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सालों से असुरक्षा में जी रहे एडहॉक शिक्षकों से कैसे सुधरेगा शिक्षा का स्तर?

लक्ष्मण यादव:

किसी देश की प्रगति का सबसे सटीक आंकलन उसकी शिक्षा-व्यवस्था की वस्तुस्थिति से लगाया जा सकता है। एक शासन व्यवस्था अपने छात्र, शिक्षक, पाठ्यक्रम, शिक्षण संस्थानों आदि को जितना अधिक आज़ादख़याल, तनावमुक्त, तार्किक-वैज्ञानिक व सर्वसुलभ बनाती है, वह मिलकर उतना ही ठोस, विकसित व बराबरी का समाज बनाते हैं। राज्य (स्टेट) यदि शिक्षा व्यवस्था के प्रति अपनी भूमिका को लगातार सीमित करता जाए, तो उस देश का बुनियादी संतुलन प्रभावित होगा। भारत में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा का पूरा तंत्र वर्तमान में अपने सबसे चुनौतीपूर्ण दौर में हैं। इसमें भी उच्च शिक्षा की दशा बेहद चिंतनीय है।

अभी पिछले दिनों ही खबर आई कि वर्तमान केंद्र सरकार ने यूजीसी को आवंटित बजट में 55% कटौती कर दी है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि यह कटौती पिछली सरकारों से ही क्रमिक रूप से चली आ रही है। यदि कटौती शिक्षा बजट में है, तो उसकी सीधी मार शिक्षकों व छात्रों के माध्यम से देश के शैक्षणिक परिवेश पर पड़ना स्वाभाविक है। यह एक नीतिगत प्रश्न है, जिसके मूल में सार्वजनिक पूंजी से संचालित राज्य की प्राथमिकताओं और निजी व्यावसायिक मुनाफ़े का गणित है। एक कल्याणकारी राज्य की यह प्राथमिकता होनी चाहिए, कि उच्च शिक्षण संस्थान मुनाफ़ा केन्द्रित कारखाने ना बन जाएँ, वरना इनसे जागरूक नागरिक नहीं, आज्ञाकारी रोबोट निकलने लगेंगे।

शैक्षणिक गुणवत्ता के लिए छात्र-शिक्षक अनुपात का संतुलन एक आवश्यक मापक है। यह सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है। यदि शिक्षण संस्थानों में यह संतुलन ना हो, तो उनमें शैक्षणिक गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित होगी। कल्पना कीजिये कि किसी संस्थान में आधे से अधिक शिक्षक अस्थाई हों, तो वहाँ का शैक्षणिक माहौल कैसा होगा? अस्थाई शिक्षक का अर्थ यह है, कि एक स्थाई शिक्षक के स्वीकृत रिक्त पद पर निश्चित समय के लिए वैकल्पिक व्यवस्था के तहत पात्र व योग्य व्यक्ति को अस्थाई शिक्षक के तौर पर नियुक्त किया जाना। इस व्यवस्था का कोई सैद्धांतिक अस्तित्व नहीं है। लेकिन यह स्थायी तौर पर व्यवस्था का अंग बनती गई, जिसे एक सामान्य परिघटना मानना इसके दूरगामी दुष्प्रभावों को साजिशन नज़रअंदाज़ करना है।

कागज़ी तौर पर यदि समझा जाए तो यह व्यवस्था एक खास चरण की मजबूरी से उपजी है। इसके मूल में यह भाव निहित है, कि स्थायी व्यवस्था के औपचारिक रूप से पूरा हो पाने में लगे समय में भी छात्र व अध्यापन कार्य में किसी भी प्रकार का व्यवधान ना आए। यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन)  का सख्त निर्देश है कि किसी भी शिक्षण संस्थान में अधिकतम एक चौथाई अस्थाई शिक्षक ही हो सकते हैं और एक अस्थाई शिक्षक की नियुक्ति 4 माह से अधिक समय के लिए नहीं की जा सकती है। यह शर्तें बहुत सोच-समझकर बनाई गईं, जिसमें छात्र व शिक्षक दोनों के हित के साथ एक बेहतर शैक्षणिक माहौल की समझ निहित है। इसका एक लाभ यह भी है, कि आकादमिक जगत को कैरियर के रूप में अपना विकल्प चुनने वाले एक योग्य व पात्र युवा को शैक्षणिक अनुभव मिलता है, जिससे वह स्थायी होने पर एक बेहतर शिक्षक साबित हो। ज्ञान व अनुभव मिलकर शिक्षक को एक चलता फिरता शैक्षणिक संस्थान बनाते हैं।

