Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.
अभी हाल ही की एक खबर है, कोटा की एक लड़की ने जे.ई.ई. (जॉइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन) में असफल रहने के बाद आत्महत्या कर ली। इस घटना ने मेरी पिछली कई दबी हुई यादों को ताज़ा कर दिया। इसलिए मैं भी एक ऐसी ही लड़की की कहानी साझा करना चाहती हूँ, जो काफी हद तक इसी तरह का कदम उठाने वाली थी।
इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एक प्रचलित बात है, “पहले बी-टेक. करो उसके बाद अपने सपनों के बारे में सोचो।”
लेकिन कुछ लोगों को ऐसा करने के लिए बेहद तकलीफों से गुजरना होता है।
मेरे स्कूल के शुरुवाती दिनों से ही मैं, अपनी क्लास की टॉपर रही, जहाँ यह मेरे साथियों के लिए ईर्ष्या का विषय था, वहीं मेरे माता-पिता और अध्यपकों के लिए गर्व का। लेकिन मैं एक आदर्श विद्यार्थी कभी नहीं रही, हर साल के अंत में डिसिप्लिन एंड कंडक्ट (अनुशाशन और आचरण) में मुझे बी ग्रेड ही मिलता। मेरी माँ के लिए, जो उनके बचपन में काफी शांत थी, यह एक चिंता की बात थी। मैं उनसे और उनकी सजाओं से काफी डरती थी, लेकिन पढाई में मेरा अच्छा प्रदर्शन ज़ारी रहा।
जैसा भारत में सभी प्रतिभाशाली छात्रों के साथ होता है, मुझे भी यह यकीन दिलाया गया कि साइंस पढना ही सबसे अच्छा विकल्प है। और पढ़ाई में अच्छा होने के कारण मेरा साइंस के विद्यार्थी होने को पहले से ही तय कर दिया गया था। किसी ने भी यह देखना जरुरी नहीं समझा कि मेरा सबसे अच्छा प्रदर्शन हमेशा से ही अंग्रेजी में रहा। मेरी कॉपियों के आखिरी पन्ने पर लिखी छोटी-छोटी कविताओं पर ध्यान देना किसी ने भी जरुरी नहीं समझा। किसी ने भी इस बात की अहमियत नहीं समझी, कि मेरे पास टी.टी.आइ.एस. (उस समय वोग पत्रिका का छात्र संस्करण) के जूनियर रिपोर्टर का बैज था।
जब मैं नौवीं और दसवीं क्लास में थी तो मुझे साफ़ हो गया था, कि कैरिअर को लेकर मेरे पास दो ही विकल्प हैं, डॉक्टर बनना या इंजीनियर बनना। मैं एक ऐसे परिवार से हूँ जहाँ काफी सारे रिश्तेदार डॉक्टर और इंजीनियर हैं। ‘मामा’, ‘मौसी’, ‘मामा की बेटी’, ‘मौसी की बेटी’… मुझे पता था कि मेरे हर साल डॉक्टर और इंजीनियर पैदा करने वाले परिवार के इस चक्र ने निकल पाना मुमकिन नहीं है। इसके ऊपर मेरे माता पिता की समाज में ‘इज्जत’ बनाए रखने की सोच, जो और मजबूत हो जाती अगर उन्हें डॉक्टर या आइ.आइ.टी. इंजीनियर बेटी मिल जाती। जी हाँ आपने बिलकुल सही सुना, कोई भी और इंजीनियरिंग कॉलेज तो बेहद मामूली बात होती। और यह मेरी आइ.आइ.टी. वाली कजिन से नीचे होता, जिसे बिलकुल भी स्वीकार नहीं किया जा सकता था, नहीं तो मेरे माता-पिता की रिश्तेदारों और समाज के सामने नाक कट जाती।
तो मेरे एक लेखक, या एक पत्रकार, या एक फैशन डिजायनर, या इंटीरियर डेकोरेटर बनने के सपनों को गटर में बहा दिया गया। मुझे बंगाल में मेरी खुशहाल जिंदगी से निकालकर, आइ.आइ.टी. कोचिंग के गढ़ कोटा भेज दिया गया।
