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32 वर्षों से हो रही है इन्साफ की तलाश: क्या कहती है 84 के सिख दंगों पर एमनेस्टी की रिपोर्ट

Dal Khalsa and Sikh Students Federation activists hold placards as they block a train track during an anti-government protest in Amritsar on November 3, 2009. Several Sikh organizations marked the 25th anniversary of the 1984 anti-Sikh riots which led to hundreds of deaths in retaliation for then Indian Prime Minister Indira Gandhi's assassination by her Sikh bodyguards. AFP PHOTO / NARINDER NANU (Photo credit should read NARINDER NANU/AFP/Getty Images)

अभिषेक झा:

Translated from English by Sidharth Bhatt.

1984 के सिख दंगों में हुए नरसंहार पर जांच के लिए पिछले वर्ष फरवरी में गृह मंत्रालय द्वारा बनाई गयी स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम (SIT) के बारे में मानवाधिकार कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी के सदस्य एच.एस. फूलका नें 23-जून को इंडियन हैबिटैट सेंटर में एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के जस्टिस/इन्साफ 84 कॉन्क्लेव में कहा, “यह सब एक दिखावा है।” इस कार्यक्रम में कानून विशेषज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, और आकादमिक विशेषज्ञों के बीच इस विषय पर काफी सारी चर्चाएं हुई।

मानवाधिकारों के लिए काम कर रही इस संस्था नें इस कार्यक्रम का आयोजन, 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सिख अंगरक्षक द्वारा उनकी हत्या कर दिए जाने के बाद हुए सिखों के नरसंहार, जिसमें 3000 से 8000 सिख पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी गयी थी (विभिन्न आंकड़ों के अनुसार), पर ध्यान खींचने के लिए किया गया था। तीन सदस्यों वाली एस.आई.टी. का कार्यकाल अगस्त में समाप्त हो रहा है ऐसे में एक रिपोर्ट का आना निश्चित ही है, और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि और अधिक दोषियों पर आरोप साबित किये जा सकेंगे।

29-दिसंबर 2015 को दाखिल की गयी एक आर.टी.आई. (राइट टु इंफॉर्मेशन या सूचना का अधिकार) के जवाब में गृह मंत्रालय नें कहा कि एस.आई.टी., जैन-अग्रवाल कमिटी के द्वारा बंद कर दिए गए 18 मामलों और 36 अन्य फाइलों पर जांच कर रही है। एस.आई.टी. पर एमनेस्टी की रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले वर्ष दिसंबर में दाखिल आर.टी.आई. के जवाब में बताए गए ऐसे किसी भी मामले पर कोई केस दर्ज नहीं किया गया है।

एमनेस्टी के इस कार्यक्रम में सिख नरसंहार की भयावह यादें फिर ताज़ा हो गयी, वहीं इस कार्यक्रम के संचालक और पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय नें, चर्चाओं को- प्रभावितों को इन्साफ दिलाने पर केंद्रित करने पर ज़ोर दिया। जस्टिस राजिंदर सच्चर और जस्टिस अनिल देव सिंह के साथ पैनल में चर्चा कर रहे जस्टिस मार्कण्डेय काटजू नें कहा कि, “न्यायपालिका पीड़ितों को न्याय दिलवाने में असफल रही है“, और अब उन्हें इसके लिए इस प्रकार के विशेष न्यायालय बनाने चाहिए जहां पी.आई.एल. (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन या जनहित याचिका) दायर की जा सके। जस्टिस सिंह नें इस बात का उत्तर देते हुए कहा कि न्यायपालिका सुबूत लेकर नहीं आ सकती, पिछले 31 सालों से पुलिस इसकी जांच करने में सफल नहीं हुई, जब “पुलिस का रवैया ही उपेक्षापूर्ण है” तो ऐसे में न्यायपालिका को दोष नहीं दिया जा सकता। “वो कौन लोग हैं जो पुलिस के पीछे हैं? पुलिस क्यों सुबूत नहीं तलाश पाई।” जस्टिस सच्चर नें कहा, “हम (न्यायपालिका) जहाँ नाकामयाब हुए वो सबसे ऊपर की अदालतें हैं”, इन सब तर्कों के बीच, बीच का रास्ता खोजने पर काफी गरमा-गरम बहस हुई। 1984 के दौरान दिल्ली के सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट के डिप्टी पुलिस कमिश्नर रहे रहे आमोद कांत नें बाद में दावा किया कि जहां पुलिस नें अपना काम किया वहां कम लोगों की मौत हुई, और उनकी सतर्कता की वजह से, वो सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट में नरसंहार को सीमित करने में सफल रहे।

