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कैसे लैंगिक चयन पर बात की जाए: नयी किताब जो सिखाती है कुछ महत्वपूर्ण बातें

Children playing in mustered field on 2nd January 2015 in Munshigonj, Bangladesh. As winter deepens in this country that lies athwart the Tropic of Cancer, the landscape is coloured, across the country, with vast swathes of fields of Mustard, lending an impressive, almost magical quality to the almost endless views across the deltaic plains. (Photo by Zakir Hossain Chowdhury/NurPhoto) (Photo by NurPhoto/NurPhoto via Getty Images)

सिद्धार्थ भट्ट:

आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद, [envoke_twitter_link]जन्म के आधार पर लैंगिक चयन और महिलाओं के साथ हो रहा भेद-भाव हर क्षेत्र की कड़वी सच्चाई है।[/envoke_twitter_link] इस प्रकार के चयन कई बार जानकर और कई बार अंजाने में किये जाते हैं। पितृसत्तात्मक सोच की गहरी पैठ हमें कई बार सोचने का मौका भी नहीं देती, फलस्वरूप महिलाओं के साथ होने वाला भेद-भाव विभिन्न रूपों और क्षेत्रों में रोजाना देखने को मिलता है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि इस पुरुषवाद की शिकार केवल महिलायें है, यह बड़े पैमाने पर पुरुषों को भी प्रभावित करता है। इस स्थिति में हमें उन रचनात्मक तरीकों को तलाशने की जरुरत है जो इस समस्या को प्रभावी रूप से सम्बोधित कर सकें।

इस विषय पर हाल ही में यू.एन.एफ.पी.ए. (यूनाइटेड नेशन्स पापुलेशन फण्ड) और टाटा ट्रस्ट के सहयोग से ब्रेकथ्रू नामक संस्था द्वारा भारत के हरियाणा राज्य में चलाये गए एक अभियान पर आधारित मार्गदर्शिका पढ़ने का मौका मिला। यह मार्गदर्शिका लैंगिक चयन के विषय में संचार और संवाद के उन माध्यमों की जानकारी देती है, जो इस अभियान के दौरान फील्डवर्क से प्राप्त हुई। इसमें उन प्रभाव समूहों या भागीदारों को चिन्हित और सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है जिनकी पहुँच समाज के विभिन्न तबकों तक हो।

जब विभिन्न भागीदारों या प्रभाव समूहों की बात की जाती है तो आशय पंचायतीराज संस्थाओं (पी.आर.आई.), युवा वर्ग, लोगों के बीच कार्यरत जमीनी कर्मियों जैसे ऑक्सीलरेि नर्स मिड-वाइव्स (ए.एन.एम.), एकरीडेटेड हेल्थ एक्टिविस्ट (आशा), स्वयं सेवी समूह, गैर सरकारी संगठन, बाल विकास संरक्षण अधिकारी (सी.डी.पी.ओ.) और सुपरवाइजर से है। यह मार्गदर्शिका बताती है कि किस तरह लोकप्रिय मीडिया माध्यमों जैसे टी.वी., रेडियो, इंटरनेट, मोबाइल, और प्रिंट मीडिया आदि का प्रयोग इस विषय पर संचार और संवाद स्थापित करने के लिए किया जा सकता है। साथ ही यह सामुदायिक मीडिया जैसे वीडियो वैन, नुक्कड़ नाटक व सुचना बुकलेट का प्रयोग प्रभावी रूप से करने की बात को भी सामने रखती है।

यह मार्गदर्शिका स्पष्ट करती है कि, आर्थिक प्रगति के बावजूद भी भारत में लैंगिक चयन जारी है, जिसके पीछे पुरुष पर परिवार की निर्भरता, उसका बुढ़ापे का सहारा होना और महिला को एक भार समझने की मानसिकता काम करती है। महिला को पराया धन मानने की सोच और उसके विवाह तक, जब तक कि महिला का स्वामित्व पिता से पति को स्थानांतरित नहीं कर दिया जाता, तब तक उसकी सुरक्षा का भार जैसी सोच के साथ-साथ उसके विवाह और दहेज़ पर होने वाले आर्थिक खर्चे भी इस प्रकार के लैंगिक चयन का मुख्य कारण हैं।

लैंगिक चयन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए यह तीन मुख्य कारणों की बात करती है। एक पितृसत्तात्मक मानसिकता- जहाँ बेटों को बेटियों से अधिक महत्व दिया जाता है, दूसरा छोटे परिवारों का बढ़ता चलन- छोटे परिवारों में वैसे ही कम बच्चे होते हैं, उनमें भी लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है, तीसरा चिकित्सकीय तकनीकों जैसे अल्ट्रासाउंड आदि का गलत इस्तेमाल। लेकिन कहीं ना कहीं इस समस्या का केंद्रबिंदु महिलाओं से जुड़े पूर्वाग्रह हैं, जैसे शारीरिक रूप से उन्हें कमजोर मानना, पुरुषों की तुलना में उन्हें अधिक भावुक माना जाना आदि। इस प्रकार के पूर्वाग्रह, महिलाओं के आत्मविश्ववास को क्षति तो पहुंचाते ही हैं, साथ ही मूल अधिकारों पर उनके दावे को भी कमजोर करते हुए समाज में उन्हें दोयम दर्जे का स्थान प्रदान करते हैं।

