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बिहार में गिरता शिक्षा का स्तर, क्या कर रही है सरकार और सिविल सोसाइटी?

Azharuddin Ismail, who acted as young Salim in the Oscar-winning movie "Slumdog Millionaire", sits with his friends in a classroom before attending their school's cultural day in Mumbai February 28, 2009. Ismail returned to Mumbai on Thursday after attending the 81st Academy Awards in Los Angeles. REUTERS/Punit Paranjpe (INDIA) - RTXC6VT

सुजीत कुमार:

हाल ही में बिहार काफी खबरों में रहा है। भाजपा की पिछले वर्ष राज्य चुनाव में हार, शराबबंदी का फरमान, बढ़ते अपहरण और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र नेता का बिहारी कनेक्शन। यह सब खूब राष्ट्रीय मीडिया में चला और बहुत सारे वक्ताओं ने टीवी चैनलों में जाकर अपनी-अपनी बात कही। इस दौरान पिछले महीने, बिहार में टॉपर घोटाला का भी मामला सामने आ गया, और देश के मीडिया चैनलों ने बिहारी होने को अभिशाप बना दिया। हालांकि, कुछ चुनिन्दा मीडिया ने इस फर्जीवाड़े को दिखाकर एक हद तक अच्छा किया, नहीं तो सरकार पता नहीं कब कुम्भकर्ण के नींद से जागती।

सुशासन सरकार ने आनन-फानन में अनेकों फरमान जारी कर दिए – फ़र्ज़ी तरीके से टॉपर बने छात्रों पर मुकदमा, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्य्क्ष का तबादला और फिर मुक़दमा, सम्बंधित कॉलेज के मालिक पर मुकदमा। इस दौरान विपक्षी पार्टी के नेताओं ने भी इस फर्ज़ीवाड़े को नितीश सरकार की विफलता बताई और इसका साथ सिविल सोसाइटी ने भी बखूबी दिया। दूसरे राज्यों में पढ़ रहे छात्रों को भी इस शर्मनाक घटना के कारण कोप का भागी बनना पड़ा। सबसे शर्मनाक तो ये बात रही कि एक फ़र्ज़ी टॉपर, रूबी राय को सरकारी तंत्र नें पिछले दिनों गिरफ्तार कर लिया और अब सोशल मीडिया में उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है।

हालांकि, ये सब को ज्ञात है कि इस पूरी सांठ-गांठ मे उस लड़की की भूमिका क्या रही होगी। लेकिन, हमारा अाधुनिक समाज किसी का उपहास उड़ाने से पहले ये सोचने पर कम ही जोर देता है कि इस तरह की घटनाएँ क्यों होती हैं और इसके पीछे असली  कारण क्या है। किन्तु,  इस क्रिया और प्रतिक्रिया के दौर में सबसे जरुरी सवाल पीछे छूट गया और इन पर चर्चा भी ना के बराबर हुयी है। जैसे, शिक्षा का स्तर बिहार  में इस तरह अचानक गिर गया या काफी लम्बे समय से चलता आ रहा है। दूसरा यह कि क्या इन सबके लिए सरकार जिम्मेवार है या समाज की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। तीसरा, वैश्वीकरण के युग में परीक्षा के अंक और ज्ञान के आकलन का सम्बन्ध।

इस पर ज्यादा कहने की जरुरत नहीं कि शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समाज के विकास में क्या योगदान है, और यह  क्यों जरूरी है।  तब, सवाल यह है कि बिहार जैसे गरीब राज्यों में फ़र्ज़ी टॉपर कैसे और क्यों बन रहे है? अगर हम गौर करें तो इन कारणों पर विचार किया जा सकता है:

सरकार का कमजोर शिक्षा कार्यक्रम

पिछले वर्ष ‘प्रथम’ संस्था द्वारा जारी ‘असर’ नाम से एक रिपोर्ट में यह बताया गया कि कैसे बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपनी कक्षा के अनुकूल जानकारी नहीं रखते बल्कि काफी पीछे रहते हैं। संस्था ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया कि विद्यालयों में छात्रों का पंजीकरण तो बढ़ा है, किन्तु उनकी कक्षा में उपस्थिति अब भी काफी कम है। इस बात को नितीश कुमार खुद भी कई सामूहिक जगहों पर स्वीकार चुके हैं। यह साफ़ है कि सरकार की नजर में कम से कम ये जानकारी है। दूसरीओर, राज्य सरकार को  ये भी ज्ञात है कि कॉन्ट्रैक्ट पर बहाल किये गए अधिकांश शिक्षकों की स्थिति क्या है, और उन से हमारी क्या अपेक्षा होनी चाहिए।

शुरुवात में सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट पर बहाल शिक्षकों का वेतनमान दिहाड़ी मजदूर से भी कम तय किया और नियुक्ति का आधार मेट्रिक, इंटर और ग्रेजुएशन में प्राप्त अंको के आधार पर किया। इसमें भी घोटाला सामने आ रहा है, कि कैसे लोगो ने नौकरी के लिए फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट इकठ्ठा किए। यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि इन कॉन्ट्रैक्ट पर बहाल शिक्षकों को जो वेतन मिलता है, वो भी सरकार के रहमो करम पर कभी चार महीने में, तो कभी पांच महीने में और कभी-कभी तो ये समय उस से भी अधिक हो जाता है।

