Site icon Youth Ki Awaaz

भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए कितनी जरूरी है नो डिटेंशन पॉलिसी?

सुजीत कुमार:

नो डिटेंशन पॉलिसी शिक्षा के अधिकार अधिनियम (2009) का अहम् हिस्सा है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, जो 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात करता है। एक प्रावधान इस अधिनियम में यह है कि बच्चों को आठवीं तक किसी कक्षा में अनुतीर्ण घोषित कर उसी कक्षा में ना रखा जाये। अर्थात अगर किसी छात्र के प्राप्तांक कम भी हैं तो उसे पासिंग ग्रेड देकर अगली कक्षा में भेज दिया जाये।

इस पॉलिसी का मुख्य मकसद यह था कि छात्रों की सफलता का मूल्यांकन केवल उसके द्वारा परीक्षा में प्राप्त अंको से ना किया जाये बल्कि उसके सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाये। इसे पूर्व की कांग्रेस सरकार ने लागू कराया था। लेकिन हाल में कुछ रिपोर्टों को ध्यान में रखकर वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसे ख़त्म करने पर विचार कर रही है। इस प्रक्रिया में सरकार और सिविल सोसाइटी ग्रुप्स के बीच क्रिया और प्रतिक्रिया का दौर चल रहा है। हालांकि, हमेशा की तरह, इस प्रक्रिया में, निम्न मध्यवर्गीय परिवार लापता दिखता है, जिस पर ऐसे बदलाव का सीधा प्रभाव पड़ता है।

नो डिटेंशन पॉलिसी, पश्चिमी देशों की नीति से ली गयी है। इसका उद्देश्य भी छात्रों के मनोबल को मजबूत करने वाला है। यह सतत एवं समग्र शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा है, जिसकी मुख्य अवधारणा यह है कि किसी भी छात्र के ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया में किताबी ज्ञान के साथ-साथ उसके सामाजिक ज्ञान अर्जन भी शामिल होता है। इसलिए, छात्र का मूल्यांकन केवल साल भर में एक या दो बार की परीक्षा से नहीं किया जा सकता है।

किन्तु, इसके लागू होने के कुछ ही वर्षो में यहाँ शिकायत मिलने लगी कि बच्चो में कक्षा के अनुकूल जानकारी नहीं है और उनके सीखने के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। कहा जा रहा है कि इस पालिसी के लागू होने से छात्र और अभिभावक दोनों सुस्त हो गए जिससे सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में गिरावट आई है। इसके विरोध में यह भी कहा जा रहा है कि यह पालिसी गुड और बैड स्टूडेंट के बीच में फर्क नहीं करती है। प्रथम संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट ‘असर’ में भी इस गिरावट की बात कही गयी है। 2012 में हरियाणा की शिक्षा मंत्री गीता भुक्कल ने एक समिति की रिपोर्ट के हवाले से कहा कि नो डिटेंशन पॉलिसी का छात्रों पर बहुत ख़राब प्रभाव पड़ा है और इस पर विचार करने की जरूरत है।

2015 में राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने भी इस पालिसी को ख़त्म करने की वकालत की है। अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता भी अब इस मुद्दे पर बोल रहे हैं और इसे हटाने की वकालत कर रहे हैं। किन्तु एक तबका ऐसा भी है जो इस बनाये रखने की बात करता है। हाल ही में सुब्रमनियन समिति में भी नो डिटेंशन पॉलिसी को पांचवी कक्षा तक करने का सुझाव दिया है। हालांकि, उसमे यह भी कहा गया है कि अगर कोई बच्चा परीक्षा पास नहीं करता है तो उसे दो मौके और दिए जाने चाहिए।

सवाल और सुझाव बहुत हैं। किन्तु, नहीं  है तो एक विस्तृत अध्यन जो यह बता सके कि चूक कहाँ पर हो रही है। इसके अलावा, ये भी जरूरी है कि हम सब विचार करें कि स्कूलिंग व्यवस्था में हम कैसी शिक्षा देना चाहते है और हमे अपने बच्चो से क्या अपेक्षा है। आज की शिक्षा व्यवस्था कंप्यूटर अलगोरिथम की तरह होती जा रही है, जिसमे एक निश्चित उत्तर की आशा होती है। इसमें सवाल करने की गुंजाई ना के बराबर होती है और बाहर की चीजें सोचना तो जैसे गुनाह ही हो जाता है। जैसे अगर कोई बच्चा ड्राइंग की क्लास में अगर कोई कंप्यूटर की बात कर दे या गणित की क्लास में ड्राइंग की बात।

आज हम शिक्षा में बदलाव के नाम पर बस ग्रेडिंग के तरीके बदल रहे हैं और सिलेबस की रीपैकेजिंग कर रहे हैं। हम गांधी, टैगोर, औरोबिन्दो और पाउलो फ्रेरे की शिक्षा नीति को शायद ही समझने का प्रयास करते है। सरकारें तो बिलकुल यन्त्र की तरह काम कर रही हैं, वो अब शायद ही अपने बुद्धिजीवियों की तरफ लौटना चाहती हैं। गांधी जी ने शिक्षा को शरीर, दिमाग और आत्मा का समाकलन बताया था। शिक्षा को एक जगाने की प्रक्रिया समझा गया था, जो सही और गलत का भेद करना सिखाये। जागरूकता का विकास करे और साथ ही उसे जमीन पर उतरने की प्रक्रिया में क्रियाशील हो जाए। लेकिन आज यह फेल, पास और ग्रेड की सीमा तक ही सीमित हो गया।

ऐसे में यह जरुरी है कि हम वर्तमान शिक्षा पद्धति का नए सिरे से मूल्यांकन करें, इसकी पृष्टभूमि को मनुष्य के समग्र विकास के लिए तैयार करें। ताकि आने वाले पीढ़ी केवल पढ़ने के बाद सरकारी और कॉर्पोरेट की नौकरियों की तरफ न दौड़े बल्कि स्वयं की परख के आधार पर समाज में कला, विज्ञान और आदर्श की स्थापना करें।

इन सब के लिए, अच्छे ग्रेड से ज्यादा मजबूत इच्छाशक्ति और निरंतर प्रयास की दरकार है, और इसकी ट्रेनिंग स्कूल से ही शुरू होती है। ऐसे में यह साफ़ हो जाता है कि सिखाने की प्रक्रिया में स्कूल एक संसाधन है और इसमें समय-समय पर छात्रों में बेहतर लर्निंग के लिए बदलाव होने चाहिए। किन्तु यह बदलाव केवल राजनैतिक नहीं होने चाहिए और इन्हें दूसरी सरकार को केवल पटखनी देने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

नो डिटेंशन पॉलिसी को हटाने की इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं है। इस पर गहन अध्ययन की जरुरत है और इस प्रक्रिया में इसके सारे साझेदारों का भी मूल्यांकन होना चाहिए। सवाल इसके हटाने या रखने का नहीं है। सवाल ये है कि इस लागू करने और हटाने की इतनी जल्दी क्यों है? क्या इस पर व्यापक तरीके से अध्ययन किया गया है? बच्चों के अन्दर उनकी कक्षा के अनुकूल ज्ञान के लिए क्या केवल यही जिम्मेदार है? पश्चिम के देशों में यह कैसे सफल है? इन सारे सवालों के जवाब ही, नो डिटेंशन  पालिसी को रखने या हटाने का विकल्प दे सकते हैं।

 

 

 

Exit mobile version