अस्थाई तंत्र से जुड़ा सिक्के का दूसरा पहलू बेहद चिंताजनक है। शिक्षक व छात्र का संबंद्ध मात्र पाठ्यक्रम केन्द्रित मानना समग्र शिक्षण प्रक्रिया का सबसे उथला विश्लेषण है। छात्र अपने शिक्षक से गहरे तौर पर जुड़ता है। यह जुड़ाव सीखने-सिखाने की गतिशील प्रक्रिया में अनवरत जारी रहता है। जब शिक्षक लंबे समय से अस्थाई होने की पीड़ा से ग्रस्त हो और छात्र, उसके परिजन एक स्थायी शिक्षा की उम्मीद रखते हों, तो यह इस शोषणकारी व्यवस्था में कैसे संभव है। अस्थाईपन जब एक स्थायी विकल्प बन जाए, तो यह एक विचित्र सी परिस्थिति को जन्म देता है। निर्धारित समय सीमा के भीतर स्थायी नियुक्ति ना कर पाना एक समस्या है, क्योंकि हमने अकादमिक जगत को कम गंभीर मानकर उसे बोझिल औपचारिकताओं में उलझा रखा है। जुगाड़ू तरकीब से अस्थाई विकल्प को ही स्थायी बना दिया जाए, तो यह समग्र शैक्षणिक माहौल से प्रतिघात करना है। नौकरी की अनिश्चितता और बेदखली का अदृश्य साश्वत दबाव कब एक शिक्षक को भीतर से खोखला कर देता है, इसे समझना मुश्किल नहीं है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में यह समस्या अपने सबसे गंभीर रूप में वर्षों से बनी हुई है। कुल स्वीकृत पदों का लगभग 50 फीसदी हिस्सा अस्थाई शिक्षकों का है, जिन्हें तदर्थ (एडहॉक) शिक्षक कहते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में स्थिति और भी भयावह है। कई युवा ऐसे हैं, जिन्होंने दो-दो दशकों तक एक अस्थाई शिक्षक के बतौर अध्यापन कार्य किया है। क्या ऐसी परिस्थितियाँ तमाम वैकल्पिक प्रावधानों का मज़ाक और शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने में भागीदार नहीं हैं? एक शिक्षक यदि कई वर्षों तक अस्थाई तौर पर काम करता है, तो दरअसल वह व्यवस्था का हिस्सा ना होकर सत्ता पर निर्भर मजबूर ‘बेचारा’ मात्र रह जाता है। यह व्यवस्था सामंती मानसिकता वाले सत्ताधीशों को बहुत रास आई है, इसलिए कई वर्षों से बदस्तूर जारी है।

अस्थाई तंत्र के अंतर्गत एक परिस्थितिजन्य मजबूरी बेहद कमजोर, रीढ़विहीन, पंगु इंसान पैदा करती है, जो अधिकांशतः इस शोषणकारी तंत्र में अनुकूलन के चलते शिकार होते जाते हैं। इस व्यवस्था के शोषणकारी होने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि एक अस्थाई शिक्षक और व्यवस्था के बीच आने वाली हर पायदान पर उसका शोषण होता है। अकादमिक जगत की रूढ़ जातिवादी परंपरागत व्यवस्था को लेकर लागातार गंभीर आरोप लगाए जाते रहे हैं। ऐसे में इस व्यवस्थागत शोषण का सबसे आसान शिकार निःसन्देह समाज के वंचित तबके ही होते हैं, जिसमें महिलाएं, दलित व पिछड़े समुदाय के लोग आते हैं। इस तंत्र में सबसे ज़्यादा हिंसक शोषण का शिकार यह समूह आवाज़ उठाने से भी हिचकता है, क्योंकि एक तो वह पहली बार इस स्तर पर पहुंचा है। दूसरा यह पूरी व्यवस्था उनके हाथों में संकेंद्रित है, जो किसी भी रेंगने वाले स्वजातीय चाटुकारों को उसका पुरस्कार और ऐसा करने को नकारने वाले व ‘कुजातीय’ को कैरियर बर्बाद करने तक की अघोषित सज़ा देते रहे हों।

विचारणीय है, कि देश के सबसे प्रतिष्ठित, राष्ट्रीय राजधानी में स्थित और केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थिति यदि इतनी दयनीय है, तो देश के अन्य हिस्सों में असल हालत क्या होगी? पूर्वाञ्चल के मेरे एक अति पिछड़े जिले का एकमात्र महाविद्यालय प्रति वर्ष 3000 विद्यार्थियों को डिग्रियाँ बाँट रहा है, जबकि उसके कुल 12 विभागों में से 9 विभागों में एक भी स्थाई शिक्षक नहीं हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में बताया कि देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही प्राध्यापकों के लगभग 40 फ़ीसदी पद रिक्त हैं। उनमें सबसे ज्यादा रिक्त पदों की संख्या एससी, एसटी, ओबीसी की है। यदि उच्च शिक्षा की यह स्थिति है, तो माध्यमिक व प्राथमिक शिक्षक के बारे में सोचना त्रासद होगा।

ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठता है, कि हजारों की संख्या में इन स्वीकृत पदों पर स्थायी नियुक्तियाँ ना करना क्या दरअसल उच्च शिक्षा तंत्र के जानबूझ कर कमज़ोर किए जाने से लेकर दलित, पिछड़े समुदाय व महिलाओं को परिवर्तनकामी संचालन तंत्र से दूर रखने की एक साज़िश नहीं है ? एक लोकतान्त्रिक, प्रगतिशील समाज में क्या ऐसे हज़ारों अस्थाई शिक्षकों के भरोसे स्थायी, विकासपरक, नए विचारों वाली शिक्षा दिये जाना अपने समय-समाज के साथ होने वाला सबसे बड़ा धोखा नहीं है? आदर्श छात्र-शिक्षक औसत के सामने हमारी वस्तुस्थिति यदि इतनी दयनीय है, तो विश्व के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में अपने देश के संस्थाओं का नाम खोजना सदी का सबसे बड़ा मज़ाक नहीं तो और क्या है?

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