सआदत हसन मंटो केवल एक सर्वकालिक महान लेखक ही नहीं बल्कि समाज को चुनौती देने वाले एक क्रांतिकारी भी थे। वो अपने लेखन के ज़रिये लगातार ऐसी सच्चाइयों को सामने लाते रहे जिसका साहस कोई और नहीं कर पाया। उन्होंने समाज को लगातार आईना दिखाने का काम किया, जो ज़्यादातर लोगों को रास नही आया। उनका लेखन हमेशा समय और काल से परे सटीक और प्रभावशाली बना रहेगा जो उनकी नियति भी थी।
आकार पटेल के द्वारा उर्दू से अंग्रेजी में अनुवादित और सम्पादित निबंध संकलन “व्हाई आई राइट: एसेज बाय सआदत हसन मंटो (Why I Write: Essays By Saadat Hasan Manto)”, उनकी लेखन पर पकड़, और शैलियों के अलग-अलग रंगों जैसे व्यंग, कटाक्ष, आक्रामकता सभी को सफलता से एक साथ पिरोता है। इस संग्रह के सभी निबन्धों में से दो का पहली बार अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। आकार पटेल ने बेहद सूझ-बूझ और सुनियोजित तरीके के साथ निबन्धों का चुनाव किया है, जो मंटो के लेखन के अलग-अलग पहलुओं को सामने लेकर आता है और प्रत्येक निबंध पर दी गयी टिप्पणियां उत्कृष्ठ सन्दर्भ प्रदान करती हैं।
संग्रह के निबन्धों के साथ आगे बढ़ने पर ये समझा जा सकता है कि व्यवस्था से मंटो के संघर्ष ने उन्हें और उनके लेखन को किस तरह से आहिस्ते-आहिस्ते बदल दिया। विभाजन और उसके बाद भड़की हिंसा ने, मंटो और उनके लेखन की शरारत और ज़िदादिली को गूढ़ता में बदल दिया। लेकिन उनका वो तीखापन हमेशा उनके साथ रहा जो अंतिम समय में लिखी गयी लघुकथाओं में विषादपूर्ण व्यंग और कटाक्ष के रूप में सामने आया।
यह संग्रह युवा मंटो की उन हल्की और विनोदपूर्ण रचनाओं से शुरू होता है, जो एक हद तक निजी कही जा सकती है। ये रचनाएं 1930 के दशक के उस बम्बई शहर की झलकियां देती हैं, जब मंटो प्रेस और फ़िल्मी दुनिया में कार्यरत थे। कैसे वो पैसे बचाने के लिए दफ्तर में ही सो जाया करते थे, कैसे उनकी माँ ने सभी संभावनाओं के उलट उनके लिए एक वधु खोज निकाली थी, कैसे फिल्मी दुनिया के उस वक़्त के बड़े नाम उनकी शादी में शरीक हुए, जबकि बमुश्किल उन्हें उस वक़्त कोई जानता था और किस तरह उनकी पत्नी की वित्तीय चिंताओं ने उन्हें और अधिक लिखने के लिए मजबूर किया।
मंटो उस दौर के ज्वलंत मुद्दों का जैसा हास्यपूर्ण दृश्य बुनते हैं वह उनके लेखन को और प्रभावशाली और अविस्मरणीय बना देता है। ऐसे ही दो वाकयों में जिनमें वो हथियारों की होड़ की खिल्ली उड़ाते हैं, और उर्दू-हिंदी की चर्चा करते हैं, को पढ़ते वक़्त मैं मेट्रो ट्रेन में सफर करने के बावजूद भी खुद को हंसने से रोक नहीं पाया।
जिन मुद्दों में हास्य की गुंजाइश नहीं थी उन पर मंटो ने साफगोई और ईमानदारी से लिखा, बम्बई के हिन्दू-मुस्लिम दंगों पर उनके लेख इसका ख़ास उदाहरण है। दंगाइयों की भीड़ में फंसे और उस से बच जाने वाले लोगों पर लिखी कहानियां, जिंदगी और मौत की कश्मकश में जीत और हार की कहानियां, कुछ कहानियां इंसानियत और कुछ उसके क़त्ल की, और इन सबके बाद भी चलती रहने वाली जिंदगियों की कहानियां मंटो के लेखन की गम्भीरता का प्रमाण देती हैं। अपने लेखों में, उस दौर में हिंसा के लिए जिम्मेदार नेताओं को मंटो ने मुखरता के साथ आड़े-हाथों लिया है।
