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अम्बेडकर को भगवान नहीं इंसान के रूप में ही देखिए

NEW DELHI, INDIA MARCH 21: The Prime Minister, Shri Narendra Modi paying floral tributes at the portrait of the Dr. B.R. Ambedkar at the foundation stone laying ceremony of the Dr. B.R. Ambedkar National Memorial, in New Delhi.(Photo by Parveen Negi/India Today Group/Getty Images)

प्रोफेसर रतन लाल:

जून 5, 2016 को दौसा में स्वाभिमान संघ और यूथ फॉर बुद्धिस्ट इंडिया का एक विशाल कार्यक्रम था – तक़रीबन 20-25 हजार लोग एकत्रित थे। इस सभा की खास बात यह थी कि शाम पांच बजे से लेकर रात दो बजे तक लोग इस कार्यक्रम में डटे रहे। मैं भी आमंत्रित था, वक्ता के तौर पर। पहली बार इतनी बड़ी सभा `को संबोधित करना था, इसलिए थोड़ा रोमांचित भी था।

रात बारह बजे के बाद मुझे मौका मिला, मैंने अपने संबोधन में कहा, “मैं तो आया था पांच तारीख को बोलने लेकिन अब छः तारीख को बोल रहा हूँ।” कार्यक्रम की अप्रत्याशित सफलता के लिए मैंने आयोजकों को साधुवाद दिया। अपने संबोधन में मैंने कहा कि, “बाबा साहब को भगवान बनाकर मत पूजिए, नहीं तो आप एक साजिश के शिकार हो जायेंगे। बाबा साहब को इंसान के रूप में ही देखिए, इंसान के रूप में देखने से वे हर समय दिशा देंगे और जब आपको दिशा मिलेगी तब आपकी दशा भी ठीक रहेगी।”

नवम्बर 25, 1949 को संविधान सभा के समक्ष दिए गए डॉ. अम्बेडकर के भाषण को उद्धृत करते हुए मैंने कहा कि, “बाबा साहब ने संविधान निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया, पर यह बाबा साहब के सपनों का संविधान नहीं है। यदि यह उनके सपनों का संविधान होता तो आज इस देश में दलितों की यह हालत नहीं होती, वे दलितों के हितों को और अधिक सुरक्षित करते।” अर्थात् संविधान में सिर्फ अम्बेडकर के विचार नहीं हैं बल्कि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लोगों के विचारों का सामंजस्य है। लेकिन मेरा यह वक्तव्य मेरी आलोचना का कारण बना।

लौटते वक़्त मैं थोड़ा अचंभित था। मैं सोच रहा था कि बात तो मैंने ठीक ही की थी फिर पढ़े-लिखे लोगों को क्यों परेशानी हुई? घर पहुंचा तो देश के एक बहुचर्चित पत्रकार हैं और दो दशक से ज्यादा समय से मेरे मित्र का एक संदेश था, जिसमें आउटलुक मैगज़ीन का एक लिंक शेयर किया गया था – इस नोट के साथ कि सब काम छोड़कर इसे पढ़ो। मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने तुरंत उस लिंक को खोला, जिसमें देश के एक वरिष्ठ और चर्चित पत्रकार श्री रामबहादुर राय का कथित इंटरव्यू छपा था। लेख का नाम था – “Ambedkar’s Role In The Constitution Is A Myth.” मैंने अपने मित्र को फोन किया, चर्चा हुई, और तय हुआ कि जवाब दिया जाना चाहिए। उनकी राय थी कि बगैर किसी का नाम लिखे, सैद्धांतिक रूप से इसका जवाब दिया जाना चाहिए। मैंने बहुत सोचा, परन्तु मेरा मन नहीं माना और मैंने उस लेख का लिंक शेयर करते हुए छोटा सा पोस्ट लिखा:

