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कैसे ‘रमन राघव 2.0’ का पोस्टर वापस ले जाता है फ़िल्मी पोस्टरों की दुनिया में?

पवन शर्मा:

अभी हाल ही में अनुराग कश्यप की फिल्म ‘रमन राघव 2.0’ का पोस्टर देखा तो लगा, बड़े दिनों बाद किसी ने इन्हें बनाने में मेहनत की।अगर भारतीय सिनेमा में पोस्टरों की बात की जाए तो भारतीय सिनेमा की तरह ही फिल्मों के पोस्टरों का भी बड़ा दिलचस्प इतिहास रहा है। 19वीं सदी के आखिर में भारत में प्रिंटिंग प्रेस आयी और राजा रवि वर्मा ने, उसकी पेटिंग से गहरी दोस्ती करवाकर भगवान की पहुँच हर आम आदमी तक कर दी। भारतीय फिल्मों के पोस्टर की कला एक स्वतंत्र रूप में विकसित हुई। इस कला का अभ्यास कई सालों तक उन गुमनाम पेंटरों ने किया, जो भारत के हर सिनेमाघर के एक कमरे में बैठकर कैनवास पर पोस्टर बनाते थे। इस कला के कद्रदान थे वो लाखों लोग जो सिनेमाघरों के बाहर से गुजरते और पोस्टर को देखकर फिल्म की औकात का अंदाजा लगाते।

शुरूआती दौर में फिल्म प्रमोट करने का एक मात्र माध्यम प्रिंट मीडिया ही हुआ करता था, और फिल्मों के इश्तेहार देना तो दादा साहब फाल्के नें ही शुरू कर दिया था। पर जैसे-जैसे सिनेमा का विकास हुआ, सिनेमाघरों का भी विकास हुआ और सिनेमाघरों के विकास ने ही पोस्टर की कला को एक ठिकाना दिया। पोस्टर्स फिल्म की पहली झलक होते हैं, जो दर्शकों के संशय को मिटाते हैं। साइलेंट फिल्मों के दौर में देशी-विदेशी फिल्म का संशय, और बाबु मोशाय से लेकर एंग्री यंग मैन के दौर में, पोस्टर ही यह दुविधा मिटाते थे कि लम्बी कतार में खड़े होकर, फिल्म देखने का रिस्क भी लेना है या नहीं। खैर आज तो दर्शक भी मल्टीप्लेक्स में जाने की जहमत तभी उठाते हैं, जब कोई कलाकार हर दूसरे टीवी चैनल पर आकर उनके सर पर नाच करने लग जाए। अगर परिभाषित शब्दों में कहा जाए तो पोस्टर वह चित्र है जो दर्शकों के सामने पहली झलक के रूप में फिल्म के मूल विषयों को प्रस्तुत कर दे।

हॉलीवुड में तो शुरुआत से ही स्टूडियोज का दबदबा रहा है। फिल्म के प्रमोशन के लिए फिल्म कंपनी ही अपने हिसाब से फिल्म पोस्टर छपवाकर सिनेमाघर मालिकों को भेज देती थी, और चिंदी-चोरी इतनी कि फिल्म उतर जाने के बाद उन पोस्टरों को फिर से मंगवाकर किसी और सिनेमाघर में भेज दिया जाता था। लेकिन हमारे यहाँ पोस्टर बनाने का जिम्मा भी सिनेमाघरों ने ही ले लिया और हुआ यह कि भारत के हर छोटे-बड़े शहर के सिनेमाघर में बैठा पेंटर फिल्म के विषय, उद्देश्य और पहली झलक को अपने हिसाब से अभिव्यक्त करने लगा।

इन हाथों से बने हुए पोस्टरों का पहला मकसद था चलते राहगीर को रुकने पर मजबूर किया जाये और दूसरा यह कि उसमें फिल्म को देखने की रूचि जगाई जाए। यह मकसद पूरा किया जाता था मोटे-मोटे ब्रश के छापे और बड़े ही तड़कते भड़कते रंगों से। जिसमे अव्वल दर्जे की पेंटिंग देखने को मिलती थी। ऐसा लगता था कि बस मिथुन पोस्टर से निकलकर अभी डिस्को डांस करने लगेगा। बस सिनेमाघर ही नहीं, पूरा शहर पोस्टरों से पटा रहता था, ऑटो के पिछवाड़े से लेकर पान की गुमठी तक और सार्वजनिक शौचालयों से लेकर ढाबों की दीवारों तक में पोस्टर लगे होते थे। वैसे तो इन पोस्टरों को बनाने वाले ज्यादातर कलाकार गुमनाम ही रहे, पर एक थे बाबुराव पेंटर जो बड़े ही प्रसिद्ध हुए। बाबूराव फिल्मों के पोस्टर बनने के साथ-साथ फिल्में डायरेक्ट भी करते थे। आज भी जब इनके बनाए हुए पोस्टर प्रदर्शनी में लगते हैं, तो हजारों लोग वाह किये बिना नहीं रह पाते।

