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कैसे इन भारतीय छात्रों ने सेटेलाइट बनाकर और उन्हें लांच कर रचा इतिहास

Indian Space Research Organisation's (ISRO) satellite CARTOSAT-2, along with 20 other satellites from the US, Canada, Germany and Indonesia on board the Polar Satellite Launch Vehicle (PSLV-C34), is launched from Sriharikota in the southern state of Andhra Pradesh on June 22, 2016. / AFP / ARUN SANKAR (Photo credit should read ARUN SANKAR/AFP/Getty Images)

मनु प्रिया:

तकनीक के क्षेत्र में भारतीय छात्रों ने अंतरिक्ष विज्ञान में एक नया आयाम हासिल किया, लेकिन कैसे? भारत की अलग-अलग यूनिवर्सिटियों के द्वारा बनाए गए उपग्रहों (सेटेलाइट्स) को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर के यह उपलब्धि हासिल की गयी है।

इसे कोई छोटी उपलब्धि मत समझिए! एक सेटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजने के लिए कई तकनीकी चरणों से गुजरना होता है और एक लम्बे अनुभव और मजबूत बुनियादी ढाँचे की जरुरत होती है। आखिर इसी को रॉकेट साइंस कहते हैं।

लेकिन भारतीय छात्रों ने जिस तरह से चुपचाप इस काम को अंजाम दिया, उसे देख कर लगता है कि मानो यह रॉकेट साइंस ना होकर कोई छोटा सा काम हो।

युवा ऊर्जा का कमाल

स्वयम

कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग पूना, और सत्यभामा यूनिवर्सिटी चेन्नई के छात्रों द्वारा पूरी तरह से स्वनिर्मित इन सेटेलाइट्स को 22-जून को अंतरिक्ष में छोड़ा गया।

कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग पूना का ‘स्वयम’ और सत्यभामा यूनिवर्सिटी चेन्नई का ‘सत्यभामासेट’, इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (ISRO या इसरो) के रॉकेट PSLV C-34 के द्वारा अंतरिक्ष में प्रक्षेपित (लांच) किये गए।

जहाँ स्वयम के निर्माण में कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग पूना ने करीब 50 लाख रूपए खर्च किये, वहीं सत्यभामासेट को बनाने में सत्यभामा यूनिवर्सिटी चेन्नई को 1.5-2 करोड़ रूपए तक का खर्च उठाना पड़ा।

छात्रों द्वारा निर्मित ये सेटेलाइट्स एक पारम्परिक उपग्रह से आकार में काफी छोटे और वज़न में काफी हल्के हैं लेकिन इसके बावजूद ये तकनीकी तौर पर किसी से कम नहीं हैं। उदहारण के तौर पर स्वयम का वजन केवल 1 किलो ग्राम है और इसका आयतन (वॉल्यूम) 1000 क्यूबिक सेंटी मीटर है।

अपने छोटे आकार की वजह से स्वयम को ज्यादा भारी नहीं बनाया जा सकता था, तो सेटलाइट में स्थिरता लाने के लिए छात्रों ने भारी भरकम यंत्रों की जगह पर चुम्बकों से बने एक आसान सिस्टम का प्रयोग किया। स्वयम के छोटे आकार की वजह से इसे पिको-सेटलाइट की श्रेणी में रखा गया है।

सत्यभामासेट जो २ किलो ग्राम के वजन के साथ थोड़ा अधिक भारी है से, पर्यावरण पर ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव पर नज़र रखी जाएगी और यह भारत के लिए एक ‘प्रदूषण मॉडल’ बनाने में सहायक होगा।

अभी कुछ और भी स्टूडेंट सेटेलाइट्स अंतरिक्ष में भेजे जाने के लिए तैयार है जिनमें मनिपाल यूनिवर्सिटी का परीक्षित, आई.आई.टी. बॉम्बे का प्रथम, आई.आई.टी. मद्रास का आई.आई.टी.एम.सेट (IITMSAT) और पी.ई.एस. यूनिवर्सिटी बैंगलोर का पी.आई.एस.सेट (PISAT) आते हैं।

