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भारत की 196 क्षेत्रीय भाषाएँ आज गायब होने के कगार पर हैं, और उनके साथ कई संस्कृतियाँ भी

अक्षय दुबे ‘साथी’:

कितनी विडबंना की बात है कि जिस देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मातृभाषाओं के हिमायती रहे उसी देश में अपनी मातृभाषाओं को बचाने के लिए लोगों को आंदोलन या प्रदर्शन का रास्ता अख्तियार करना प़ड़ रहा है। 11 जुलाई को छत्तीसगढ़ विधानसभा के बाहर मुंह पर सफेद पट्टी बांधे, हाथों में तख्ती लिए एक मौन रैली निकाली गई ताकि सारे विधायक,मंत्री और नेताजन छत्तीसगढ़ी सहित अन्य मातृभाषाओं को व्यवहार में लाएं और कामकाज में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करें। बताया जा रहा है कि 28 नवम्बर 2007 को छत्तीसगढ़ विधान सभा में जनभाषा छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा मिला और प्रस्ताव पारित किया गया कि विधानसभा में सभी मंत्री, विधायक नेता प्रतिपक्ष छत्तीसगढ़ी का ही प्रयोग करेंगे लेकिन प्रस्ताव के दो दिन बाद छत्तीसगढ़ी का प्रयोग बंद हो गया जिसके आक्रोश में छत्तीसगढ़िया क्रांति सेना सहित साहित्यकारों,कलाकारों और आम नागरिकों ने एक शांति रैली निकाली।

भाषाओं के नाम पर देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी चिंगारियां लम्बे समय से भड़कती आ रही है, जो शुरूआती दिनों में शांतिपूर्ण मांग के रूप में अपनी बात रखती है लेकिन उपेक्षा होने की स्थिति में ऐसे आंदोलनो को उग्र रूप धारण करते हुए भी देखा गया है।ये उग्रता कितनी खतरनाक होती है,इसके कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं इससे हमारा देश भलिभांति अवगत है। फिर भी उन मांगो और आंदोलनो को गंभीरता से नहीं लेने की प्रवृत्ति हमें भाषाजनित खतरे की ओर ले जा रही है। छत्तीसगढ़िया क्रांति सेना के अध्यक्ष अमित बघेल कहते हैं कि, “अभी तो हम अपनी भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए शांति पूर्ण तरीकों से अपनी बात रख रहे हैं लेकिन उसके बाद भी हमारी बातों को अनसुना किया गया तो हमें उग्र आंदोलन करने पर मजबूर होना पड़ेगा।” वे आगे कहते हैं कि “सरकार हमारी भाषा और संस्कृति को नष्ट करने के फिराक में है। इसीलिए वे हमारी और आदिवासियों की मातृभाषाओं को असभ्यों और अशिक्षितों की भाषा मानती है और हम पर बाहरी संस्कृति को थोपने का प्रयास करती आ रही है जिसके कारण हमें आंदोलन के लिए मजबूर होना प़ड़ा।”

ये भाषाई संकट सिर्फ छत्तीसगढ़ में उत्पन्न हुआ हो ऐसा नहीं है बल्कि ये एक वैश्विक समस्या है। यूनेस्को ने दुनिया से लुप्त हो रही भाषाओं पर बनी इंटरेक्टिव एटलस में भी भाषाओं की विलुप्त होने के संबंध में तथ्य उजागर किए हैं। इस एटलस के अनुसार दुनिया की 6,000 भाषाओं में से 2500 भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर है इस सूची में दूसरे नंबर पर है अमेरिका जहां 192 भाषाएं और तीसरे नंबर पर इंडोनेशिया जहां की 147 भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। इस सूची में भारत अव्वल नंबर पर है। इसके अनुसार भारत की 196 भाषाएँ अपनी अंतिम साँस ले रही है।

इसके पीछे की वज़ह हमारी सरकारों का भाषाओं को लेकर अपनाया गया उदासीन रवैय्या भी है, जिसमें भाषाओं को लेकर अस्पष्ट नीतियाँ हैं। कुछ भाषाओं को अनुसूचिबद्ध किया गया है वहीं कुछ भाषाओं को ऐसे ही छोड़ दिया गया है। ये सर्वविदित है कि किसी भाषा को पढ़ाई-लिखाई या राजकीय कार्य व्यवहार में शामिल नहीं करने से उसके ख़त्म होने की गुंजाईश बढ़ जाती है। इसीलिए यूनेस्को के अनुसार कम से कम प्राथमिक शिक्षा मातृभाषाओं में दी जानी चाहिए। महात्मा गाँधी भी मातृभाषाओं को लेकर गंभीर थे, वे कहते थे कि, “राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा में नहीं, बल्कि किसी अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है।” ऐसे मे हमारी सरकारें भी कहीं ना कहीं इन अधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही हैं।

