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दिल्ली के नशामुक्ति केन्द्रों के हालात पर YKA की ग्राउंड रिपोर्ट

शब्बीर (बदला हुआ नाम) पेशे से ड्राइवर है, उसकी शादी करीब पांच महीने पहले हुई है। लेकिन एक राज़ ऐसा है जो शब्बीर ने अभी तक अपनी पत्नी से छुपा कर रखा है। जब मैं उससे मिला तो मजबूत कद काठी का यह युवक दिल्ली गेट के पास दिल्ली सरकार द्वारा संचालित जी.बी. पंत नशा मुक्ति केंद्र में अपना इलाज करा रहा था। इस केंद्र में काम करने वाले एक कर्मचारी ने बताया कि यहां मरीज़ों को लंबे समय तक भर्ती किये जाने की सुविधा है, लेकिन यह केवल एक डॉक्टर ही निर्धारित कर सकता है। एक मरीज़ को किसी डॉक्टर से मिलने के लिए किसी न किसी को साथ लेकर आना ज़रूरी होता है, जो बहुत सारे मामलों में नशे के शिकार लोगों के लिए बेहद मुश्किल हो जाता है।

शहर में नशे के शिकार लोग:

शब्बीर को स्मैक के नशे की आदत है। उसे इस आदत के कारण सामान्य रहने के लिए, एक दिन में स्मैक से भरी कम से कम चार से पांच सिगरेट की ज़रूरत होती है। दिल्ली गेट के पास पुरानी दिल्ली में रहने वाले शब्बीर को यहां स्मैक बड़ी आसानी से मिल जाती है। शब्बीर बताते हैं कि उनको भूख लगना लगभग पूरी तरह से बंद हो गई है और उन्हें रातों में नींद भी नहीं आ पाती है, केवल स्मैक के सेवन से ही उन्हें आराम मिलता है। शब्बीर ने इससे पहले एक निजी नशामुक्ति केंद्र में एक हफ्ता गुज़ारा लेकिन वह उन्हें संतोषजनक नहीं लगा, जिस कारण उन्होंने वहां जाना जल्द ही बंद कर दिया। शब्बीर ने बताया, “इस तरह के नशामुक्ति केंद्र और भी ज़्यादा बद्तर हैं, क्यूंकि वहां जाकर आप नशीली दवाओं के बारे में और अधिक जान लेते हैं और एक नशे के ना मिलने पर उसकी जगह किसी और चीज़ से नशा करने लगते हैं। इन जगहों पर यही सब होता है।”

इसी केंद्र में मेरी मुलाकात बिट्टू (बदला हुआ नाम) नाम के एक किशोर से हुई। बिट्टू के माता-पिता को उसकी गांजे की लत का पता चलने बाद उसने दिल्ली के एक निजी नशामुक्ति केंद्र में लम्बा समय बिताया। बिट्टू इस सरकारी नशामुक्ति केंद्र में अपनी स्थिति में और सुधार के लिए वहां अपनी बड़ी बहन के साथ आया हुआ था। उसकी बड़ी बहन ने बताया कि इस दौरान बिट्टू की हालत में काफी सुधार हुआ है, उन्होंने आगे कहा, “पहले ये छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाया करता था, लेकिन अब ये पहले से काफी शांत हो गया है।”

हालांकि मुझे बिट्टू थोड़ा उदास और गुमसुम सा दिखा। जब उसकी बहन केंद्र में अन्य मरीज़ों के साथ व्यस्त सहायकों से बात कर रही थी, तब मुझे बिट्टू ने बताया कि शुरुआत में उसे इस जगह से नफरत थी, लेकिन धीरे-धीरे उसने खुद को ढालना शुरू कर दिया। उसने कहा, “शुरुआत के कुछ दिन मैं बहुत रोया, लेकिन मेरे पास यहां आने के सिवाय कोई और चारा नहीं था।” जैसा कि अधिकांश नशामुक्ति केंद्रों में होता है, पहले 40 दिनों तक उसे भी अपने माता-पिता से मिलने की इजाज़त नहीं थी।