फिर एक ऐसा दौर भी आया कि जब फिल्मों के पोस्टर में कला नहीं सितारों की क़द्र होने लगी। इसी के साथ शुरू हुआ भारतीय फिल्मों के पोस्टर की अवनति का दौर। ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के स्वर्णिम काल में तो सितारों से भी ज्यादा जगह मिलने लगी उनके डिज़ाइनर कपड़ों, साड़ी और गहनों को। वैसे फिल्मो की स्टोरी के मामले में तो हिंदी सिनेमा कई विदेशी फिल्मो से ‘प्रेरित’ हुआ पर नई सदी की शुरुआत से तो यह पोस्टरों के मामले में भी ‘प्रेरित’ होने लगा। खैर बुरा तो हमे किसी बात का ना लगे, पर हाँ जब सिनेमा के कुछ चंद जवाबदार लोग पोस्टर के मामले में भी प्रेरित होने लगें, तो ठेस तो पहुँचती ही है।

इन सब के अलावा नब्बे के दशक की धर्मा और यशराज की फिल्मों ने भारतीय सिनेमा के पोस्टर की कला को जितना नुकसान पहुँचाया है, उतना तो शायद ही कोई पहुंचाए। इनके यहाँ कौन सा डायरेक्टर कौन सी फिल्म बना रहा है यह तो पहले ही समझ नहीं आता था। अब हालत यह है कि अगर इनकी फिल्मों के पोस्टरों से फिल्मों के नाम हटा दिए जाएं तो समझना मुश्किल हो जाए की कौन सा पोस्टर किस फिल्म का है। हर पोस्टर पर हीरोइन के साथ बाहें फैलाये कोई नया शाहरुख़ खड़ा है। ऐसे दौर में अनुराग कश्यप ने निश्चित ही रचनात्मक पोस्टर्स बनवाए हैं।

वैसे अनुराग कश्यप का ‘रमन राघव’ से पुराना रिश्ता है। जब बम्बई में श्रीराम राघवन, रघुवीर यादव को लेकर लघु फिल्म ‘रमन राघव’ बना रहे थे तभी अनुराग कश्यप भी बम्बई में ठिकाना खोज रहे थे। फिल्म के एक पोस्टर में एक नल दिखाया गया है जिससे खून टपक रहा है। रमन राघव जैसा साइको किलर जिसने कई दर्जनों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था को चित्रित करने में यह पोस्टर काफी हद तक सफल रहता है। इसी में बिजली के तारों पर बैठे कौए रमन राघव की दहशत के प्रतीक हैं। फिल्म का एक और पोस्टर आया है जिसमे बम्बई की झुग्गियों की नालियों में खून बहते हुए दिखाया गया है, वहीं एक चश्मा भी पड़ा है, एक लाश और एक खून से सना कुत्ता भी इसमें दिखाई देता है।

सच कहा जाए, इन दोनों पोस्टरों का हर एक कोना, रमन राघव की दहशत की गवाही देता है। फिल्म के ये दो पोस्टर, पारिभाषिक शब्दों पर भी एक दम खरे उतरते हैं। दोनों पोस्टर फिल्म के मूल विषय को चित्रित करते हैं। अनुराग ने इन पोस्टरों पर गरीब एक्टरों के मसीहा नवाज़ुद्दीन को दिखाने के बजाए फिल्म के मूल विषय रमन राघव की दहशत और हिंसा को दिखाने को प्राथमिकता दी है। वैसे हाथ से पोस्टर बनाने का जमाना तो लद गया पर अनुराग कश्यप ने दिल से पोस्टर सप्रेम भेंट कर भारतीय फिल्मो की पोस्टर कला में एक नया आयाम जोड़ दिया है।

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