सिख नरसंहार के पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलाने के लिए बनाए गए विभिन्न आयोगों के ऐसा कर पाने में असफल रहने पर अफ़सोस जताते हुए पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता कुलदीप नायर नें कहा, “आज तक हिन्दुओं नें अपनी करनी का प्रायश्चित नहीं किया हैं”, इसी में आगे जोड़ते हुए उन्होंने कहा, “यह हिन्दुओं की अंतरात्मा पर एक प्रश्न है, और उन्हें इसके लिए सुधार करना होगा।” राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य तरलोचन सिंह नें कहा जहाँ आज भी  नाज़ी जर्मनी के कैम्प जहाँ यहूदियों को रखा जाता था, के पूर्व में गार्ड रहे लोगों को दोषी करार दिया जा रहा है, वहीं सिख दंगों के लिए जिम्मेदार सरकारी और पुलिस अफसर अपना पूरा जीवन जी रहे हैं।

वहीं फूलका का मानना है कि ’84 के सिख दंगे कोई साम्प्रदाइक दंगे नहीं, बल्कि कांग्रेस समर्थकों द्वारा सिखों के खिलाफ आयोजित एक नरसंहार था।’ उन्होंने कहा बिलकुल यही तरीका चुनावों में मतदाताओं की भावनाओं का फायदा उठाने के लिए 1993 में मुंबई और 2002 में गुजरात में अपनाया गया। उन्होंने आगे कहा, “यह मॉडल अब सब जगह आजमाने की कोशिशें की जा रही हैं।” और अगर इस चलन पर गौर नहीं किया गया तो, “किसी को भी निशाना बनाया जा सकता है।” आकादमिक विशेषज्ञ दिलीप सिमॉन नें कहा कि उस वक़्त देश के ज्यादातर लोगों की प्रवृत्ति “नरसंहार में हिस्सा लेने की थी।” उन्होंने कहा कि सिविल सोसाइटी को इस बात को मानने की जरुरत है कि अधिकांश लोगों को इस नरसंहार में कुछ गलत भी नहीं लगा। उस वक़्त “कितने मारे?” एक आम बात थी जो लोग एक दूसरे से पूछा करते थे।

एक “राजनैतिक पैनल” में चर्चा के दौरान आम आदमी पार्टी के फूलका और शिरोमणि अकाली दल के मंजीत सिंह के बीच तीखी नोक-झोंक भी हुई। मंजीत सिंह नें कहा कि 32 वर्षों के बाद अब पीड़ितों नें उन यादों को भुलाना शुरू कर दिया है, तो इसके जवाब में फूलका नें कहा कि भाजपा से गठजोड़ कर लेने के बाद उनका (सिंह का) मत बदल चुका है। सिंह नें जवाब देते हुए कहा कि वो केवल यह कहना चाहते हैं कि पीड़ितों को जल्द से जल्द न्याय मिलना चाहिए। उन्होंने आम आदमी पार्टी के कांग्रेस के साथ दिल्ली में 49 दिनों की गठबंधन सरकार को लेकर फूलका पर सवालिया निशान भी लगाए।

मुजफ्फरनगर दंगों पर आरोपियों की जवाबदेही तय करने की असफलता और आज-कल शामली जिले के कैराना से हिन्दू परिवारों के पलायन की अफवाहें फ़ैलाने पर बात करते हुए आम आदमी पार्टी के पूर्व सदस्य योगेन्द्र यादव नें कहा, “हम लोग यह सन्देश देने में असफल हुए हैं कि यदि आपके हाथ खून से रंगे हैं तो आपका राजनैतिक कैरियर ख़त्म हो जाएगा।” उन्होंने आगे कहा, “हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे अनकहे,बहुसंख्यक समर्थन प्राप्त किसी विषय पर कुछ किया जा सके।” उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद ख़त्म हो जाने के बाद बनी ट्रुथ एंड रीकॉनसिलशन कमीशन की तरह एक संस्था भारत में भी बनाए जाने की बात कही। उन्होंने सुझाव देते हुए कहा, “हमें आने वाली पीढ़ियों को भारत में हुए नरसंहारों और दंगों के बारे में सिखाने के लिए शिक्षण संस्थानों पर काम करना होगा।”

इस कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता और वकील वृंदा ग्रोवर, पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन, हरतोष बाल, सीमा मुस्तफा, और हरमिंदर कौर, एक्टर सविता भट्टी और प्रोफेसर ए. एस. नारंग नें भी अपनी बात रखी।

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