उसने आगे बताया कि उस निजी केंद्र का खाना बेहद खराब था, लेकिन मजबूरी में उसे वही खाना, खाना पड़ा। बिट्टू ने बताया, “नशा छोड़ने के शुरुआती दिनों में होने वाली टूटन, सरदर्द या बुखार के लिए भी वो कोई दवा नहीं देते हैं, आपको बस उसे सहना होता है। वो कहते हैं कि ये सब हमारे दिमाग का वहम है।”

नशामुक्ति केंद्र के अन्य मरीज़ों के साथ उसके दिन भी इस प्रकार के केंद्रों में एक ‘ज़रूरी’ किताब को पढ़ते हुए गुज़रते थे। विभिन्न सूत्रों से मुझे पता चला कि इस किताब में नशे के आदी रहे लोगों के अनुभव लिखे होते हैं। इस किताब में साल के 365 दिनों के बारे में बताया जाता है कि किस तरह से इस समयावधि में नशे की लत से छुटकारा पाया जा सकता है। बिट्टू ने बताया कि केंद्र में अन्य लोगों के साथ अपने अनुभव बांटने को भी काफी बढ़ावा दिया जाता था। उसने बताया कि इसके अलावा उन्हें सफाई या रसोई में मदद करने जैसे छोटे-मोटे कामों में व्यस्त रखा जाता था।

एक खुला रहस्य:

दिल्ली की सीमा पर बसे जहांगीरपुरी इलाके में नशीली दवाओं के दुरुपयोग और एच.आई.वी. का खतरनाक मिश्रण कई मामलों में देखने में आता है। यह मेहनतकश कामगार लोगों की बस्ती है, जिनमें कचरा बीनने वाले, सपेरे और पास में स्थित आज़ादपुर सब्ज़ीमंडी में काम करने वाले लोग रहते हैं।

यह एक जाना-माना तथ्य है कि यहां रहने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या हर रोज़ की कड़ी मेहनत से होने वाली थकान और तकलीफ से राहत पाने के लिए नशीली दवाओं का सेवन करती है। इस इलाके की कई दवा की दुकानों से बिना डॉक्टर के पर्चे के आसानी से मिल जाने वाली दवाओं से स्थिति और खराब हो गयी है।

पिछले वर्ष, मैं इस इलाके में गया और मैंने देखा कि किस तरह यहां खुलेआम और बेधड़क यह काम किया जा रहा था। मैंने बड़ी आसानी से एक कचरा बीनने वाले से दोस्ती कर ली जो नशे का आदी था और मुझे केवल 120 रुपये में नशे का सामान खरीदने को मिल गया। इसमें एक सिरिंज, एक सुई और नशीली दवा बूप्रेनॉरफाइन थी।

इस इलाके में बड़े पैमाने पर फैली इस समस्या पर पहले भी ख़बरें आ चुकी हैं, जो केवल जहांगीरपुरी तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि इससे भी आगे बढ़ती जाती है। लेकिन किसी अन्य क्षेत्र में यह स्थिति यहां जितनी गम्भीर नहीं है।

लेकिन दिल्ली सरकार द्वारा इन इलाकों के और खासकर जहांगीरपुरी के लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ देना ज़्यादा डराने वाली और चिंताजनक स्थिति है।

निजी नशामुक्ति केंद्रों के बारे में और जानकारी पता करने के लिए मैंने जहांगीरपुरी की एक दीवार पर लगे एक पोस्टर पर लिखे मोबाइल नंबर पर कॉल किया। इस तरह के इश्तेहार मैं यहां कई और दीवारों पर लगे हुए देख चुका था।

इलाज: कोई उम्मीद नहीं, शायद ‘प्यार’

मेरा फ़ोन उठाने वाले व्यक्ति में मुझे इस केंद्र तक पहुंचने का रास्ता बताया जो कि नरेला में स्थित है। उनसे केंद्र के बारे में जानने उसे देखने और कुछ अन्य सवाल-जवाब करने के लिए, मुझे खुद को एक नशे कि आदत के शिकार के परिचित के रूप में पेश करना पड़ा। उसने मुझसे पूछा कि मैं क्या काम करता हूं- शायद वो यह पक्का करने की कोशिश कर रहा था कि मेरे पास केंद्र की सुविधाओं के भुगतान के लिए पैसे हैं।

