यूथ की आवाज़ के लिए श्याम कुमार और नदीम अहमद:
Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.
दो साल पहले छत्तीसगढ़ राज्य के जशपुर के दुलदुला ब्लाक के एक गाँव से, मुस्कान (बदला हुआ नाम) नाम की एक लड़की लापता हो गयी। बाद में पता चला कि एक स्थानीय दलाल (प्लेसमेंट एजेंट) के द्वारा घरेलू काम के लिए उसे जबरन दिल्ली भेज दिया गया, जहाँ उसे एक धनाड्य परिवार में यौनिक गुलामी (सेक्स स्लेवरी) में झोंक दिया गया।
इस 15 साल की इस आदिवासी लड़की ने यूथ की आवाज़ को बताया, “उस घर की महिला हर रात मेरे हाथ-पैर बाँध देती थी और फिर अपने पति को मेरे साथ दुराचार करने के लिए बुलाती थी। मुझे अश्लील (पोर्न) फ़िल्में देखने के लिए मजबूर किया जाता था। मुझे प्रताड़ित किया जाता था और मेरे साथ मार -पीट भी की जाती थी। वह महिला शैतान का रूप थी।”
गीता (बदला हुआ नाम) जिसे जशपुर से अपर्हित कर 2005 में दिल्ली भेज दिया गया, को 20 अन्य लड़कियों के साथ बंधक बनाकर रखा गया था। वो आठ साल बाद घर लौट सकी। इन लड़कियों के अपहरणकर्ता इन्हें एक जगह पर नहीं रखते थे, इन्हें कई बार पुलिस की रेड के डर के कारण, एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता रहता था।
लेकिन एक सुबह गीता किसी तरह खिड़की तोड़कर इन अपहरणकर्ताओं के चंगुल से निकलने में कामयाब रही। वो यमुना के किनारे-किनारे चलती रही, और वहीं उसकी मुलाकात एक बुजुर्ग से हुई जिन्हें, उसने अपनी आपबीती सुनाई। इन बुजुर्ग ने दिल्ली पुलिस को इसकी खबर की और दिल्ली पुलिस गीता को उसके घर पहुँचाने में सफल रही।
गीता की वापसी 2013 में जिले की प्रमुख खबर थी। लेकिन बीते आठ सालों तक वो लापता थी, और उसे मृत मान लिया गया था। इसके बाद भी जसपुर में बच्चों के अपहरण की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई।
16 साल की अनामिका (बदला हुआ नाम) एक और ऐसी ही लड़की है जो वापस लौटी है। वो अभी भी अपने भयावह अनुभवों के बारे में बात करने को लेकर सहज नहीं है, और उसे अजनबियों से बात करनें में बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उसे कुछ महीनों पहले ही उसके रिश्तेदारों द्वारा अगवा करने और बंधक बनाए रखने के बाद दिल्ली से छुड़ाया गया था।
इस तरह कई मामलों में ये बस कुछ उदाहरण मात्र हैं, बल्कि यूनिसेफ के एक सर्वे के मुताबिक 2012 से 2014 के बीच छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के केवल पांच ब्लाक में बच्चों को अगवा कर उनकी तस्करी के करीब 1500 मामले सामने आए हैं।
छत्तीसगढ़ क्यूँ मानव तस्करी को लेकर इतना संवेदनशील है?