मेरे जीवन के 22 सालों में, कोटा में बिताए २ सालों की हर चीज को मैं याद करने से बचती हूँ। इन दो सालों के संघर्ष और बुरे अनुभव ने मुझे इस हद तक तोड़ दिया कि इनसे उबरने में और मेरे जीवन जीने के पुराने अंदाज़ में वापस आने में मेरा कॉलेज का पूरा समय निकल गया। मैं अभी भी उन यादों से उबर ही रही हूँ।
कोटा मुझे किसी अलग ही गृह के जैसे लगता था। वहां का माहौल, बंगाल जहाँ मैं पली-बढ़ी थी के माहौल से बिलकुल अलग था। मैंने वहां एक प्रॉक्सी स्कूल में दाखिला लिया और मेरे कोचिंग इंस्टिट्यूट में रोज अपनी क्लासेज के लिए जाने लगी, मैंने पूरी कोशिश की, कि पढाई के बढ़ते दबाव से उबर सकूँ लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। कोचिंग इंस्टिट्यूट का, हर महीने होने वाले टेस्ट में आने वाले मार्क्स के आधार पर बच्चों को अलग-अलग बैचेस में बांटने का एक सिस्टम था।
सबसे अच्छे मार्क्स लाने वाले बच्चों के बैच को सबसे अच्छे टीचर पढ़ाते थे और उन्हें वो सब सुविधाएं दी जाती जिससे वो जे.ई.ई. (जॉइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन) का टेस्ट अच्छे अंकों से पास कर सकें। जैसे-जैसे बच्चे कम अंकों वाले बच्चों के बैचेस में नीचे आते उनके टीचर, उतने ही कम योग्य और सुविधाएं उतनी ही कम होती जाती और इसके साथ ऊपर के श्रेष्ठ बैचेस में जाने का दबाव बढ़ता जाता था। ये कोचिंग इंस्टिट्यूट एक सर्कस की तरह थे। एक बार आप इसमें गिरे तो फिर वापस उठाना बेहद मुश्किल था। कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण एक बार आप पीछे रह गए तो वापसी कर पाना बेहद मुश्किल था।
पढाई के दबाव के अलावा भी, कोटा में जीवन बेहद मुश्किल था। अपने माता-पिता से दूर रहकर रोज की परेशानियों का अकेले सामना करना आसान नहीं होता। और साथ ही वहां कोई असल दोस्त भी नहीं मिलता। वहां सभी दोस्त प्रतियोगी होते हैं, ऐसे में किसी ऐसे इंसान को खोज पाना, जिस पर आप भरोसा कर सकें बेहद मुश्किल हो जाता है। उस पागलों के सर्कस में आप पूरी तरह से अकेले पड़ जाते हैं, मेरे साथ भी यही हुआ। मैं नए दोस्त बनाने की काबिलियत खो चुकी थी। मैं चुप-चाप और गम-सुम रहने लगी। वो लड़की जिसे डिसिप्लिन और कंडक्ट में बेहद बातूनी होने के कारण बी ग्रेड मिला करता था, अब उसकी जिंदगी में उत्साह ख़त्म हो गया था। वो कोटा में मौजूद हजारों विद्यार्थियों के बीच बस एक चेहरा भर रह गयी थी, जो उन सभी की तरह ऊपर चढ़ने के लिए संघर्ष कर रही थी।
जब मैं कोटा से वापस आई तो मैं पूरी तरह से बदल चुकी थी। मेरे अन्दर रचनात्मकता के लिए उत्साह ख़तम हो चुका था। मैं एक भी अच्छी कविता नहीं लिख पाती थी। और ऐसा उस लडकी के साथ हो रहा था जो कभी एक हफ्ते में दर्जनों कवितायेँ लिख देती थी। मैंने सालों से कोई अच्छी किताब नहीं पढ़ी थी। मेरी तर्क करने की और चीजों को समझने की क्षमता जिसकी वजह से मुझे हमेशा तारीफें मिलती थी, बेहद कम हो गयी थी। मैं बस एक ऐसा रोबोट बन कर रह गयी थी जिसे, आई.आई.टी.-जे.ई.ई. की परीक्षा पास करने के लिए प्रोग्राम किया गया था।