अगर रजत वर्मा (बदला हुआ नाम) को मेरी बताई बातों पर यकीन नहीं भी हुआ तो भी जिस दिन मैं उनसे मिला उन्होंने मुझसे इस तरह की कोई बात नहीं कही। वो एक दुबले-पतले शरीर वाले व्यक्ति थे, चेहरे पर हल्की दाढ़ी और तीखी आंखें- एक नशे के आदी की तरह, जो खुद उनके अनुसार वो कुछ वर्ष पहले तक थे भी। वो मुझे अपने छोटे से दफ्तर में मिले जिसके पीछे नशे की समस्या से लड़ रहे लोगों को रखा जाता था। उसका दरवाज़ा जो कुछ डरावना सा लग रहा था पर “अपने अहम को बाहर छोड़ कर आइये” का निर्देश लिखा हुआ था। इसी तरह मेरे पीछे एक दीवार पर अंग्रेज़ी में “नो पेन नो गेन” की कहावत लिखी हुई थी।

खुद को एम.बी.बी.एस. के तीसरे वर्ष में पढ़ाई छोड़ देने वाला पूर्व छात्र बताने वाले वर्मा ने कहा कि वो इस नशा मुक्तिकरण और पुनर्वास के क्षेत्र में सन 2000 से (जब से उनकी खुद की सालों पुरानी नशे कि लत छूटी है) काम कर रहे हैं। रवीश जो इस केंद्र के मालिक हैं और खुद पहले नशे के आदी थे, रजत के पुराने दोस्त हैं। रवीश एक हट्टे-कट्टे शरीर वाले और रजत के मुकाबले मुझे काफी कम बोलने वाले व्यक्ति लगे। उन्होंने मुझे बताया कि दिल्ली सरकार द्वारा पंजीकृत यह केंद्र एक साल से कुछ कम समय से चल रहा है।

फिर रजत ने बताना शुरू किया कि इस केंद्र में कैसे काम होता है।

आम तौर पर नशे के आदी व्यक्ति के रिश्तेदार उनको फोन पर बताते हैं कि उसे घर से या कहां से लेकर जाना है। खुद से यहां आने वालों की संख्या लगभग ना के बराबर है। यह उन छोटे-छोटे कामों में से एक है जिसके लिए यहां भर्ती लोगों को भी भेजा जाता है ताकि यह भी देखा जा सके कि वह इस केंद्र से बाहर जाने के बाद नशे की इच्छा को दबा पाते हैं या नहीं।

एक बार जब किसी को इस केंद्र में लेकर आया जाता है तो उसको किसी विशेष स्थिति को छोड़कर अपने परिवार के किसी भी सदस्य से किसी भी तरह का संपर्क करने की मनाही होती है। उनके किसी से भी मिलने को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। रजत इसका कारण बताते हुए कहते हैं, “यह 40 दिनों का समय सबसे मुश्किल होता है, अगर हम उन्हें उनके माता-पिता से बात करने देंगे तो वे अपने साथ मार-पीट की झूठी घटनाएं उन्हें बता सकते हैं जिससे संभव है कि उनके माता-पिता उन्हें यहां से लेकर चले जाएं।”

शुरुआत में मरीज़ को ऐसी दवाएं दी जाती है, जिनमें वही मादक पदार्थ होता है जिसके वे आदी हैं, फिर धीरे-धीरे दवा की खुराक घटाई जाती हैं। वर्मा कहते हैं, “जैसे ही मरीज़ पर इलाज का असर होने लगता है तो उसकी कॉउंसलिंग शुरू कर दी जाती है ताकि उसका ‘ब्रेनवाश’ किया जा सके।” वो बार-बार ब्रेनवाश शब्द का इस्तेमाल ऐसे करते हैं कि जैसे ये कोई आम बात हो।

मैं खुद को बिट्टू और उसके जैसे अन्य लोगों के बारे में सोचने से नहीं रोक सका जिन्हें इस तरह के केंद्रों में यह बताया जाता है कि उनकी शारीरिक तकलीफ और बीमारी केवल उनके मन का वहम है। वर्मा बताते हैं कि इस तरह की मनोवैज्ञानिक कॉउंसलिंग एक दिन में 2 से 3 बार की जाती है।

इसी पर आगे बात करते हुए वर्मा बताते हैं कि नशा मुक्तिकरण के तीन पहलू होते हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। इससे मुझे याद आया कि बिट्टू ने भी उसके केंद्र में एक मौलवी के नियमित रूप से आने की बात कही थी।