छत्तीस गढ़ों (यानि कि किलों) का यह राज्य एक घनी आबादी वाला राज्य है और यहाँ गरीबी की दर भी सबसे ज्यादा है। 2014 में आए एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक 47.9% लोग छत्तीसगढ़ में गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में 765 गाँव हैं। यहाँ की जनसँख्या 743160 है जिनमें 72% दलित और आदिवासी हैं। ये उपेक्षित समुदाय छोटे-छोटे ज़मीन के टुकड़ों पर खेती कर, मजदूरी कर और जंगलों से मिलने वाली चीजों को बेचकर अपना जीवन-यापन करते हैं।
यूनिसेफ के स्थानीय स्वयं सेवी संगठनों के साथ मिल कर किए गए एक सर्वे के अनुसार साल 2012 से 2014 बीच एक बड़ी संख्या में राजगढ़-सरगुजा-जशपुर कॉरिडोर से नाबालिग लड़कियों की तस्करी की गयी।
छत्तीसगढ़ के अलावा झारखण्ड और आंध्र प्रदेश से भी बच्चों की तस्करी राष्ट्रीय राजमार्गों से पश्चिम बंगाल, चेन्नई, दिल्ली और मुंबई में की जाती है।
हालांकि अगवा किए गए बच्चों की संख्या का एकदम सही अंदाजा लगा पाना बेहद मुश्किल है। अनियमित प्लेसमेंट एजेंसियां, जिनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है, राज्य में काम की सीमित संभावनाओं के कारण मजबूर लड़कियों को लुभाने में सफल रहती हैं। इस प्रकार की एजेंसियों पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है।
बड़े शहरों में जाकर रातों-रात अमीर बनने के सपने देखने वाले इन युवा लड़कियों और लड़कों पर, मानव तस्करी का शिकार बनने का सबसे अधिक खतरा होता है। प्लेसमेंट एजेंसियां खासतौर पर इनसे शहरों में नौकरी के लुभावने और झूठे वादे कर के इन्हें अपना निशाना बनाती हैं।
अधिकांश मामलों में ये दलाल अगवा किये गए बच्चों के करीबी रिश्तेदार होते हैं। उनके स्थानीय समुदाय से होने के कारण इन पर लोग भरोसा भी कर लेते हैं।
यूनिसेफ की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, यहाँ दलालों और प्लेसमेंट एजेंसियों के बीच एक साफ़ डिमांड और सप्लाई चेन फलफूल रही है, जिनके बड़े शहरों में ऑफिस होते हैं। वहीं तस्करी के बाद लाए गए ज्यादातर बच्चों को रखा जाता है और इनमें अधिकाँश लड़कियां होती हैं। जहाँ अगवा किए गए कई बच्चों को घरेलु कामों में लगा दिया जाता है, वहीं कई बच्चों को देह व्यापार में झोंक दिया जाता है।
एक बार कोई बच्चा अगर जिले की सीमा के बाहर निकल गया तो फिर उसका पता लगाना बेहद मुश्किल हो जाता है। ये एजेंसियां नियमित समय पर अपना पता और मोबाइल नंबर बदलती रहती हैं।
यूनिसेफ़ के आंकड़ों के उलट सी.आइ.डी. के, स्पेशल ड्यूटी पर तैनात अफसर पी.एन. तिवारी बताते हैं कि 2011 से 2016 के बीच मानव तस्करी के केवल 265 मामलें सामने आएं हैं, जिनमे से 192 मामले बच्चों की तस्करी के हैं। और पुलिस राज्य में पिछले पांच वर्षों में, मानव तस्करी में लिप्त 536 लोगों (दलालों और प्लेसमेंट एजेंसी के मालिकों) को पकड़ने में कामयाब रही है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर 2014 में भारत में मानव तस्करी में 2013 के मुकाबले 38.7% की वृद्धि हुई है। 2013 में दर्ज हुए 3940 मामलों की तुलना में 2014 में 5466 मामले दर्ज किए गए। इससे साफ़ हो जाता है कि सरकारी तंत्र मानव तस्करी रोकने या कम करने में पूरी तरह से विफल रहा है।
बचाव और पुनर्वास
15 साल की आदिवासी लड़की मुस्कान का पता सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक विशेष टीम ने खोजा, जब उसके माता-पिता नें काफी हिचकिचाने के बाद उन्हें जानकारी और वो फोन नंबर दिया जिससे मुस्कान फोन किया करती थी।