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा जहाँ पढाई की जानकारियों से जूझ रहा था जो मुझे परीक्षा के अंत तक याद रखनी थी, तो दूसरा मानवीय हिस्सा मेरे परिवार की उम्मीदों के बोझ से जूझ रहा था। हर वक़्त मेरे पिता मुझे याद दिलाते रहते कि. मेरी पढाई पर किस तरह उन्होंने लाखों रूपए खर्च किए हैं, जिनकी भरपाई मुझे आई.आई.टी. में दाखिला लेकर करनी होगी ताकि मुझे कोई अच्छे पैसों वाली नौकरी मिल सके। इसी तरह मेरी माँ मुझसे बार-बार कहती कि मेरे लिए उन्होंने कितने त्याग किए हैं और अगर मेरा आई.आई.टी. में सलेक्शन नहीं हुआ तो कैसे परिवार की इज्जत मिटटी में मिल जाएगी। मेरे लिए इतनी सारी चीजों से निपटना बेहद मुश्किल होता जा रहा था।
और आखिर वो दिन आ ही गया, मेरा आई.आई.टी. में सलेक्शन नहीं हो पाया। फिर इसके बाद शुरू हुआ अंदाजे लगाने और आरोपों का दौर, कि कौन इसके लिए जिम्मेदार है। मेरे माता-पिता ने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया कि उनके कारण ही मेरा आई.आई.टी. में सलेक्शन नहीं हो पाया। उन्हें और अधिक पैसे खर्च करने चाहिए थे, और अधिक समय लेना चाहिए था, मुझे और पौष्टिक खाना खिलाना चाहिए था ताकि मेरा दिमाग और अच्छे से काम कर सके, मेरी कोचिंग क्लासेज बदल देनी चाहिए थी और ना जाने क्या-क्या। लेकिन वो ये नहीं समझ पाए की इसका असल कारण तो मुझे जबरदस्ती किसी ऐसी चीज को करने के लिए कहा जाना था जिसमे मेरी कोई रूचि नहीं थी। रिश्तेदार आए और उन्होंने भी अपनी तरफ से सुझाव दिए, लेकिन मुझे नहीं लगता की वो मुझे या मेरे कैरिअर को लेकर जरा भी गंभीर थे। मेरे दादा-दादी ने कहा कि, “सभी का दिमाग एक जैसा तेज़ नहीं होता। वैसे भी परिवार में केवल एक ही आई.आई.टी. से हो सकता है ये सबके बस के बात नहीं है।” और अगर सीधे-सीधे कहें तो मेरे माता-पिता का समाज में ओहदा, उनकी नाकाबिल बेटी की वजह से गिर गया था। इसी बात पर भारतीय समाज और शिक्षा यवस्था के लिए तालियाँ हो जाए।
इन सबके बीच मैं खुद को बेहद फंसा हुआ महसूस कर रही थी। सबसे पहले मेरा आई.आई.टी. की परीक्षा में असफल होने का बोझ, उसके बाद मेरा गिर चुका आत्मविश्वास, जो मेरे रिश्तेदारों और अपनों जिन पर मैंने हमेशा विश्वास किया था उनकी बातें सुनने के बाद और अधिक गिर चुका था। मेरे माता-पिता के बुझे हुए चेहरे और बार-बार उनका दोहराना कि उन्होंने मेरी पढ़ाई पर कितना पैसा खर्च किया। यह पढाई का ,पैसों का और मानसिक नुकसान मेरे लिए बेहद ज्यादा था। मैंने कई बार आत्महत्या करने के बारे में सोचा। मैंने छुप-छुप कर सिगरेट पीना शुरू कर दिया। मैं अवसाद की स्थिति से गुजर रही थी जिसका मेरे माता-पिता को जरा भी अंदाजा नहीं था। वो बस अपनी उन चोटों पर मरहम लगाने में व्यस्त थे, जो उनके अनुसार उन्हें अपनी ही बेटी से मिली थी।
