीके से रखना चाहूंगी, वाराणसी जैसे कुछ शहर सबसे पुराने शहरों में से हैं, जहाँ शहर, घर और कई अन्य इमारतें समय के साथ कई बार बनाई गयी और उनमे परिवर्तन भी किये गए। आज के समय में ये शहर एक संकरी गलियों कि भूलभुलैया बन चुका है, जहां सड़कों कि हालत शायद इससे ज्यादा खस्ताहाल कभी नहीं रही होगी। इस तरह के शहरों को पहले से मौजूद पुरानी इमारतों, संकरी गलियों और जर्जर हो चुके घरों को गिराए बिना और विकसित करना लगभग असम्भव है। क्या कभी कोई सरकार इस तरह से एक शहर को गिराकर उसे नए सिरे से बसाने की बात सोच भी सकती है? क्या नेताओं को इस तरह के विकास के पक्ष में नारे लगते हुए और वहां के लोगों के पुनर्वास की बातें करते हुए कभी देखा गया है? क्या वाराणसी के लोग कभी भी अपने घरों को विकास के नाम पर आसानी से छोड़ने को तैयार होंगे?

नहीं, वो कभी भी इसके लिए तैयार नहीं होंगे। और इसका कारण केवल अपने घरों और ज़मीनो को खोना नहीं, बल्कि सरकार के मुआवजा देने की नीति की विश्वशनीयता पर लगा सवालिया निशान भी है।
ये समस्या और ज्यादा गम्भीर हो जाती है, क्यूँकि अनेक आदिवासी समुदाय अब भी प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्वक रह रहे हैं, और अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए उस पर निर्भर हैं। वो शहरी जीवनशैली के हिसाब से नहीं ढले हैं। उनसे ये सब छीन लेना एक तरह से उनकी पहचान छीन लेना है।

अनेक आदिवासी क्षेत्रों में सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, और सरकार बलप्रयोग (पुलिस, प्रशाषन और कानून) के द्वारा इन प्रदर्शनों और अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों का दमन कर रही है। इस तरह के प्रदर्शनों पर रिपोर्टिंग करना सरकारी रवैये की वजह से काफी मुश्किल हो चला है, सरकारी तंत्र इन मुद्दों को मुख्यधारा के लोगों तक पहुँचने और खबरों में आने से रोकने के लिए बड़ी सजगता से काम कर रहा है।

पिछले कई दशकों से अनेक राजनितिक दलों के लचर प्रशाषन और आदिवासी समुदायों के बीच चल रहे इस सतत संघर्ष में आदिवासियों को या तो भुला दिया गया है या फिर उद्योगपतियों के द्वारा उनके संसाधनों का मात्र दोहन किया जा रहा है, जो भारत के कई राज्यों में माओवाद के उभरने के मुख्य कारणों में से एक है, नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्र केवल बढ़ ही रहा है और सरकार के इस समस्या से निपटने के तरीकों की वजह से स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे मूलनिवासी समुदायों पर नजर रखने वाली संस्था सर्वाइवल इंटरनेशनल के डायरेक्टर स्टेफेन कोरी के अनुसार “औद्योगिक समुदाय, आदिवासी समुदायों के साथ नरसंहार की सीमाओं तक हिंसा का प्रयोग करते हैं, नस्लवाद और दासप्रथा का प्रयोग करते हैं ताकि विकास और सभ्यता के नाम पर वो उनकी प्राकृतिक सम्पदा, उनकी ज़मीनो को हथिया सके, और अपने संस्थानों के लिए श्रमिकों का इंतजाम कर सकें।”

“खोज” के समय की शुरुआत से ही आदिवासी क्षेत्र और आदिवासी, आक्रामक उपनिवेशीकरण का शिकार होते आएं हैं, उन्हें आदिम और पिछड़ा हुआ दिखाकर आक्रान्ता उनको क्रूर और नियोजित तरीके से विलुप्त करने को सही साबित करते आये हैं, और ये आज भी जारी है।

भारत में भी आदिवासियों के परिपेक्ष में स्टेफेन कोरी की बात सत्य है। विकास और प्रगति के नाम पर उनकी ज़मीने, जंगल, और जीवनशैली उनसे छीनी जा रही है, पर सवाल ये है कि कौन निर्धारित करेगा कि बड़े स्तर पर जनकल्याण के लिए क्या जरुरी है?

अगर हम उनकी ज़मीने, उनका जीवन जीने का तरीका छीन कर उन्हें इसके बदले में केवल खनन के बाद बची बंजर ज़मीनो या अधिकांश परियोजनाओं के बाद के दोषपूर्ण पुनर्वास के अलावा कुछ नहीं दे रहे हैं, तो हम अपने पूर्ववर्ती औपनिवेशिक स्वामियों से किस तरह से अलग हैं? इन लोगों को उनके घरों से खदेडने के लिए, उनकी प्राकृतिक सम्पदा को हथियाने के लिए हम कानूनों में फेरबदल करने को तैयार हैं, तरह-तरह की सफाइयां देने को तैयार हैं और जरुरत हो तो बल और दमनकारी नीतियों का इस्तेमाल करने को भी तैयार हैं।

हमें विकास और प्रगति जैसे शब्दों का एक बार फिर से आंकलन करने की जरुरत है, और ये भी सोचने की जरुरत है कि वैश्विक स्तर पर विभिन्न समुदाय के लोग इसे किस तरह से देखते हैं।

Read the English article here.

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