“रामबहादुर राय, चर्चित ‘पत्रकार’ हैं और आजकल Indira Gandhi National Centre for Arts के चेयरमैन हैं, जानकारी के मुताबिक पूर्व में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) के महासचिव रह चुके हैं। अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक में उनका इंटरव्यू छपा है, “Ambedkar’s Role In the Constitution Is A Myth.” इन साहब का कहना है, “Ambedkar’s role was limited, so that whatever material B.N. Rau gave him, he would correct its language. It was like RAW or IB, where foot soldiers write reports in broken English and IPS officers turn it into good English, capable of being presented to PM. So, Ambedkar did not write the constitution. In fact, he said, if Constitution is ever to be set afire, then ‘I will be the first to do so’. He said this in anger, reacting to being mocked for amending a constitution he himself wrote, during RS debate on the creation of Andhra Pradesh. But he also said when he was calm.” ( संविधान में अम्बेडकर की भूमिका महज़ एक भ्रम है, जो भी डॉक्यूमेंट B.N Rau उन्हें देते थे  वो बस उसकी भाषा ठीक करने का काम करते थे। ये बिल्कुल RAW या IB की ही तरह था, जहां जवान टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में रिपोर्ट तैयार करता है और कोई IPS अफसर उसे अच्छी अंग्रेज़ी के साथ प्रधानमंत्री के सामने रखता है। यानी कि अम्बेडकर ने संविधान नहीं लिखा। बल्कि उन्होंने तो कहा था कि अगर कभी संविधान को जलाने की बात उठी तो उसमें आग लगाने वाला मैं पहला व्यक्ति रहूंगा। ये उन्होंने गुस्से में आकर कहा था। और गुस्से की वजह थी एक  आंध्रप्रदेश  के निर्माण पर राज्यसभा के बहस के दौरान एक नियम में बदलाव करने पर उनकी खिल्ली उड़ाना जो उन्होंने खुद ही बनाया था। लेकिन उन्होंने ये तब भी कहा था जब वो गुस्से में नहीं थे।

इस लेख पर मेरी टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी, “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि मैं जो भी हूँ बाबा साहब की वजह से हूँ। लेकिन वर्त्तमान सरकार का असली चेहरा ऊपर के वक्तव्यों में दिख रहा है। फेसबुक पर क्रांति करने वाले साथियों, धर्मनिरपेक्षता की रट लगाने वाले दलों और बाबा साहब के भक्तों क्या ऊपर जो विचार, अधकचरा ज्ञान और अर्द्ध-सत्य परोसा जा रहा है, उसका जवाब देंगे या हवा में ही क्रांति करेंगे।” राय साहब के बारे में मेरी आपत्ति बाबा साहब को सिर्फ अंग्रेजी ठीक करने तक में बाँध दिए जाने तक में थी।

वैसे भी संविधान-निर्माण और बाबा साहब को लेकर बार-बार, तरह-तरह के विचार लोग व्यक्त करते रहते हैं। लेकिन अब मेरी दिलचस्पी संविधान निर्माण और डॉ. अम्बेडकर की भूमिका में बढ़ने लगी।

डॉ. अम्बेडकर के व्यक्तित्व को एक शब्द में नहीं बाँधा जा सकता हैं, वो एक इंसान के रूप में काफी कुछ थे – एक विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री, अध्यापक, पत्रकार, संपादक, समाज-सुधारक, आंदोलनकारी, राजनेता इत्यादि। संविधान-निर्माण में उनका योगदान उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का एक पहलु है– पूरा नहीं। जैसे एक पाठ के असंख्य पठन हो सकते हैं, उसी तरह डॉ. अम्बेडकर के भी असंख्य पठन हो सकते हैं, उनके व्यक्तित्व, योगदान और कार्य पर संवाद हो सकता है। लेकिन परिपेक्ष्य और सन्दर्भ के साथ, पूर्वाग्रह से नहीं।

संविधान सभा को संबोधित करते हुए 25 नवम्बर 1949 को डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं कहा था, “महान से महान व्यक्ति के चरणों में अपनी स्वतंत्रता अर्पित ना करें, अथवा इतनी शक्ति उसके हाथ में सौंपने का विश्वास ना करें, जिससे कि वह अपनी संस्थाओं को ही उलट दे। ऐसे महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में ना चूकें; किन्तु कृतज्ञता व्यक्त करने की भी एक सीमा होती है।” लेकिन भारत के अभिजात वर्ग की बौद्धिक कंगाली देखिए, आज तक उन्हें सिर्फ दलितों का मसीहा बनाकर ही पेश किया है। भारत में social exclusion का इससे बड़ा उदहारण और क्या हो सकता है? हालाँकि मैं प्रभु की अवधारणा में विश्वास नहीं करता, लेकिन डॉ. अम्बेडकर को समझने में तुलसीदास की यह पंक्ति उपयुक्त बैठती है, “जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखि तिन तैसी।”

