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क्यों जामिया का स्कॉलर साइकल से घूम रहा है चम्बल?

प्रशांत झा:

‘उन तेज़ आँधियों में हमने जलायें हैं चिराग
जो हवाएं पलट देती हैं चिराग़े अक्सर’
– शाह आलम

किसी मुल्क़ में जब क्रांतियों का इतिहास लिखा जाता है, तब गढ़े जाते हैं कुछ नायक, और इसी क्रम में स्याही नहीं रंग पाती किताबों को, कुछ ऐसे वीरों से जिन्होंने अपने ख़ूँ से जलाये रखा था क्रांति मशाल को।
कालान्तर में जन्म लेता है कोई और क्रांतिकारी जो ना सिर्फ पढ़ता है बल्कि खंगालता है इतिहास, और गुमनामी के अंधेरे से खींच के लाता है उन शौर्य के अधिकारियों को।

मिलिए ऐसी ही एक युवा प्रेरणा शाह आलम से। यूपी के बस्ती के शाह, पिछले एक दशक से युवा पीढ़ी को बस चंद यादाश्तों और ज़ुबानों तक सिमट चुके क्रांतिकारियों से मिलवाने का अथक प्रयास कर रहे हैं।

जामिया मिलिया इस्लामिया में रिसर्च स्कॉलर रहे शाह ने लंबे समय तक अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, चंद्रशेखर आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के जीवन को ना सिर्फ नज़दीक से जाना बल्कि उनकी साझी संस्कृति से हर पीढ़ी को जोड़ने का सराहनीय प्रयास किया।

इसी क्रम में शाह ने अब रुख किया है चम्बल के बीहड़ का, क्रांति के एक और महानायक गेंदालाल दीक्षित को, गुमनामियों के अँधेरे से निकालने और इतिहास के पन्नों में उचित स्थान दिलाने के लिए।

उल्लेखनीय है कि शाह इस क्रम में औरैया, जालौन, इटावा, भिंड, मुरैना और धौलपुर के ग्रामीण इलाकों की यात्रा अपनी साइकल से कर रहे
हैं। बारिश, प्रचंड गर्मी, धूल भरी आंधी और बीहड़ के अजेय पहाड़ी रास्तों के बीच शाह, साइकल पर 600 किमी. से ज़्यादा पैडल मार चुके हैं।

गेंदालाल दीक्षित के बारे में-

एक स्कूल टीचर गेंदालाल दीक्षित को अपनी ही सरज़मीं के संपन्न और रसूकदार लोगों के, समाज के प्रति उदासीनता ने क्रांति का रास्ता दिखाया, और फिर नींव रखी गयी उत्तर भारत के पहले क्रांतिकारी संगठन मातृवेदी संगठन की। गेंदालाल दीक्षित समेत संगठन के 35 क्रांतिवीर अंग्रेज़ो से लड़ते हुए मुखबिरि का शिकार हो गए और भिंड के जंगलों में शहीदी को प्राप्त हुए। गेंदालाल कितने बड़े क्रांतिकारी थे और उन्होंने कितना मज़बूत संगठन बनाया था, इसका अंदाजा इस बात से भी होता है कि 1916 में ब्रिटिश हुकूमत ने गेंदालाल दीक्षित पर 5 लाख रुपये का ईनाम रखा था।

1916 में बनाये गए मातृवेदि संगठन के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में ही जनजागृति के लिए शाह ने 29-मई से औरैया से इस साइकल यात्रा की
शुरुआत की और इसे नाम दिया चम्बल संवाद।

अभी कैसा है बीहड़-

जालौन के जिलाधिकारी के साथ मुलाकात की तस्वीर

शाह आलम अपनी इस यात्रा के दौरान बीहड़ की आबादी के साथ विकास के नाम पर हो रहे अन्याय को राष्ट्र पटल पर लाने का भी अभूतपूर्व काम कर रहे हैं।

शाह नें बातचीत में बताया कि विकास का आलम ये है कि औरैया, जालौन, इटावा, भिंड, मुरैना और धौलपुर इन छे (6) ज़िलों में मिलाकर एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है।