छात्रों द्वारा बनाए गए इन सेटेलाइट्स में से ज्यादातर को 2016 या 2017 में अंतरिक्ष में भेजा जाएगा।

गलतियों से सीखा बहुत कुछ

काम में जुटी स्वयम की टीम

सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेजे जाने के बाद यह छात्र केवल खुशियां नहीं मना रहे थे। क्यूंकि मिशन यहीं पर ख़त्म नहीं हुआ था।

इन सभी सेटेलाइट्स को ग्राउंड स्टेशन से ट्रैक किया जा रहा था। छात्रों द्वारा बने गए मैसेजिंग सिस्टम से धरती पर मौजूद किसी भी ग्राउंड स्टेशन से इन्हे ट्रैक किया जा सकता है।

इन सेटेलाइट्स से जुड़े सभी उपकरण छात्रों द्वारा ही बनाए गए थे जो लगातार कोशिशों का एक नतीजा था। इस प्रकिया में कई शुरुवाती असफलताएं भी आई, इस तरह की कई असफलताओं के बाद ही ये छात्र एक सुचारु रूप से काम करने वाला सैटेलाइट बनाने में कामयाब हुए।

धवल वाघुलडे जो कि एक अंडरग्रेजुएट छात्र हैं और स्वयम की टीम के प्रोजेक्ट मैनेजर भी हैं, ने बताया कि स्वयम को बनाने की शुरुवात सन् 2008 में हुई थी जब छात्रों नें सैटेलाइट यानि कि उपग्रह के बारे में पढ़ना शुरू किया।

इसरो नें स्वयम के डिज़ाइन की २०१३ में समीक्षा की और उसे सहमती दे दी। इसके बाद ही सेटलाइट को बनाने का असल काम शुरू हुआ।

इसी तरह सत्यभामासेट को पूरी तरह से एक लांच के लिए तैयार सेटलाइट बनाने में ६ वर्ष का समय लगा।

एक रिले रेस:

आईआईटीएमसेट

जब किसी प्रोजेक्ट में इतना वक़्त लगता है तो छात्रों के एक बैच से दूसरे बैच को नेतृत्व और ज्ञान की मशाल सौंपना जरुरी हो जाता है। यह ज्यादा से ज्यादा छात्रों को इस तरह के प्रोजेक्ट में हिस्सा लेने का मौका देता है।

वाघुलडे जो कि स्वयम की टीम के सातवें प्रोजेक्ट मैनेजर हैं बताते हैं कि, “इस प्रोजेक्ट से जुड़ी जानकारियों, इसके ज्ञान और जिम्मेदारियों को अगले बैच को सौंपना सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन यह पूरा अनुभव बेहद अच्छा रहा: यह अपने काम के लिए समर्पित एक टीम के साथ काम करने का और इसरो के वैज्ञानिकों से बात करने और उनसे सीखने का एक मौका था।”

IITMSAT के सिस्टम इंजीनियर अक्षय गुलाटी नें बताया कि इस प्रोजेक्ट नें उन्हें, “एक असल वैज्ञानिक खोज में हिस्सा लेने का मौका दिया- जो छात्रों को पढाई के दौरान काफी कम मिलता है।”

छात्रों के उत्साह को देखते हुए, आई.आई.टी. मद्रास के कुछ पूर्व छात्रों नें स्टूडेंट सेटलाइट प्रोजेक्ट्स के लिए एक नयी आई.आई.टी.एम. स्पेस लैब की स्थापना की है। ये छात्र अब नयी चुनौतियों के लिए तैयारी कर रहे है। इसी कारण गुलाटी के सपने भी बड़े हैं और वो एक स्पेस टेकनोलोजी पर आधारित स्टार्टअप शुरू करने के बारे में सोच रहे हैं।

इसरो से मिल रहा है सहयोग:

इसरो स्टूडेंट सेटलाइट प्रोग्राम से छात्रों को काफी मदद मिल रही है। इसरो ना केवल इन छात्रों को तकनिकी तौर पर सहयोग कर रहा है बल्कि यह उनके सैटलाइट्स को अंतरिक्ष में लांच भी कर रहा है।