आज तीन साल के बाद मुझे ठीक से याद नहीं है कि अवसाद के इस दलदल से मैं बाहर कैसे निकली, इसमें कोई ख़ास मोड़ था या नहीं। मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया, मैं पहले से ज्यादा मुखर हो गयी और अपनी सेहत का ख़याल रखना शुरू कर दिया। और आखिर एक दिन, कॉलेज में एडमिशन होने के बाद और कॉलेज शुरू होने के कुछ ही दिन पहले सारे परिवार के बीच, मैंने मेरे माता-पिता पर अपने मन की सारी भड़ास निकाल दी। मेरे कुछ रिश्तेदार भी उस वक़्त वहां मौजूद थे। मेरे माता-पिता वह सब सुन कर हैरान और चुप थे। मेरे अन्दर कुछ टूट चुका था जिसने मुझे इस तरह से मेरे माता-पिता पर चिल्लाने के लिए विवश किया था, जिसका साहस शायद मैं कभी भी ना जुटा पाती। इतने वर्षों से मेरे मन के अन्दर जमा होता यह गुस्सा, यह हताशा बस कुछ ही पलों में बाहर आ चुकी थी। अब मुझे उस किस्से को याद रखने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैंने मेरे माता-पिता और इस समाज से डरना छोड़ दिया था और मेरी खुद की इच्छाओं का सम्मान करना सीख लिया था।
अभी मैं सिविल इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष की छात्रा हूँ। यह भी मुझे ख़ास पसंद नहीं था, लेकिन समय के साथ मुझे यह अच्छा लगने लगा। आज जीवन को लेकर मेरी सोच पूरी तरह से बदल चुकी है, और अब मैं सबकी बातें चुप चाप मान लेने वाली हाई-स्कूल की लड़की नहीं हूँ। और इसलिए मैं कोटा में पढाई के तरीकों के सख्त खिलाफ खड़ी हूँ, जहाँ कोचिंग सेंटर मशरूम की तरह सब जगह उग आये हैं। और साथ ही मैं माता-पिता के उन तरीकों के भी सख्त खिलाफ हूँ जिनसे वो अपनी इच्छाओं और अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने बच्चों पर थोपना चाहते हैं।
तमोघ्ना की तरह ही भारत के लाखों शिक्षार्थी उस भारी दबाव का सामना कर रहे हैं, जो सीखने की बजाय नंबरों पर जोर देने वाली हमारी, शिक्षा प्रणाली द्वारा उन पर डाला जाता है। शिक्षा मंत्री को ट्वीट करें और उनसे इस विषय पर कारवाही की मांग करें।
Why must students in India undergo so much pressure? Edu. Minister @PrakashJavdekar, #DoYourJobFor original article in english click here.
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Âshûtôsh Sîñgh
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Âshûtôsh Sîñgh
Ohh…common…stop blaming others for ur failure….and…plzz…dont say anything wrong about Kota….kota is really heaven…for those who study…!
Divyansh Agnihotri
Same thing hhappens with me!! My parents left me alone in the city of robots i.e. Kota due to my low ranks in test takes me to depression !!! Now within few days ago engineering result came and i m not selected !! Though they are forcing me to engineering inspite of tha i have taken admission in bsc and will see my passion within 3 yrs !!! Just kick this bloody society which deals sucess with engineering from iit’s and packages !!!!