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मेरी सेरिब्रल पाल्सी मुझे सीमित नहीं करती मेरा शहर करता है

जब भी मेरे माता-पिता मुझे कॉलेज तक छोड़ जाते हैं तो मुझे बेहद तसल्ली मिलती है। ऑटो रिक्शा लेकर कहीं जाने जैसे साधारण से काम के बारे में सोच कर भी मुझे डर लगने लगता है। मैं कभी-कभी सोचती हूं कि क्या मैं कभी भी अपने शहर दिल्ली में खुद से अकेले सफर कर पाऊंगी? हमारे देश की राजधानी में मेरे जैसे लोगों के लिए ना तो आम सुविधाओं तक पहुंच आसान है और ना ही इसे लेकर अन्य लोगों में संवेदनशीलता है। एक ओर जहां मैं अपनी शारीरिक सीमितताओं से बंधी हूं, वहीं दूसरी ओर मेरा संघर्ष उन लोगों के साथ है जो ये नहीं समझते कि मेरी शारीरिक सीमितता केवल शारीरिक है।

मुझे सेरिब्रल पैल्सि (मानसिक पक्षाघात) है। यह एक ऐसी शारीरिक अवस्था है जिसमें, इससे प्रभावित व्यक्ति अपनी मांसपेशियों को सामान्य और सुचारु रूप से प्रयोग नहीं कर सकता। यह मुझे सीमित कर सकता है पर रोक नहीं सकता।

इस अवस्था से लड़ने की इच्छाशक्ति को मैंने अपने पहले स्कूल और दूसरे घर- ए.ए.डी.आई. (एक्शन फॉर एबिलिटी डेवेलपमेंट एंड इन्क्लूजन) में आत्मसात किया। ये वो जगह थी जहां मैंने ज़िंदगी की छोटी-छोटी और साधारण चीजें सीखी। जैसे किसी से हाथ मिलाने के लिए हाथ कैसे बढ़ाना है, ये ऐसी चीजें हैं जो कोई स्कूल हमें नहीं सिखाता। यहां अध्यापक हमारी सीमितताओं को समझते हैं, लेकिन वो जानते हैं कि हमारी कोई सीमायें नहीं हैं।

यहां आकर मैंने सीखा कि मैं खुद आत्मनिर्भर बन सकती हूं, शारीरिक रूप से ना सही तो मानसिक रूप से तो मैं अन्य बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर ही सकती हूं। ए.ए.डी.आई ने मेरे अंदर आत्मविश्वास का संचार किया, मेरे ऊपर मुझसे भी अधिक विश्वास जताया। गाना हो, अभिनय हो या मंच पर आकर सम्बोधित करना मैंने यह सब इस स्कूल में ही किया और मुझे मंच पर अपना शानदार प्रदर्शन अब भी याद है। उनके सहयोग से मुझे सेंट मैरी नामक एक दूसरे स्कूल में जाने का मौका मिला जहां (सामान्य बच्चों के साथ) सम्मिलित शिक्षा दी जाती है।

सेंट मैरी स्कूल का अनुभव बिलकुल अलग था। यहां मुझे अपने हमउम्र कई अन्य बच्चों से मिलने और उनसे बातें करने का मौका मिला, जिसने मुझे अपनी क्षमताओं को और विकसित करने के लिए प्रेरित किया। सेंट मैरी के मेरे दस सालों के अनुभवों ने मेरे आज के व्यक्तित्व को ढाला है। एक ऐसी साहसी युवा लड़की जो अपने आस-पास के लोगों के सामने अपने विचारों की अभिव्यक्ति से नहीं घबराती।

जब भी मैं कॉलेज के गेट पर होती हूं तो मुझे मेरे ‘अंदर‘ और ‘बाहर‘ की दुनिया का फर्क साफ-साफ समझ आता है। एक ऐसी दुनिया जो मुझे जानती है, मेरी कमज़ोरियों के साथ-साथ मेरी मजबूतियों को भी समझती है, वो समझती है कि मैं सक्षम हूं। लेकिन, बाहर की उस दूसरी दुनिया के लिए मैं कुछ भी नहीं हूं और मुझे आश्चर्य होता है कि यह बाहर की दुनिया क्यों फिक्र नहीं करती? क्यों यह मेरे दोस्त, परिवार, स्कूल और कॉलेज से बनी मेरी इस अंदरूनी दुनिया की तरह संवेदनशील और विश्वास बढ़ाने वाली नहीं है?