इस वर्ष भारत में ही नहीं, दुनिया भर के सैकड़ों देशों ने डॉ. अम्बेडकर की 125वीं जयंती मनाई गई। ‘संविधान-दिवस’ के उपलक्ष्य  में 27 नवम्बर, 2015 को लोकसभा को संबोधित करते हुए श्री मोदी ने कहा था, “बाबासाहेब की विशेषता की ओर हम नज़र करेंगे। दीर्घदृष्टा और महापुरुष कैसे होते हैं, इसका एक उदहारण है कि अगर किसी को सरकार पर प्रहार करना है तो भी Quotation बाबासाहेब का काम आता है। किसी को अपने बचाव के लिए उपयोग करना है, तो भी Quotation बाबासाहेब का काम आता है। किसी को अपनी Neutral बात बतानी है तो भी Quotation बाबासाहेब का काम आता है। इसका मतलब उस महापुरुष में कितनी दीर्घदृष्टि थी, कितने व्यापक तौर पर उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया था कि जो आज भी विरोध करने के लिए वो मार्ग दर्शक है, शासन चलाने के लिए भी मार्ग दर्शक है। Neutral, मूक बैठे लोगों के लिए भी यह मार्गदर्शक है। यह अपने आप में थोड़ा अजूबा है। वरना विचार तो कई होते हैं, हर विचार एक ही खेमे के काम आते हैं। सब खेमों के काम नहीं आते। एक ही कालखंड के लिए काम आते हैं। सब कालखंड के लिए काम नहीं आते। बाबासाहेब की विशेषता रही है कि उनके विचार हर कालखंड के लिए, हर पीढ़ी के लिए, हर तबके के लिए उपकारक रहे हैं। मतलब उन विचारों में ताकत थी। एक तपस्या का एक अर्थ था जो राष्ट्र को समर्पित था और 100 साल के बाद का भी देश कैसा हो सकता है, यह देखने का सामर्थ्य भी उसमें था।”

लेकिन यहाँ यह सवाल खड़ा करना जरुरी है कि क्या श्री मोदी झूठ बोल रहे हैं या फिर वैसे लोग झूठ रहे हैं, जो डॉ. अम्बेडकर के बारे में तरह-तरह के ऊल-जुलूल सोशल मीडिया या मीडिया के अन्य स्रोतों में बोल रहे हैं या लिख रहे हैं? क्योंकि डॉ. अम्बेडकर के सम्बन्ध में दोनों में से एक ही सत्य हो सकता है, इसलिए उन्हें इसका जबाव देना चाहिए।

डॉ. अम्बेडकर और संविधान की चर्चा करते हुए श्री मोदी ने कहा, “आप कल्पना कर सकते हैं कि एक दलित माँ का बेटा जिसने जन्म से जीवन तक सिर्फ यातनाएं झेलीं, अपमानित होता रहा, उपेक्षित रहा, डगर-डगर उनको सहना पड़ा। उसी व्यक्ति के हाथ में जब देश के भविष्य का दस्तावेज बनाने का अवसर आया, तो इस बात की पूरी संभावना होती कि यदि वह हम जैसा मनुष्य होता तो वो कटुता, वो जहर, कहीं न कहीं प्रकट होता। बदले की कहीं आग निकल आती, कहीं भाव निकल आता। लेकिन यह बाबा साहब अम्बेडकर की ऊंचाई थी कि जीवन भर उन्होंने झेला लेकिन संविधान में कहीं पर वो बदले का भाव नहीं है। यह उस महानता, उस व्यक्तित्व की ऊंचाई है, जिसके कारण ऐसा संभव होता है…उस महापुरुष ने उन सारे जहर को पी लिया और हमारे लिए अमृत छोड़ गए।”