लैंगिक चयन के असर की बात करते हुए यह मार्गदर्शिका इस अभियान के दौरान पता चले कुछ चौंकाने वाले तथ्यों की बात करते हुए बताती है कि लैंगिक अनुपात किस प्रकार चिंताजनक रूप से गिर रहा है। हरियाणा में ये अनुपात प्रति हज़ार पुरुषों पर 868 महिलाओं का है, जहाँ राष्ट्रीय अनुपात प्रति हज़ार पुरुषों पे 943 महिलाओं का है। इस सन्दर्भ में यह मार्गदर्शिका बताती है, “ब्रेकथ्रू के बेसलाइन अध्यन में पता चला है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध बढे हैं और साथ-साथ उनके प्रति हिंसक प्रवृत्ति में भी वृद्धि हुई है। लैंगिक चयन के प्रभावों में महिलाओं के यौन उत्पीड़न का बढ़ना भी है। सोनीपत और झज्जर के उत्तरदाताओं ने बताया कि घर के बाहर और अंदर दोनों जगह छेड़छाड़, बलात्कार, और यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं। भय के कारण अधिकांश महिलाएं इस विषय पर बात भी नहीं करती। उन्हें और अधिक बदनाम होने या छोड़ दिए जाने का भय होता है।

लैंगिक अनुपात में इस कमी के कारण हरियाणा में एक भाई कि पत्नी को अन्य भाइयों के द्वारा साझा करने और विधवा स्त्री के मृत पति के भाई से विवाह करने कि प्रथा फिर से जोर पकड़ रही है। ब्रेकथ्रू के इस क्षेत्र के लोगों से किये गए संवाद के दौरान एक 36 वर्षीय महिला कहती हैं, “लड़कियां अब सयानी हैं, वे बाहर जाती हैं, और ‘गलत काम’ (जैसे किसी के साथ भाग जाना) करती हैं, और इसी वजह से लड़कियां अनचाही होती हैं।” विषम लिंगानुपात और ‘इज्जत के नाम पर हत्या’ को सामझाते हुए यह मार्गदर्शिका बताती है कि इसका (हत्याओं) कारण महिलाओं की घटती संख्या की वजह से खाप पंचायतों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा भी है। लैंगिक चयन के अन्य प्रभावों की बात करें तो उनमे पुत्र को जन्म ना देने पर केवल महिलाओं का होने वाला तिरस्कार और असुरक्षित गर्भपात के कारण उनके स्वास्थ्य पर आने वाला संभावित खतरा भी हैं।

लैंगिक चयन की समस्या के समाधान की बात करते हुए यह मार्गदर्शिका गर्भपात सम्बन्धी कानूनों के कड़ाई से पालन के साथ महिलाओं को न्यायपरक, सुरक्षित और ऐच्छिक गर्भपात की सुविधाएँ उपलब्ध कराने की बात करती है। लैंगिक चयन को चुनौती देने के लिए यह विभिन्न समुदायों के हिसाब से सन्देश चुनने की बात रखती है, उदाहरण के लिए “मर्द बनो, औरत का समर्थन करो“, यह सन्देश जहां पुरुषत्व को एक नए सिरे से परिभाषित करता है, वहीं पुरुषों की श्रेष्ठता में भी विश्वास दिखाता है। इस प्रकार के सन्देश का प्रयोग उन बुजुर्ग पुरुषों, सरपंच आदि के साथ किया जा सकता है जिनकी वैचारिक रूप से बदलने कि सम्भावना काफी कम है। एक और उदाहरण की बात करें तो “बेटी सम्भाले रिश्ते वफादारी से। शायद सहारा वही बने।“, जैसा सन्देश अभिभावकों को बेटा ना होने की असुरक्षा पर सम्बोधित करता है, और बेटियों पर अधिक विश्वास जताने पर बल देता है।

विभिन्न भागीदारों से उनकी सहभागिता की बात करते हुए यह मार्गदर्शिका बताती है कि यदि युवाओं के साथ संवाद किया जा रहा है तो जितनी बात स्त्रियों की हो उतनी ही बात पुरुषों की भी हो, क्यूंकि यह समस्या पुरुषों को भी प्रभावित करती है। इसी समस्या के कारण पुरुषों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होने के साथ-साथ परिवार के मुखिया होने का भी दबाव सहना पड़ता है, और ऐसा ना कर पाने की स्थिति में उन्हें समाज के उपहास का सामना करना पड़ता है। जमीनी कार्यकर्ताओं की बात करते हुए यह “महिलाएं ही महिलाओं कि सबसे बड़ी दुश्मन हैं।“, “गर्भपात और लिंग चयन एक ही बात है।“, और ” लड़कियों की रक्षा एक चिंता का विषय है, तो उन्हें पैदा ही क्यों किया जाए।” जैसे मिथकों को सम्बोधित करने की बात कहती है। इसी कड़ी में शिक्षकों को लिंग-तटस्थ भाषा का प्रयोग करने, विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों को किसी सामूहिक कार्य में लड़के या लड़कियों के समूह में बांटने से बचने, और लिंग के आधार पर कार्य देने से बचने की बात कही गयी है।

इस प्रकार यह मार्गदर्शिका लैंगिक चयन की समस्या पर प्रकाश डालते हुए, विभिन्न तथ्यों को सरल भाषा में सामने रखती है। अलग-अलग अभियानों की जानकारी और उनके विश्लेषणों को रेखाचित्रों के साथ तथा उनका प्रयोग कहाँ किया जा सकता है, बतलाती है। विभिन्न भागीदारों और प्रभाव वर्गों की भूमिका तय करते हुए, इस समस्या से निपटने के लिए यह एक प्रभावी मार्गदर्शिका है, जिसका प्रयोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग संस्थाओं द्वारा किया जा सकता है। हालांकि इस मार्गदर्शिका का आधार हरियाणा में चलाया गया एक अभियान है, लेकिन यह भी याद रखे जाने की जरुरत है कि यह समस्या केवल एक राज्य की नहीं बल्कि देशव्यापी समस्या है।

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