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कैसे मैं इंजीनियर तो बन गयी, पर सिर्फ कॉर्पोरेट जगत की ज़रूरत के लिए

जब मैं बड़ी हो रही थी तो मैंने जीवन के क्रूर चक्र के बारे में बताने वाली कई कहानियां पढ़ी। जीवन के क्रूर होने की इस बात को मानना मेरे लिए काफी मुश्किल थी। मेरे लिए जीवन, आशाओं से भरा और बेहद सकारात्मक था। तब मैंने कभी भी जीवन के कष्टदायक और कड़वा होने को लेकर कभी नहीं सोचा था। लेकिन आज यह कष्टपूर्ण और कड़वा होने के साथ-साथ दम घोंटने वाला भी है।

तो आखिर, मैं यहाँ तक पहुंची कैसे? इसकी वजह मैं हूँ या यह व्यवस्था जिसके कारण मैं खुद को यहाँ पाती हूँ? इन सब का मूल मेरी शिक्षा के प्रति सोच और शिक्षित होने के विचार से जुड़ी चमक-दमक है। अच्छे जीवन के लिए शिक्षा, एक अच्छा इंसान बनने के लिए शिक्षा, हमारी लोगों और प्रकृति के लिए बेहतर समझ बनाने के लिए शिक्षा। यही तो शिक्षा का मूल उद्देश्य है।

तो मेरी कहानी कुछ इस तरह है। देश के अधिकांश युवाओं की तरह मैं भी बारहवीं की परीक्षा के बाद किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेना चाहती थी, जिसके कई कारण थे। मेरे माता-पिता को भी लगा कि साहित्य या पत्रकारिता की जगह मेरा इंजीनियरिंग में डिग्री लेना ही बेहतर है। जीवन की ट्रेन स्टेशन छोड़ने वाली थी, और मुझे जल्द से जल्द इसमें चढ़ना था, नहीं तो मैं भी हारे हुए लोगों की भीड़ के साथ पीछे रह जाती, लेकिन इस ट्रेन में चढ़ना भी काफी महंगा था। तो मैंने और मेरे पिता ने मेरी पढ़ाई के लिए बैंक से लोन लेने का निर्णय लिया। सब कुछ ठीक से हो गया, मुझे लोन मिल गया और ट्रेन स्टेशन से निकल पड़ी।

यह ट्रेन जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, मेरी दिमाग में, आने वाले खुशहाल जीवन के ख़याल आ रहे थे। मुझे इसका ज़रा सा भी एहसास नहीं था कि ये सफर मेरे लिए नहीं बना था। किसी तरह मैं यह मानकर चल रही थी कि कोर्स पूरा हो जाने के बाद मुझे कोई ना कोई अच्छी पैसे वाली नौकरी तो मिल ही जाएगी, ताकि मैं अपना लोन चुका सकूं, अपना जीवन संवार सकूं। यह सब सोचने में तो बहुत अच्छा लग रहा था, लेकिन समय बीता और ऐसा कुछ हो नहीं पाया।

कॉलेज के दौरान हर वक्त पढ़ाई में आगे रहने और निजी चीज़ों को संभालने के साथ-साथ मुझे अपने खर्चे चलाने के लिए कमाना भी होता था। कॉलेज में दो सालों के बाद मुझे एहसास हुआ कि ये बड़ी-बड़ी डिग्रियां सबके लिए नहीं होती हैं। कॉलेज में अच्छा समय बिताने के लिए आपके पास पैसे होना ज़रूरी है। मेरा लोन कॉलेज के अन्य खर्चों के लिए नहीं था, ना ही यह मेरे सामाजिक जीवन में होने वाले खर्चों के लिए था। तो मेरा हाल कुछ ऐसा था- मेरी कोई सोशल लाइफ नहीं थी, और हर वक्त अच्छे प्रदर्शन की घबराहट मुझे परेशान किये रहती थी, ऊपर से बैंक लोन की चिंता और समाज की उम्मीदें।

इन सबका बस एक ही इलाज था, कॉलेज के बाद एक अच्छी नौकरी। लेकिन क्या मुझे एक अच्छी नौकरी मिली? नहीं।

अब आपको एक इंजीनियरिंग डिग्री धारक के बारे में कुछ चीजें बताती हूँ। अगर आपकी आई.टी. (इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी) या कम्पूटर साइंस में डिग्री नहीं भी है, तब भी आपको किसी आई.टी. कंपनी में ही नौकरी मिलती है, और यही अधिकांश इंजीनियरिंग ग्रेजुएट भारत में करते हैं। लोन लेकर एक डिग्री ले लीजिए और इसे चुकाने के लिए किसी आई.टी. कंपनी में नौकरी कीजिए, चाहे आपकी डिग्री किसी भी विषय में हो। और फिर सोचिए कि आपको जीवन में क्या करना है।

आज मैं खुद को इसी स्थिति में पाती हूं। मैंने लोन लिया, एक डिग्री हासिल की और अब एक आई.टी. फर्म में नौकरी कर रही हूं। हर दिन के अंत में मैं खुद से यही पूछती हूं, “मैं खुद के लिए और मेरे आसपास के लोगों के लिए क्या कर रही हूं?”

मैंने एक पल लिए सोचा, “क्या मैं भी उसी भेड़-चाल में चल रही हूं इस कॉर्पोरेट व्यवस्था के लिए तैयार किया गया एक और इंजीनियर?”

जब मैं बड़ी हो रही थी तो मैंने हमेशा एक चमकीले भविष्य की कल्पना की, जिसमे मेरे पास एक ‘अच्छी’ सी डिग्री होगी, एक बढ़िया नौकरी और एक खुशहाल ज़िन्दगी। मेरे पास डिग्री और नौकरी तो है, लेकिन इसमें खुशी कहाँ है? क्या इसे मैंने कहीं पीछे छोड़ दिया या ये व्यवस्था मुझे यह देना भूल गयी।

और सबसे ज़रूरी, क्या मेरी शिक्षा ने मुझे एक बेहतर इंसान बनाया? क्या मैं खुश हूं? ना तो मैं अपने माता-पिता की और ना ही समाज की सेवा कर पा रही हूं। अगर मैं किसी का कुछ भला कर रही हूं तो वो हैं कॉर्पोरेट कंपनी, जिसमें मैं नौकरी करती हूं। क्या ऐसी ही शिक्षा हमारी पीढ़ी की नियति हैं?

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