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मिलिए दिल्ली की दीवारों को रंगने वाले पटना के इस मज़दूर से

किसका है यह शहर? इस सवाल के सही जवाब के लिए हमें पैसे, रुतबे या ज़मीन-जायदाद से ऊपर उठकर इस शहर में एक घर को तलाश करना होगा जिससे हम खुद को जोड़कर देख सकें। दिल्ली के ये कुछ युवा हैं जो अपनी कहानियां इस कॉलम के ज़रिये हम सभी से साझा कर रहे हैं। दिल्ली एक ऐसा शहर जो संकरी गलियों से, चाय के ठेलों से और ना जाने कितनी जानी अनजानी जगहों से गुज़रते हुए हमें देखता है, महसूस करता है और हमें सुनता है। इस कॉलम के लेखक, इन्हीं जानी-अनजानी जगहों से अंकुर सोसाइटी फॉर अल्टरनेटिव्स इन एजुकेशन के प्रयास से हम तक पहुंचते हैं और लिखते हैं अपने शहर ‘दिल्ली’ की बात।

शिव कुमार अपने सात भाइयों में दूसरे नंबर पर हैं। सभी अपने परिवार के साथ गांव में रहते हैं। सिर्फ यही हैं जो दिल्ली में रहते हैं। बड़ी-बड़ी टूटी चप्पलें, फटे-पुराने सफेदी में खराब हुए कपड़े पहने। सिर पर बंधे कपड़े से उसने अपने चेहरे को साफ किया और बोला, ‘ज़मीन का हिस्सा हुए तो कई साल हो गये, लेकिन मुझे कुछ नहीं मिला।’

शिव कुमार के दो बेटे हैं। एक बेटा गांव में है और अपने दादा जी की देखभाल करता है। दूसरे छोटे बेटे और पत्नी के साथ शिव कुमार दिल्ली में ही रहते हैं। बड़े भाई की शादी के बाद वे अलग रहने लगे। घर की सारी ज़िम्मेदारियां शिव कुमार पर आ गईं। पिताजी के साथ खेतों की देखभाल व मां के साथ पांच छोटे भाइयों का पालन-पोषण करने में ही उम्र कब बीत गई पता ही नहीं चला। पढ़ाई-लिखाई तो हुई नहीं। समय रहते पिताजी ने सभी के साथ-साथ शिव कुमार की भी शादी कर दी और सारे भाई अलग रहने लगे।

एक छोटा भाई फौज में भर्ती हो गया और उसकी पत्नी गांव में ही रहने लगी। गांव में कामकाज ना मिलने पर परिवार की देखभाल करना मुश्किल था। इसलिए अपने रिश्तेदार के कहने पर शिव कुमार दिल्ली आकर उनके घर रहने लगा।

वे रोज़ाना सुबह की चाय पीकर काम की तलाश में भूखे-प्यासे दर-बदर काम ढूंढते। अपने हालातों के कारण, वे कुछ भी काम करने को तैयार रहते पर तब भी कोई काम नहीं मिलता। दिन ढलने पर घर लौटते तो रिश्तेदार की बीवी ताने कसती कि ना जाने यह मेहमान कब जायेगा! शिव कुमार शर्मिंदगी को झेलते हुए चुपचाप उनके आंगन में रातभर पड़े रहते और सुबह होते ही फिर से काम की तलाश में निकल जाते। कभी-कभी रिश्तेदार के पास गांव से फोन आता और बीवी शिव कुमार के काम के बारे में पूछती और छोटे भाई की बीवी के अत्याचारों का ज़िक्र करती।

इसी चिंता में एक दिन सुबह जब वह अपने रिश्तेदार के घर से निकलकर कुछ दूर चले तो एक सेठ किस्म का आदमी उनके जैसे ही बेरोज़गार लोगों से बात कर रहा था। शिव कुमार ने पास जाकर सेठ को नमस्कार किया और कहा, “बाबू कोई काम हो तो बताइयेगा, मुझे काम की तलाश है।” उसने एक नज़र भर के शिवकुमार को देखा और कहा, “आदमी अच्छे दिखते हो। कहां से आए हो? कहां रहते हो? क्या काम करोगे?”

“मालिक, पटना से आया हूं! मेरा रिश्तेदार दिल्ली में रहता है, मैं कोई भी काम कर लूंगा। मुझे काम की सख्त ज़रूरत है और अगर मिल गया तो डूबते को तिनके का सहारा समझिये।” यह सब शिव कुमार ने हाथ जोड़कर कह दिया। सेठ ने उसके हाथ में रंग की बाल्टी और दीवार रंगने वाला ब्रश थमा दिया।

शुरुआत में थोड़ी दिक्कत हुई लेकिन साथ के लोगों ने यह काम करना भी सिखा दिया। उस समय दिनभर काम करने पर 300 रु. की दिहाड़ी मिलती थी। अब एक दिन के 500 रु. दिहाड़ी लेते हैं। एक घर को पूरा रंगने में करीब 10 दिन लगते हैं। मतलब, 10 दिन कमाई के बाद ही किसी काम की तलाश में निकलते हैं। अब काम की तलाश में दिन-भर दर-बदर भटकना नहीं पड़ता है। सुबह अपने साथियों के साथ चौक पर बैठ जाते हैं, कोई काम आता है तो निकल पड़ते हैं नहीं तो वापस लौट आते हैं। अपनी बीवी और एक छोटे बेटे के साथ यहां किराये पर रहते हैं।

कुछ साल पहले उनकी मां और फौजी भाई उनसे मिलने दिल्ली आए थे। दिल्ली आकर मां ने गांव की पूरी ज़मीन और घर का बंटवारा करने की बात कही। फौजी भाई ने मां का विरोध करते हुए कहा, “ये तो अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहते हैं, गांव में कोई कामकाज करते होते तब तो हिस्से के हकदार होते।’ यह सुनकर मां ने दो लाख रुपये देने का फैसला किया। फौजी भाई मना नहीं कर पाया। लेकिन यह उसे मंज़ूर भी ना था।

मां के गांव लौटने के कुछ समय बाद खबर आई कि मां परलोक सिधार गईं। मां को खोने के बाद उन्हें कुछ और पाने की इच्छा ही नहीं रही। अब तो रोज़ कुआं खोदना है और पानी पीना है।

सुनयना, इनका जन्म दिल्ली में ही हुआ। ये पिछले साल से अंकुर कलेक्टिव से जुड़ी हैं। इन्हें लिखने का बेहद शौक है। दूसरों की कहानी को सुनना और उनकी कहानियों को लिखना पसंद है।

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