इस टीम ने एक एफ.आइ.आर. दर्ज करवाई जिसके बाद दिल्ली के एक इलाके में, एक घर में मुस्कान के होने का पता चला। घर के मालिक ने मुस्कान के बारे में कोई भी जानकारी होने से मना कर दिया लेकिन दिल्ली पुलिस के दबाव डालने पर उसने मुस्कान को पुलिस को सौंप दिया।
मुस्कान का पता लगाना फिर भी आसान था, क्यूंकि उसके माता-पिता के पास एक फोन नंबर मौजूद था। लेकिन सभी मामलों में इस तरह की जानकारी नहीं मिल पाती।
ऐसा लगा कि लापता बच्चों के माता-पिता पुलिस के मुकाबले स्थानीय स्वयं सेवी संगठनों की इस प्रकार की विशेष टीमों के साथ ज्यादा सहज होते हैं। वो इस तरह के मामलों में ज्यादातर विशेष टीमों की बाहरी मदद लेने को प्राथमिकता देते हैं।
जैसे 25 वर्षीया दुर्गा जो ऐसी ही एक टीम की सक्रिय सदस्य हैं। इनकी टीम अब तक जशपुर से अगवा कर दिल्ली, मुंबई और हरियाणा भेजे गए 38 बच्चों को बचा चुकी है। इनमे से अधिकाँश लोग पूर्व में स्वयं मानव तस्करी का शिकार रहे हैं।
दुर्गा ने बताया कि, “हम समूहों में गावों का दौरा करते हैं और ग्रामीणों के साथ मीटिंग कर उन्हें बच्चों की तस्करी के खतरे के बारे में आगाह करते हैं। हम परिवारों से बात कर पता लगाने की कोशिश करते हैं कि बच्चे को कब और कहाँ से अगवा किया गया था। और फिर हम उसे बचाने की संभावना पर काम करते हैं।”
“इस प्रक्रिया में पहला कदम परिवार को एफ.आइ.आर. दर्ज करवाने के लिए राजी करना होता है। कई मामलों में दोस्त और रिश्तेदार पीड़ित के साथ होते हैं जिससे उन्हें आत्मविश्वास मिलता है।” दुर्गा ने आगे कहा कि, “हम जो भी करते हैं उसमे हर दिन खतरा होता है। लेकिन वो हमें, हमारा काम करने से रोक नहीं पाता। तो जब हमें अपने प्रयासों में सफलता मिलती है तो यह काफी अच्छा लगता है।”
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं जब बच्चों को छुड़ाया गया है। राज्य सरकार इस प्रकार के संगठनों की मदद से छत्तीसगढ़ में अभी तक करीब 919 बच्चों को बचा चुकी है।
बचाई गयी लड़कियों में से कुछ आज गृहणियां हैं जो अपना सामान्य जीवन जी रही हैं। बाकियों को विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण दिए गए हैं, ताकि वो अपनी आजीविका कमा सकें और कुछ स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।
आंकड़े में असमानता का कारण
इन मामलों के अध्ययन से पता चलता है कि मानव तस्करी के अधिकांश केस, गुमशुदगी के केस के रूप में दर्ज होते हैं।
हालाँकि पिछले तीन सालों से ही पुलिस के व्यवहार में परिवर्तन आया है। जशपुर के एस.पी., जी.एस. जैसवाल बताते हैं कि, “सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद 2013 से हमने मानव तस्करी के खिलाफ कड़े कदम उठाए हैं। ऐसे कई नेशनल हाईवे हैं जिनसे, पडोसी राज्यों जैसे झारखण्ड या उड़ीसा में बच्चों की आसानी से तस्करी की जाती है।”
उन्होंने आगे बताया कि, “ये प्लेसमेंट एजेंसियां स्थानीय संपर्कों से आसानी से जरूरतमंद परिवारों का पता लगा लेती हैं, और उन्हें पैसे देकर या अच्छी नौकरी के झूठे वादे कर के, उन्हें उनके बच्चों से अलग होने पर विवश कर देती हैं। हम इस तरह की घटनाओं को रोकने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।”
जैसवाल ने, पुलिस के अब कड़े नियमों के पालन पर जोर देने की बात कहते हुए कहा कि, “गाँव की स्थिति का अध्ययन करने और उसे समझने के लिए हर गाँव में एक कांस्टेबल नियुक्त किया गया है। हमने ग्राम प्रधानों को भी, गाँव में आने-जाने वाले लोगों की लिखित जानकारी रखने और उन पर नज़र रखने के लिए कहा है। हम समय-समय पर ग्रामीण क्षेत्रों में भी पेट्रोलिंग करते हैं और वहां का दौरा करते हैं।”
