“बिहार में बहार है” का नारा और विचार बिहार की सत्ताधारी पार्टी का है, जिसने 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जादू को परास्त करके गठबंधन सरकार बनाई। खैर- नया मामला बिहार की शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा हुआ है, और यह साफ़ करता है कि बिहार में कितनी “बहार” है। बिहार में इस वर्ष हुई बारहवीं की परीक्षा के परिणाम घोषित हो चुके हैं। इनमें टॉप आये दो छात्रों ने टॉपर की परिभाषा पर कलंक लगाने के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि, बारहवीं की परीक्षा में बैठने वाले आधे से ज्यादा छात्र फेल हो गए थे।
जब साइंस साइड के टॉपर छात्र से रसायन विज्ञान का एक सामान्य सा प्रश्न पूछा गया तो जनाब की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, और इनके अंक आये थे 484/500। वहीं जब एक दूसरी टॉपर छात्रा से पोलिटिकल साइंस का मतलब समझाने को कहा गया तो छात्रा ने पोलिटिकल साइंस का मतलब खाना बनाने व सिखाने की क्रिया से जोड़कर समझाया, और इनके अंक आये थे 444/500। यह दोनों टॉपर छात्र एक ही विद्यालय के विद्यार्थी हैं। नाम है विष्णु रॉय इन्टर कॉलेज और इस विद्यालय को सालों से टॉपर पैदा करने में महारथ हासिल है। इस विद्यालय के मुखिया, सत्ताधारी पार्टी आरजेडी के ख़ास करीबी हैं, इसमें कोई दो राय नही है। इसी विद्यालय का परिणाम पिछले वर्ष इसीलिए रोक दिया गया क्योंकि इस कॉलेज में पढ़ने वाले 222 छात्रों का परीक्षाफल एक जैसा था, लेकिन बाद में इसे बहाल कर दिया गया।
आखिरकार यह विद्यालय किसकी शह पर चलता है? ना जाने ऐसे कितने और विद्यालय बिहार में मौजूद हैं, जो बच्चो के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दोष छात्रों का नही है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था और सरकार का है। 500 में से 484 अंक लाने वाले छात्र का सपना आई.ए.एस. अफसर बनने का है। हालांकि बिहार से आने वाले छात्रों में प्रतिभा की कोई कमी नही है। ज्यादातर आई.ए.एस., आई.पी.एस. अफसर वहीं से आते हैं। उनका योगदान देश की उन्नति में अतुलनीय है, इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पर आने वाली प्रतिभा क्या इस तरह की होगी जो पूरे देश को बार-बार शर्मसार करती रहेगी, इस बात को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
इक्कीसवीं शताब्दी में बच्चों की शिक्षा और जीवन के साथ हो रहा खिलवाड़, देश का मज़ाक उड़ाने जैसा है। बिहार के 10 प्रतिशत विद्यालयों में बिजली नही है, प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में यदि शिक्षक-छात्र अनुपात की बात करें तो यह औसतन 46 छात्र प्रति शिक्षक है। यह अनुपात प्राथमिक विद्यालयों में सबसे कम 63 छात्र प्रति शिक्षक और अधिकतम उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में 41 छात्र प्रति शिक्षक है, वहीँ राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 40 छात्र प्रति शिक्षक का है। । अधिकतर सरकारी स्कूलों में शौचायालय व पीने के पानी की सुविधा नही है। जिन शिक्षको की भर्ती नितीश सरकार ने सन 2011 में की, उन शिक्षको की शिक्षा भी जब मीडिया के कैमरों के सामने आई तो कई शिक्षक तो फ़रवरी की स्पेलिंग तक नही जानते। एक साल में कितने दिन होते हैं, नही जानते और कई शिक्षक इन्ही दो छात्रों की तरह फर्जीवाड़े में धरे गए।
यह किस प्रकार की शिक्षा बिहार सरकार, बच्चों को मुहैय्या करा रही है या करना चाहती है? बिहार की साक्षरता दर 68(सन् 2011 में) प्रतिशत है जो कि सन् 2001 में 45 प्रतिशत थी। जब केवल 68 प्रतिशत ही लोग साक्षर हैं, तो शिक्षित कितने होगें इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। क्या पैसा कमाने के लालच में सत्ताधारी पार्टियाँ या फर्जी डिग्री और फर्जी शिक्षा बाँट रहे विद्यालय इसी तरह इस देश की शिक्षा व्यवस्था का मजाक उड़ाते रहेंगे?
आज़ादी के 68 साल बीत गए पर बिहार की शिक्षा व्यवस्था ठप ही रही और बिहार सरकार “बहार” को लेकर पूरे देश में एक खोखला नाटक करती घूम रही है। सरकार को समझना होगा की केवल शराबबंदी से बिहार में “बहार” नहीं आएगी, दिन प्रति दिन बढती जा रही लूट और हत्या की वारदातें और शिक्षा के नाम पर चल रहे काले धंधें को कौन रोकेगा?
जाहिर सी बात है सरकार को अब कड़े कदम उठाने ही होगें और बिहार को देखने का लोगों का नजरिया बदलना होगा और यह अति आवश्यक है, क्योंकि जब नीवं ही मजबूत नही होगी तो ईमारत मजबूत और स्थिर कैसे रहेगी?
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