बकौल शाह “प्रकृति की मार, डाकुओं की ललकार और सरकार की दुत्कार बीहड़ की नियति बन कर रह गई। नतीजतन आज भी बीहड़ के लोग विकास की आस में तिल-तिल कर मर रहे हैं।” शाह इस दौरान कई सूखाग्रस्त किसानों से भी मिलें और उनकी आवाज़ को उनके साथ मिलकर अधिकारियों तक पहुंचाया।

शाह के बारे में थोड़ा और-

शाह बताते हैं कि एक साइकल के अलावा वो एक मल्टी प्वाइंट चार्जर और एक बैग के साथ निकले थे, रास्ते में लोग और उनकी परेशानियां मिलती गयी और सफ़र चलता रहा।

शाह डोक्युमेंट्रीज़ के ज़रिये भी स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत से देश को लगतार रूबरू करवा रहे हैं। शाह आलम ने साल 2006 में ‘आवाम का सिनेमा’ नाम से संस्था बनाई और पिछले एक दशक से संगीत, लोक नृत्य, फिल्मों, चित्र प्रदर्शनी, कविता पोस्टर, मार्च, क्रांतिकारियों की जेल डायरी, पत्र, तार, मुकदमे की फाइल और महत्वपूर्ण दस्तावेजों की प्रदर्शनी के ज़रिये हर पीढ़ी को ऐसे तथ्यों से अवगत करवा रहे हैं जिनकी चर्चा आम होनी चाहिए थी। लेकिन वो अब तक किसी रौशनी का इंतज़ार कर रहें थे।

इस पूरे क्रम में शाह आपको कुछ ऐसे दिलचस्प तथ्यों से रूबरू करवा सकते हैं, जो शायद आप पहली दफा में मानने से इनकार कर दें, लेकिन दस्तावेजों और सुबूतों की मौजूदगी आपके पॉप्युलर बिलीफ पर चोट करती है। मसलन महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी आखिरी गोली से खुद को नहीं मारा, बल्कि उनकी शहादत के बाद उनके पास से 16 गोलियां बरामद हुई, या ये कि अद्वितीय क्रान्ति गीत ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा नहीं बल्कि गाया था।तो शाह एक साथ तीन समानांतर काम को अंजाम दे रहे हैं-

1) आज़ादी के ग़ुमनाम वीरों को पहचान दिलाना।
2) चम्बल के बीहड़ में संघर्ष करते जीवन का दर्द सबके सामने लाना।
3) हमारे आज़ादी के इतिहास की समझ को सही करना।

अब ज़रा लेख और कल्पना की सहूलियत से निकल कर बीहड़ के बंज़र पर खुद को समाज के लिए समर्पित कर के देखिये, और तब लेख के शुरुआत में शाह द्वारा लिखी हुई दोनों पंक्तियों को यथार्थ मानिए। और अब सलाम भेजिए ऐसे जुनून, ऐसी सादगी और अपनी माटी के लिए इस समर्पण को।

कैसे जुड़ें शाह से?

शाह को आपसे, हमसे कुछ नहीं चाहिए, हाँ अगर इस साइकल वाले झोला छाप पत्रकार की कोशिशों में आपको सच्चाई नज़र आये तो इनके मुहिम से जुड़ते चलिए और हिम्मत दीजिये इस अटूट हौसले को। और इस मुहिम से जुड़ने का तरीका भी शाह आपको बता रहे हैं, पढ़िए-
“हमारी मदद कैसे करें?
-बीहड़ की कठिन ज़िंदगी का अनुभव बताकर
-बीहड़ में रुकने की जगह और खाना खिलाकर
-जंग-ए आज़ादी के स्मारक/निशान दिखाकर
-ब्लाग, फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप, ईमेल, यू ट्यूब के मार्फत और लोगों को जानकारी देकर
-यात्रा के दौरान आजादी से जुड़े प्रमुख स्थानों की फोटो, वीडियो को आमजन तक पहुंचाने के लिए विभिन्न माध्यमों में सुलभ कराने के लिए

आर्थिक और श्रम का सहयोग देकर
-जमीनी स्तर पर जनसहभागिता बढ़ाकर/ अपने सुझाव देकर/संवाद श्रृंखला का आयोजन करके
-लेख लिखकर, संपादक के नाम पत्र, प्रेस कान्फ्रेंस, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मार्फत

संपर्क: +91 9454909664,
ईमेल:shahalampost@gmail.com
facebook.com/AwamKaCinema ”

‘शाह’ की इस फ़क़ीरी को सलाम।

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