वर्मा बताते हैं कि सबसे ज़रूरी चीज़ है ‘प्यार’ वो आगे कहते हैं, “एक नशे के आदी को इसी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।” उसी समय एक युवक चाय की ट्रे में दो कप चाय लेकर आता है और वर्मा गर्व के साथ कहते हैं, “यह भी पहले नशे का शिकार था, लेकिन अब ये इस आदत से पूरी तरह उबर चुका है, इसलिए हमने इसे छोटे-छोटे काम देना शुरू कर दिया है। बल्कि ये अब हमारे अन्य लोगों के साथ नए मरीज़ों को भी लेने जाने लगा है।”

मैंने सोनू (बदला हुआ नाम) से पूछा कि क्या यह सच है, क्या वह सच में नशे की आदत से पूरी तरह उबर चुका है। उसने हां में जवाब दिया लेकिन मैं उससे वर्मा के वहां होने के कारण किसी और जवाब की भी उम्मीद नहीं कर रहा था। वर्मा ने बताया कि यह 6 महीने का कोर्स होता है जिसके लिए हर मरीज़ का खर्च प्रति माह 6500/- रूपए तक होता है। उन्होंने मेरे (काल्पनिक) मरीज़ के लिए छूट देने की भी बात कही। उन्होंने मुझे ये भी बताया कि यदि मरीज़ एच.आई.वी. से पीड़ित है तो यह बात अन्य मरीज़ों को नहीं बतायी जाती है। उन्होंने इस पर साफ़ करते हुए कहा, “एच.आई.वी. का इलाज इस कोर्स के साथ-साथ सरकारी अस्पताल में करवाया जाता है।”

इतना काफी नहीं है:

इस इलाके में तेज़ी से फैलती इस समस्या के लिए पूरे जंगीरपुरी इलाके में केवल एक ही केंद्र चल रहा है जहां पर भी एच.आई.वी. की समस्या को प्रमुखता दी जाती है। यह केंद्र शरण नाम की एक गैर सरकारी संस्था द्वारा चलाया जा रहा है, जो शहर में इसी तरह के दो और केंद्र चला रही है। इनमें से एक पहाड़गंज में है जबकि दूसरा यमुना बाज़ार में है। ये दोनों ही केंद्र जहांगीरपुरी से ज़्यादा दूर नहीं हैं, इस तरह अगर इस क्षेत्र को दिल्ली का ड्रग-जोन कहा जाए तो यह काफी हद तक सही होगा। यह क्षेत्र केंद्रीय दिल्ली तक फैला हुआ है जिसमे कनॉट प्लेस, सदर बाज़ार और पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका भी आता है।

पहले नशे के आदी रह चुके कुछ लोगों के साथ मिलकर एक केंद्र चलाने वाले आलोकजी से मैंने बात की तो उन्होंने बताया कि नशे की यह समस्या बद से बद्तर होती जा रही है। वो बताते हैं कि हमारे मिलने के डेढ़ साल के अंतराल में भी इसमें किसी भी तरह का सुधार नहीं हुआ है। इस क्षेत्र में मृत्यु दर ऊंची बनी हुई है, पिछले वर्ष करीब 20 लोगों की नशे की वजह से मौत हो गयी। आलोकजी ने मुझे बताया, “यह आमतौर पर हर साल का आंकड़ा है। इसे घटाया जा सकता है अगर सरकार हमारे सुझावों पर अमल करे। मैंने दिल्ली ए.आई.डी.एस. कंट्रोल सोसाइटी को इस विषय में लिखा है।

एच.आई.वी. से पीड़ित लोगों तक इस इलाज को पहुंचाने और उन्हें नशे से दूर रखने का उद्देश्य, उनके इस केंद्र को चलाने के काम को और जटिल कर देता है। इंजेक्शन से नशा करने वाले लोगों में एच.आई.वी. की सम्भावनाएं काफी बढ़ जाती हैं। आलोकजी बताते हैं कि ऐसी स्थिति में यह एक दोहरा काम हो जाता है जहां एक तरफ उनको इलाज चालू रखने के लिए सहायता करनी होती है, वहीं दूसरी तरफ इस बात का भी ख़याल रखना होता है कि वो कहीं वापस इंजेक्शन से नशा शुरू ना कर दें। उन्होंने बताया, “इंजेक्शन से नशा करने वाले किसी भी व्यक्ति को एच.आई.वी. होने की प्रबल सम्भावनाएं होती हैं।”