वित्तरहित कॉलेज और सफलता के आधार पर अनुदान

बिहार में सैकड़ो ऐसे कॉलेज हैं, जो राज्य सरकार के बिना आर्थिक सहायता के चलते थे और पढ़ाने वाले शिक्षक भी राम भरोसे काम करते थे।  किन्तु, नीतीश सरकार ने एक फार्मूला निकाला, जिसका मुख्य आकर्षण यह था कि जो कॉलेज अंकों के आधार पर अच्छा प्रदर्शन करेंगे, उनके लिए अनुदान की राशि उतनी ही ज्यादा होगी। फिर क्या था, इन कॉलेजो ने भी कमर कस ली और बन गए टॉपर बनाने का कारखाना। दूसरी और, प्रतियोगी परीक्षाओं में नंबर के खेल के कारण अच्छे अंक लाने की होड़ मची है, और इसके लिए वो किसी तरह के साठ-गाँठ से नहीं हिचकते। इस प्रक्रिया में, जिसकी जैसी चलती है, वो व्यव्यस्था के साथ मिल वैसा इंतज़ाम कर लेता है। जैसे, कॉपी बदलवाने का ठेका, परीक्षा केंद्र खरीदना, इत्यादि-इत्यादि।

सिविल सोसाइटी

बिहार में तरक्की का पैमाना बिलुकल ऊर्ध्वकार है, लॉटरी लगने जैसा। बिहार की राजधानी पटना में जाएंगे तो प्राइवेट कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह फैले हैं। जाहिर है, वो एक दिन में नहीं बल्कि वर्षों की प्रक्रिया की उपज है। जहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक रायफलधारी बॉडीगार्ड से घिरे होते हैं, और उनकी पहुँच सत्ताधारी वर्ग के करीब होती है। उनमें कई तो देश-विदेश में भी प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता दिलाने के लिए प्रख्यात हो चुके हैं। इस बानगी से साफ़ पता चलता है कि यहाँ शिक्षा का बाजारीकरण करने वाली सिविल सोसाइटी इतनी शांत क्यों बैठी है।

दूसरी और, वो सोसाइटी जिनके बच्चे कान्वेंट और मशहूर बोर्डिंग स्कूलों में जाते हैं, वो ऐसी खबरों को पता नहीं कैसे देखते हैं? लेकिन, शायद ही इस दुर्दशा के लिए एक बार सोचते होंगे। और हम जानते हैं, कि आज का निम्न मध्यम वर्गीय परिवार इन सब वाद-विवाद में कहा खड़ा होता है। किन्तु, शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देने वाली सिविल सोसाइटी इस पर क्यों बोलेगी? अगर, स्कूल और कॉलेज में अच्छी पढाई होगी तो फिर छात्र अलग से कोचिंग या ट्यूशन क्यों लेंगे? अंततः, इस प्रक्रिया में बिहार का गरीब छात्र ही शिकार बन रहा है।  क्यूंकि, ना तो वो स्कूल जहां वह पढ़ता है- अच्छी शिक्षा दे पा रहा है, और ना ही उसके पास इतने पैसे हैं कि इन रायफलधारी शिक्षकों की फीस अदा कर सके।

निगरानी, पारदर्शिता और योजना

अगर हम गौर करें तो यह साफ़ हो जाता कि सरकार का निगरानी तंत्र काफी कमजोर है या इसकी जानकारी होते हुए भी इस पर कोई उचित  कार्रवाई नहीं करना चाहता। जैसे इस तरह की घटनाओं पर सरकार तब ही रिएक्ट करती है, जब इसे मीडिया मुद्दा बना देता है और ये सरकार के लिए एक फांस बन जाती है। अतः, सरकार के लिए एक सफल निगरनी तंत्र की व्यवस्था तो जरुरी है ही, उसके साथ-साथ ये भी जरुरी है कि सरकार एक पारदर्शी व्यवस्था कायम करें जिसमे शिक्षक, छात्र और उनके माता-पिता अपने स्तर पर मुद्दों और परेशानियों को साझा कर सकें। इसके लिए, सरकार को मजबूत नीति बनाने की जरूरत है, और साथ ही इसे लागू करने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी जरुरत है।  और ये बहुत मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि जब आज राजनीतिक पार्टियां अपने एक पालनहार से पूरे राज्य में चुनाव जीत जाती हैं, तो फिर उसके जैसे पालनहार से शिक्षा व्यवस्था को क्यों नहीं पटरी पर लाया जा सकता है।

अतः, अाज बिहार सरकार को शिक्षा के मुद्दे पर जमीनी काम करने की जरूरत है। साथ ही, रूबी जैसे छात्र जो इस गलत व्यवस्था मे फंस चुके है, उनके साथ अपराधी की तरह व्यवहार करने से सरकार को बचना चाहिए। राजनीतिज्ञ, शिक्षा व्यापारी एवं अफ़सरों के इस घाल-मेल को तोड़ने के लिए मजबूत कारवाही करने की जरूरत है तथा शिक्षकों को समान वेतनमान, व्यवस्था में पारदर्शिता तथा अभिभावकों का समावेश एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था की नींव हो सकता है।

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