संस्कृत के एक श्लोक को पढ़ते और उसकी व्याख्या करते हुए श्री मोदी ने आगे कहा, “साधु की सच्ची परीक्षा कठिन परिस्थितियों में होती है। जैसे कपूर को आग के पास लाने पर उसे जलने का डर नहीं रहता, वह खुद जलकर अपनी सुरभि से सबको मोहित करता है… यह बात बाबासाहेब के लिए एकदम  सटीक है… अपने साथ इतनी कठिनाइयां हुई, यातनाएं हुई, उसके बावजूद भी हमारे पूरे संविधान में कहीं पर भी बदले का भाव नहीं है। सबको जोड़ने का प्रयास है। सबको समाहित करने का प्रयास है। और इसलिए बाबासाहेब को विशेष नमन करने का मन होना स्वाभाविक है।”

तो यह है हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का बाबासाहेब के बारे में विचार! हम सब जानते हैं कि मोदीजी की इज़ाज़त के बिना सरकार से लेकर उनकी पार्टी और उनकी सहयोगी पार्टियों तक की हिम्मत नहीं है कि उनके इच्छा के बगैर एक पत्ता भी हिल जाए। हम यह भी जानते हैं कि आजकल हमारे बहुत सारे साथी छोटे-छोटे पद पाने के लिए सरकार और बीजेपी से जुड़े छोटे-छोटे नेताओं के पास भी कैसे पिछलग्गू बने रहते हैं, विश्वविद्यालय में भी यही आलम है। तो फिर यह कैसे हो सकता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की इच्छा के बिना सरकार और पार्टी से जुड़े लोग कुछ भी कहते रहें, जैसा कि कई ज्वलंतशील मुद्दों पर बीजेपी के कई सांसद और नेता बोलते रहते हैं?  कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं?

अपने भाषण में श्री मोदी, डॉ. अम्बेडकर को उधृत करते है, “I feel, however, a good constitution may be, it is sure to turn out bad because those who are called to work it, happened to be a bad lot. However bad a constitution may be, it may turn out to be good if those who are called to work it, happened to be a good lot. The working of a constitution does not depend wholly upon the nature of the constitution.”

अर्थात्, संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको क्रियान्वित करने वाले ख़राब लोग हों तो वह संविधान ख़राब ही होगा। उसी तरह से संविधान चाहे जितना बुरा हो यदि उसे लागू करने वाले लोग अच्छे हैं तब वह संविधान अच्छा होगा। एक संविधान अच्छी तरह से काम करेगा, यह सिर्फ उसके प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान को लागू करने वाले लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है।

अब आइये जरा आज़ादी के सात दशक बाद देश के हालात पर नज़र डालें। सरकार द्वारा 2015 में प्रकाशित जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं, जिसमें 17.91 करोड़ गाँव में रहते हैं बाकी 6.48 करोड़ परिवार शहर में रहते हैं। गाँव में रहने वाले 17.91 करोड़ परिवार में से 7.05 करोड़ परिवार की आमदनी दस हजार रूपए से कम है, 5.39 करोड़ परिवार खेती बाड़ी पर आश्रित है, 9.16 करोड़ परिवार दिहाड़ी मजदूरी, 44.84 लाख परिवार घरेलू नौकरी, 4.08 लाख परिवार कूड़ा बीनने और 6.68 लाख परिवार भिक्षावृति पर अपना जीवन यापन करते है। ग्रामीण परिवारों में 5 प्रतिशत सरकारी नौकरी तथा 3.57 प्रतिशत निजी नौकरी करते हैं। कुल ग्रामीण आबादी में 56 प्रतिशत भूमिहीन हैं। गाँव में 13.25 प्रतिशत परिवार एक कमरे के कच्चे घर में रहते हैं।

तो यह है सरकारी आंकड़ा! अब आइये संविधान की मूल भावना को समझें: स्वतंत्रता, समता और बंधुता। इस पर विस्तृत चर्चा बाद में। प्रश्न उठता है कि क्या हमारे देश को चलाने वाले हुक्मरानों ने संविधान की मूल भावना को समझकर उस दिशा में कार्य करने का प्रयास किया है क्या? यदि किया होता तो जितनी  बड़ी खाई ऊपर दिए गए सरकारी आंकड़ों में दिखाई दे रही है, शायद उतना कभी नहीं होता। और अंत में, देश के हुक्मरान में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, विभिन्न शोध संस्थान, विश्वविद्यालय और संचार के विभिन्न स्रोत भी आते हैं। इसलिए जिन लोगों ने इन्हें चलाया है/नियंत्रित किया है उनका social auditing तो जरुर किया जाना चाहिए।

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