विवेकानंद कॉलेज के मेरे दोस्त एक वरदान कि तरह हैं, वो मुझे एक क्लास से दूसरी क्लास तक जाने में, कैंटीन जाने में या मुझे जहां भी जाना होता है उसके लिए मदद करते हैं। मेरी शारीरिक सीमाओं के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने कभी भी मुझे साथ ले जाने में कोई संकोच किया हो। पहले मैं व्हीलचेयर का इस्तेमाल करती थी और कॉलेज में बेहतर रैंप और लिफ्ट की सुविधा होने पर भी मेरे दोस्तों के लिए एक भारी व्हीलचेयर को खींचना काफी मुश्किल होता था। इसको देखते हुए मैंने खुद से चलने का फैसला किया हालांकि ये काफी मुश्किल था।

मेरे कॉलेज के अध्यापकों ने भी मुझे एक क्लास से दूसरी क्लास तक जाने में काफी मदद की, और अगर मेरी क्लास भूतल पर ना हो तो उन्होंने मेरे लिए प्रयास भी किये। मेरे लिए मेरे अध्यापक खास हैं। शुरुवात में उन्हें मुझे समझने में दिक्कतें आ रही थी, लेकिन उन्होंने मुझे जानने के लिए और अधिक प्रयास किये। मुझे ये बताते हुए बेहद खुशी होती है कि मेरे अध्यापक अधिक समय लेने पर भी मेरे विचारों को सुनते हैं।

जब भी मैं बाहरी दुनिया के बारे में सोचती हूं तो मेरा मन बैठ जाता है। बहुत सारे सार्वजानिक स्थलों पर रैंप की सुविधा नहीं हैं और जहां है वहां उनकी हालत ठीक नहीं है। इसी का एक उदाहरण देते हुए बताना चाहूंगी कि एक दिन मैं कुछ दोस्तों के साथ जब बाहर गयी तो ऐसे ही एक रैंप के अंत में एक बड़ा कचरे का डब्बा रखा था, जिसकी वजह से मेरी व्हीलचेयर को वहां से लेकर जाना संभव नहीं हो पाया। एक और जगह पर रैंप तो अच्छा बना था लेकिन उसके एक किनारे पर बनी काफी सारी छोटी-छोटी दुकानों ने एक बड़ा हिस्सा घेर लिया था।

रैंप तो बनाए जाते हैं लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए इतना ही काफी नहीं है। कभी-कभी कुछ जगहों पर व्हीलचेयर के लिए लिफ्ट तो होती हैं पर लिफ्ट तक पहुंचने के लिए भी चार सीढ़ियां पार कर के जाना होता है। इस स्थिति में एक व्हीलचेयर का प्रयोग करने वाला कैसे लिफ्ट तक बिना रैंप के पहुंच सकता है? इन परेशानियों और आम सुविधाओं-सेवाओं की अप्राप्यता के कारण बहुत सारे ऐसे मौके आते हैं जब मैं अपने दोस्तों के साथ नहीं जा पाती हूं।

आपको जरूर ऐसा लगता होगा कि व्हीलचेयर से मॉल में एक जगह से दूसरी जगह जाना आसान होता होगा, क्यूंकि इनका निर्माण सभी के बारे में सोचकर किया जाता है, एक हद तक यह बात सही भी है। इसके बावजूद मुझे एक दिन लिफ्ट में जाने के लिए एक घंटे तक इंतज़ार करना पड़ा क्यूंकि अन्य लोग लिफ्ट में आते रहे ऐसे में मेरी व्हीलचेयर का लिफ्ट में जाना संभव ही नहीं था।

जहां रैंप और लिफ्ट एक ज़रूरी आधारभूत सुविधा है वहीं लोगों को और अधिक संवेदनशील बनाने की भी ज़रूरत है। मेरे दोस्त, मेरे स्कूल और कॉलेज के साथी और वो सभी लोग जो मुझसे जुड़े हैं, मेरी वजह से उनकी संवेदनशीलता बढ़ी है और वे मानते हैं “देश के हर कोने में मुझ जैसे लोगों समेत सभी को आम सुविधाओं-सेवाओं की प्राप्यता होनी चाहिए।

मैं दिल्ली में ही पैदा हुई और यहीं पली बढ़ी हूँ, मुझे यह देख कर बेहद तकलीफ होती है कि मेरे शहर के विकास में मुझे और मेरी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। लेकिन मेरी दिली इच्छा है कि एक दिन दिल्ली देश का पहला ऐसा शहर बने जहां आम सेवाओं-सुविधाओं तक सभी की पहुँच हो। मुझे उम्मीद है कि एक दिन मैं बेफिक्र होकर अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने या खरीददारी के लिए जा पाऊंगी।

मेरे और भी कई सपने हैं। मैं एक लेखक और कवि बनना चाहती हूं। मैं खुद अपने बूते पर इस पूरी दुनिया को देखना चाहती हूं। मेरा एक और सपना है, वापस मंच पर प्रदर्शन करने का। मैं और भी नृत्य करना चाहती हूं क्यूंकि इससे मुझे खुशी मिलती है, नृत्य करते हुए हर पल मुझे लगता है कि जैसे मैं शारीरिक, सामाजिक और मानसिक सभी बंधनों से आज़ाद हो चुकी हूं। मेरे सभी संघर्षों के बावजूद मैं ये कहना चाहती हूँ कि मेरी जिंदगी मेरे लिए एक राग कि तरह है जो मैं हर दिन प्रसन्नता से गाती हूँ।

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हिन्दी अनुवाद: सिद्धार्थ 

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