इसी में जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि, “पुलिस स्थानीय संगठनों के साथ मिल कर काम कर रही है, ताकि जानकारी के अभाव को कम किया जा सके।”
2013 में छत्तीसगढ़ मानव तस्करी को रोकने के लिए प्राइवेट प्लेसमेंट एजेंसीस (रेगुलेशन एक्ट) 2013 पास करने वाला भारत का पहला राज्य बना।
इस एक्ट के अनुसार कोई भी प्राइवेट प्लेसमेंट एजेंसी 18 वर्ष से कम आयु की किसी भी महिला को काम पर नहीं लगा सकती। हालांकि इस नियम का धड़ल्ले से उल्लंघन किया जा रहा है और ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 18 वर्ष या इससे अधिक आयु की महिलाओं को भी इन गैरकानूनी प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा उनकी इच्छा के विरुद्ध बंधक बना कर रखा जाता है और इनकी भी तस्करी की जाती है।
अभी तक किसी भी प्रकार का कानूनी नियंत्रण ना होने से ये एजेंसियां बच निकलती थी।
यूनिसेफ़ के कम्युनिकेशन ऑफिसर सैम सुधीर बंदी के अनुसार, लोगों के विस्थापन और मानव तस्करी के बीच का अंतर एक पतली लकीर के समान है। मानव तस्करी के अधिकांश मामलों को विस्थापन का नाम देकर उसी के अनुसार कारवाही होती है। उन्होंने बताया कि विशेषकर जशपुर में अधिकांश लोग आर्थिक रूप से कमजोर आदिवासी हैं, जिन्हें क़ानूनी प्रक्रिया और परिणामों की जानकारी नहीं है।
पी.एन. तिवारी कहते हैं, “हर तरह की मानव तस्करी से निपटने के लिए यह कानून काफी नहीं है, यह केवल घरेलूकाम के लिए होने वाली तस्करी पर ही रोक लगा सकता है। इसका कारण इसे श्रम मंत्रालय की जगह गृह मंत्रालय द्वारा लागू करना भी हो सकता है।”
उन्होंने आगे कहा कि, “केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित ट्रेफिकिंग ऑफ़ पर्सन्स (प्रिवेंशन प्रोटेक्शन एंड रीहैब्लिटेशन) बिल, 2016 के उलट इस एक्ट में कई खामियां हैं और यह बचाव और पुनर्वास की कोई बात नहीं करता। हमें इसके लिए विशेष टीमें भी बनानी होंगी, जिन्हें सभी संसाधन उपलब्ध हों ताकि जांच प्रक्रिया में तेज़ी लाई जा सके और तुरंत बचाव अभियान चलाया जा सके।”
बदलाव की पहल
जशपुर प्रशासन ‘बेटी जिंदाबाद’ के नाम से एक पुनर्वास की योजना लाने की तैयारी कर रहा है, जिसमें मानव तस्करी के चंगुल से बचाए गए लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास किए जाएंगे। जशपुर की कलेक्टर डॉ. प्रियंका शुक्ला नें यूथ की आवाज़ को बताया कि, “हम उन क्षेत्रों को चिन्हित करने की कोशिशें कर रहे हैं, जहाँ यह योजना अमल में लाई जा सके।”
राज्य प्रशासन स्कूली बच्चों में भी मानव तस्करी को लेकर जागरूकता फ़ैलाने के प्रयास कर रहा है, और गाँवों में बच्चों की नियमित जानकारी रखने के लिए एक पंचायत रजिस्टर का प्रावधान करने के प्रयास कर रहा है।
यहाँ अहम् बात यह है कि मुस्कान, अवन्ती, गीता, और अनामिका जैसे बच्चों को तस्करी चंगुल से छुड़ाने के बावजूद हजारों बच्चे ऐसे हैं जो इस जाल में अभी भी फंसे हुए हैं, और हजारों की संख्या ऐसी है जो कभी भी मानव तस्करी में शामिल क्रूर और खतरनाक लोगों का शिकार हो सकते हैं। यह साफ है कि मानव तस्करी को कम करने के लिए काफी कुछ किया जाना बाकी है, ऐसे में इस पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात तो भूल ही जाइए।
For original article in English click here
नदीम अहमद बंगलोर से एक स्वतंत्र पत्रकार और जमीनी स्तर पर काम कर रहे पत्रकारों के नेटवर्क 101Reporters.com के सदस्य हैं। श्याम कुमार रायपुर से एक स्वतंत्र पत्रकार और 101Reporters.com के एक सीनियर सदस्य हैं।