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घर संभालने पर तारीफ के हकदार सिर्फ पुरुष नहीं, महिलाएं भी हैं

ऐसा क्या है जो घर का काम संभालने वाले किसी पुरुष को महान बना देता है, वहीं जब एक औरत यही पूरी मेहनत के साथ करती है तो, उस पर शायद ही कभी किसी का ध्यान जाता है?

खैर पितृसत्ता में ऐसी कई बातें हैं जो महिलाओं पर लागू नहीं होती, और हम उस बारे में यहाँ बात भी नहीं करेंगे। यहाँ कहने की बात यह है कि जब हम लिंग के आधार पर काम की ज़िम्मेदारियों को बदलने की बात करते हैं तो, पुरुषों का किचन या रसोईघर में काम करने को थोड़ा ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है, वहीं अगर महिला घर के बाहर जाकर काम करे तो उसे इससे बिल्कुल विपरीत नजरिए से देखा जाता है। क्या हमने कभी इस बारे में सोचा है?

बात अगर बॉलिवुड फिल्म “की एंड का” की करें तो यह पूरी फिल्म लिंग पर आधारित भूमिकाओं के बदलने पर केन्द्रित है जहाँ करीना कपूर के द्वारा निभाया गया किरदार ‘किया’ एक सफल बिजनस-वुमन है, वहीं अर्जुन कपूर का किरदार ‘कबीर’ एक घर सम्भालने वाले पुरुष का है। यहाँ समझाने की बात यह है कि इस फिल्म और इसके ट्रेलर्स में कबीर के किरदार जिसमे वह घर संभाल रहा है को एक बड़े त्याग या फिर उसकी मर्दानगी को प्रभावित करने वाली किसी चीज की तरह दिखाया गया है। यह फिल्म कुल मिलाकर कहती यही है, कि चाहे पुरुष घर का काम क्यों ना करे चलेगी तो उसकी ही। अगर कोई पुरुष घर संभालता भी है तो इसमें ऐसी कौन सी बड़ी बात है?

इससे, पहली बात जो सामने आती है वो यह है कि घर संभालने के काम को कितना कम करके आँका जाता है। हालांकि ये एक हफ्ते में 56 घंटे भी हो सकता है। और जिन लोगों को लगता है घर संभालना कोई काम नहीं है तो उन्हें बता दें, कि नहीं ऐसा नहीं है। दूसरी बात ये कि यह फिल्म उन्ही घिसी-पिटी मान्यताओं को दोहराती है जिनमे पुरुष के छूने से हर चीज के सोना बन जाने की बात कही जाती है। जहाँ महिलाएं सालों से यह काम करती आई हैं, जिसे कोई मूल्य नहीं दिया जाता। कुछ और उदाहरणों की बात करें तो कम्पूटर के क्षेत्र में (शुरुआती दिनों में ऐडा लवलेस से लेकर अडेल गोल्डबर्ग और ग्रेस हॉपर तक), डी.एन.ए. (रोसलिंड फ्रेंकलिन), या साइंस फिक्शन और साहित्य के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान का इतिहास और ऐसे नामों की लिस्ट काफी लम्बी है।

भारतीय समाज में औरत का रसोई संभालना और खाना बनाने की मान्यता को हमेशा से मजबूत किया जाता रहा है, और उनसे उनके पति के बाद ही खाने की उम्मीद की जाती है। मुझे यकीन है कि यदि यहाँ पुरुष और महिला की भूमिकाओं को बदल दिया जाए, तो पुरुषों से इस तरह की उम्मीद नहीं की जाएगी। बात घूम-फिर कर वहीं आ जाती है, लिंग के आधार पर काम निर्धारित करना बेहद गैरजरूरी है, बजाय इसके कि महिला और पुरुष दोनों से बराबर काम करने की उम्मीद की जाए। इन्ही तरीकों को अपनाकर हम एक ऐसी दुनिया बना पाएंगे जहाँ किरण बेदी (भारत की पहली महिला इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस), जामा मोहम्मद हदीद (प्रित्ज्केर आर्किटेक्चर अवार्ड की पहली महिला विजेता), मरियम मिर्ज़ाखानी (गणितज्ञ), अनुराधा पाल (पहली पेशेवर महिला तबला वादक) जैसी महिलाऐं अपवाद ना हों। आज महिलाऐं पितृसत्तात्मक समाज के द्वारा दी गयी भूमिकाओं को नकार रही हैं, और महिलाओं के काम को नया अर्थ दे रही हैं।

असल में काम तो बस काम है और उसमे मदद करना अच्छी बात है, लेकिन उसके लिए आपको कोई विशेष सम्मान नहीं दिया जा सकता। हमें घर के काम (जो महिलाओं की जगह मानी जाती है) और बाहर के काम (जो पुरुषों के लिए निर्धारित किया गया है) को एक ही धरातल पर लाना होगा, और उन्हें लिंगविशेष से जोड़कर देखना बंद करना होगा। ऐसा करने से ही महिलाओं और पुरुषों दोनों को ही काम बांटने का बराबर श्रेय दिया जा सकता है, बजाय इसके कि उनसे, किसी काम में कोई एक विशेष भूमिका निभाने की उम्मीद की जाए।

Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.

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