उन्होंने बताया कि नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाईजेशन (एन.ए.सी.ओ.) ने पहले नशामुक्ति के लिए कुछ पैसा उपलब्ध कराना शुरू किया था लेकिन उसे बाद में बंद कर दिया गया। इसकी वजह से उनका काम और मुश्किल हो गया है। उन्होंने बताया, “सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय  (Ministry of Social Justice and Empowerment) दिल्ली में ,कई नशामुक्ति केंद्र चला रहा है, लेकिन वहां हर मरीज़ को खाने के लिए पैसे चुकाने होते हैं, शेष सुविधाएं मुफ्त हैं। लेकिन नशे से उबरते लोगों के पास इसके लिए भी पैसे नहीं होते हैं, इस वजह से हम उन्हें वहां भी नहीं भेज सकते हैं।” आलोकजी के अनुसार सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और एन.ए.सी.ओ. में आपसी समझ होनी चाहिए, जो उन्हें फिलहाल बेहद कम दिखती है।

अभी उनकी संस्था नशे का सेवन करने वाले लोगों को उन सरकारी अस्पतालों की जानकारी देने तक ही सीमित है जो इनका इलाज कर सकें। जहांगीरपुरी और उसके आस-पास के इलाकों के करीब 800 लोगों की पहचान अभी तक उनकी संस्था कर चुकी है। वो बताते हैं, “सरकार हमें किसी अस्पताल से जोड़ सकती है ताकि हमें काम करने में आसानी हो, अभी हम केवल जानकारी देने तक ही सीमित हैं और हम उनके इलाज की प्रक्रिया पर ठीक से नज़र रखने में सक्षम नहीं हैं क्यूंकि बिना किसी परिचित के उन्हें भर्ती नहीं किया जाता है।”

करीब एक दशक से काम कर रहे शरण के कर्मचारियों को उनकी सेवाओं के लिए पैसा नियमित रूप से नहीं दिया जा रहा है , यह स्थिति पिछले कुछ वर्षों से बनी हुई है, इस कारण उनके लिए काम करना और मुश्किल होता जा रहा है। आलोकजी ने बताया, “हमें अपने दैनिक खर्चों के लिए कुछ पैसा मिलता है। फील्ड पर जाकर काम करने वाले आउट रीच वर्करों (ओ.आर.डब्लू.) को अपने काम के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत होती ही है। लेकिन एक लम्बे समय से उन्हें उनका वेतन नहीं दिया गया है। आखिरी बार हमें पिछले वर्ष अगस्त में वेतन दिया गया था।”

मैंने जब कुछ ओ.आर.डब्लू. से बात की तो उन्होंने बताया कि उन्हें अपने खर्चों के लिए वापस पास की एक मंडी में काम करना पड़ रहा है। सरबजीत (बदला हुआ नाम) जो पूर्व में नशे के आदी थे ने कहा, “मैं रोज़ सुबह यहां आने से पहले मंडी में काम करता हूं।” उन्होंने भी इस काम के साथ-साथ अपने रोज़ाना के खर्चो को चलाने में होने वाली दिक्कतों की बात कही।

एक आखिरी कश:

इस क्षेत्र में सरकार द्वारा संचालित ऐसे नशामुक्ति केंद्र मौजूद नहीं हैं, इलाज के दौरान लोग रह भी सकें। इसी का फायदा उठाकर निजी नशामुक्ति केंद्र (जैसा मैंने नरेला में देखा था) पैसा बना रहे हैं। आलोकजी कहते हैं, “इस तरह के केंद्रों में बहुत कम लोग ही नशे की लत से पूरी तरह बाहर आ पाते हैं। बहुत से युवाओं को उनके माता-पिता के द्वारा वहां रहने पर मजबूर किया जाता है। वहां रहने का समय पूरा होते ही वो वापस उसी लत का शिकार हो जाते हैं।”

इसकी केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि सरकार इस समस्या पर ध्यान दे, इससे पहले कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए।

हिन्दी अनुवाद: सिद्धार्थ भट्ट 

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