इस प्रोग्राम की सबसे अच्छी बात यह है कि जहां एक तरफ इसरो के अंतर्राष्ट्रीय क्लाइंट्स को करीब 90 करोड़ रूपए खर्च करने होते हैं, वहीं इन छात्रों के सैटलाइट्स को इसरो अंतरिक्ष में भेजने के लिए कोई पैसा नहीं लेता।

इसरो की पब्लिकेशन और पब्लिक रिलेशन यूनिट के डायरेक्टर देवीप्रसाद कार्णिक नें यूथ की आवाज़ को बताया, “हम छात्रों को, इसरो के मिशन्स में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं ताकि स्पेस टेकनोलोजी के क्षेत्र में वो अपनी

आईआईटीएमसेट की टीम अपनी नयी स्पेस लैब में

क्षमताओं को विकसित कर सकें।”

इसी कड़ी में जोड़ते हुए उन्होंने आगे कहा, “यह ना केवल भविष्य के स्पेस साइंटिस्ट्स और टेक्नोलॉजिस्ट बनाने में सहायक होगा बल्कि इससे भविष्य में डिज़ाइन, फेब्रिकेशन और स्पेस टेक्नोलॉजी को टेस्ट करने के लिए नए सहायक भी मिलेंगे जो हमारे अपने प्रोजेक्ट्स के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्ट्स पर भी इसरो के साथ मिल कर काम कर सकते हैं, या अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक प्रतिस्पर्धी बन सकते हैं।

एक जरुरी मिशन:

स्वयम पर काम करने के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए वघुलडे से पहले स्वयम की टीम की कमान संभालने वाले निखिल सम्भूस नें यूथ की आवाज़ को बताया, कि इस अनुभव नें उन्हें एक टीम के साथ काम करना सिखाया, यह अनुभव उन्हें जीवन भर याद रहेगा।

कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग की असिस्टेंट प्रोफेसर मनीषा योगेश खलडकर भी निखिल के विचारों से सहमत दिखी, उन्होंने कहा, “इससे छात्रों को अपने कौशल को निखारने में मदद मिली है। अब जब स्वयम लांच के लिए तैयार है, तो काफी संतोष महसूस हो रहा है, ये एक गर्व की अनुभूति है और हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।”

स्टूडेंट सेटलाइट प्रोग्राम के शुरू किये जाने के बाद से इसरो द्वारा यह पांचवा स्टूडेंट सैटेलाइट है जिसे अंतरिक्ष में छोड़ा गया है, इससे पहले एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी का एसआरएमसेट और आई.आई.टी. कानपुर का जुगनू, दो सैटेलाइट, अक्टूबर 2011 में अंतरिक्ष में छोड़े गए थे।

आई.आई.टी. कानपूर की कोर टीम जो जुगनू पर काम कर चुकी थी, अब फायरफ्लाई एयरोस्पेस के साथ काम कर रही है। यह कंपनी, एयरोस्पेस टेकनोलोजी को विकसित करने और उन्हें अंतरिक्ष में भेजने का काम करती है।

इस तरह के सेटलाइट प्रोग्राम से शानदार नतीजे प्राप्त किये जा सकते हैं। ये केवल छात्रों के उत्साह बढ़ाने के प्रयत्न नहीं हैं बल्कि इस तरह के अनुभव उन पर जीवन भर के लिए गहरी छाप छोड़ जाते हैं। गलतियां करने और उनसे सीखने की यह प्रक्रिया ही वैज्ञानिक सोच को समझने का एक जरिया है।

और सबसे अहम बात ये कि छात्रों द्वारा बनाए गए ये सेटलाइट काफी कम लागत में बनने वाले और बेहद प्रभावशाली हैं। स्पेस टेकनोलोजी के ये नए खिलाड़ी हो सकता है भारत में छोटे सैटलाइट्स की एक नयी इंडस्ट्री की शुरुवात करें।

मनु प्रिय बैंगलोर की एक स्वतंत्र साइंस जर्नलिस्ट और पैन इंडिया के जमीन से जुड़े पत्रकारों के नेटवर्क 101रिपोर्टर्स.कॉम की सदस्य हैं।

फोटो आभार: 101रिपोर्टर्स

फीचर्ड इमेज और बैनर इमेज : अरुण सरकार/गैटी

 

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