भारत-पाकिस्तान विभाजन के तुरंत बाद मंटो को बम्बई छोड़ कर पाकिस्तान जाना पड़ा। लेकिन उनके मन में बसने वाले शहर और देश को वो कभी छोड़ नहीं पाये।
बंटवारे के बाद लाहौर की सड़कों और गलियों में आये ऊपरी बदलावों से मंटो का मन बेहद दुखी था। लगातार हो रही हिंसा से पीड़ित लोगों को लगता था कि शायद देश के बंटवारे के बाद इस हिंसा का दौर ख़त्म होगा। लेकिन मंटो ने उसी वक़्त लोगों को आने वाले लम्बे “बर्बरता के दौर” को लेकर चेताया था। उन्होंने कहा था कि अगर हिंसा की मानसिकता से संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक तरीके से ना निपटा गया तो “बर्बरता का यह दौर” बेहद करीब है।
“ऊपर वाले का शुक्र मनाइए कि ना अब हमें शायर मिलते हैं, और ना ही संगीतकार”, खुले विचारों पर सरकार के नकारात्मक रुख पर उनका यह एक सटीक कटाक्ष था। तब उनकी कही गयी ये बातें, आज के समय में भी कितनी सही हैं, यह ज्यादा सोची जाने वाली बात नहीं है।
मंटो पर कई बार अश्लील लेखन के आरोप लगाए गए और उन्हें क़ानूनी कारवाही का भी सामना करना पड़ा। इसी तरह के एक मुक़दमे की बात करते हुए मंटो कहते हैं, उम्मीद है कि इस तरह के “अजीब” कोर्ट में किसी और को ना जाना पड़े। इस तरह के किस्सों में कहीं ना कहीं मंटो के लेखन में वही पुराना हास्य वापस आता दिखता है। वो पुलिस के साथ मजाक करते हैं, वो मुकदमों के दौरान यात्रा से होने वाली तकलीफों की शिकायत भी करते हैं और शराब मुहैय्या कराने का शुक्रिया भी अदा करते दिखते हैं।
नैतिकता के तथाकथित ठेकेदार हमेशा मंटो के पीछे पड़े रहे। “ओ ऊपरवाले इसे इस दुनिया से उठा लो, ये इस दुनिया के लायक नहीं है। ये तुम्हारी खुशबू को नकार चुका है। जब उजाला सामने होता है तो ये चेहरा फेर कर अँधेरे कोनों की तलाश में चला जाता है। इसे मिठास नहीं कड़वाहट में स्वाद मिलता है। ये गंदगी से सरोबार है। जब हम रोते हैं तो ये खुशियां मनाता है, जब हम खुश होते हैं तो ये मातम करता है। हे ईश्वर ये तुम्हे भुलाकर शैतान की इबादत करता है।”, मंटो अपने एक निबंध “दी बैकग्राउंड (the background)” में कुछ इसी तरह से अपने विरोधियों को दुआ करते हुए देखते हैं।
सवाल करने और सवाल सुनने की अनिच्छुक दुनिया के लिए मंटो कुछ ज्यादा ही सच्चे थे। उन्हें ये यकीन दिलाने की पूरी कोशिश की गयी, कि आप जो भी कर रहे हैं उसे भूल जाएँ। दुनिया से तालमेल ना बिठा पाने वाले मंटो ने खुद को शराब के नशे में डुबा दिया और केवल 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहा।
उनके निबंध एक बेहद प्रतिभाशाली, विनोदी, रचनात्मक, आशावान और भीतर से आहत इंसान की झलक दिखलाते हैं। वो एक ऐसे मानस की झलक देते हैं जिसने हमें झिंझोड़ने के लिए लिखा, हमे सदा अंतरमन के सतत क्षय को याद रखने को मजबूर किया।
हिन्दी अनुवाद – सिद्धार्थ भट्ट
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