छत्तीसगढ़ी राजभाषा मंच के संयोजक नंद किशोर शुक्ल कहते है कि, “छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बने 9 साल गुजरने को हैं। लोगों का मुँह बन्द करने के लिए ‘राजभाषा आयोग’ का गठन जरूर किया गया है। किन्तु उसके क्रियान्वयन के लिए ना तो कोई समिति बनाई गई है और ना ही किसी दफ्तर में कोई राजभाषा-अधिकारी ही नियुक्त किया गया है। और तो और , ‘राजभाषा-छत्तीसगढ़ी’ के प्रचार-प्रसार के लिए आज तक कहीं भी एकाध स्टीकर या बैनर भी नहीं लगाया गया है। जनभाषा-छत्तीसगढ़ी की ऐसी घोर आपराधिक उपेक्षा करने वाली यह कैसी जन-सरकार है?” वे सवाल उठाते हैं कि, “न्यू टेस्टामेन्ट और पुस्तक ‘लाइट ऑफ़ भागवत’ का छत्तीसगढ़ी रूपातंरण हो सकता है, विश्वस्तरीय-पुस्तकें छत्तीसगढ़ी में लिखी-पढ़ी जा सकती हैं , विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ी-माध्यम में एम.ए. की पढाई-लिखाई हो सकती है तो फिर क़म से क़म पहली से पांचवी कक्षा तक की बुनियादी पढाई-लिखाई छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं हो सकती ?”

इस मामले पर राजभाषा आयोग के अध्यक्ष विनय पाठक का कहना है कि “आयोग ने बहुत पहले ही मुख्यमंत्री सहित अन्य मंत्रियों को पत्र भेजकर छत्तीसगढ़ी में कामकाज को बढ़ावा देने की बात कही थी, आयोग सिर्फ अनुरोध कर सकता है और सुझाव दे सकता है।”

कुछ लोग ऐसे आंदोलनो को हिंदी के लिए खतरा मानकर स्थानीय भाषाओं के साथ खड़े नहीं होते शायद उनकी दृष्टि इन बुनियादी तथ्यों पर नहीं जाती कि यह किसी भाषा के विरोध में पैदा हुआ आक्रोश नहीं है बल्कि अपनी भाषा को बचाने की एक मुहीम है जो कि सिर्फ अपनी भाषा के पक्ष में है ना कि किसी भाषा के विरोध में। छत्तीसगढ़ के कवि मीर अली मीर कहते हैं कि “हम तो सिर्फ अपनी भाषा की समृद्धि को दिखाना चाहते हैं, हमारी भाषा को फलने फूलने दिया जाएगा तो देश का ही वैभव बढ़ेगा,हम किसी भाषा का विरोध नहीं करते,सबका स्वागत है लेकिन हमारी मातृभाषा की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।”

कुछ नेता इन बातों से इत्तेफाक भी रखते हैं और जनभाषा में व्यवहार भी करते हैं। जनभाषा अपनाने से वहां की जनता भी अपने जन प्रतिनिधियों से जुड़ाव महसूस करती है, जिसे लोकतांत्रिक सहभागिता का बढ़ना भी कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ के तखतपुर विधानसभा के विधायक और संसदीय सचिव राजू सिंह क्षत्रिय कहते हैं कि, “हर प्रांत की तरह छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा के भीतर छत्तीसगढ़ी में बात होनी चाहिए और होती भी है, मैंने तो छत्तीसगढ़ी में ही शपथ ली थी और आगे भी छत्तीसगढ़ी में बोलता रहूंगा।”

बाकी जनप्रतिनिधि इस पर क्या रुख अपनाते हैं वो भी जल्दी ही हमारे सामने आ जाएगा। उम्मीद है कि अच्छे परिणाम आएंगे दरअसल स्थिति का यथावत रहने का मतलब ब्रिटिश सरकार की नीतियों के प्रभाव के तौर पर ही देखा जाएगा जो शासन की भाषा और शासित की भाषा में अंतर रखकर राज करना चाहते थे। लेकिन लोकतंत्र में जनता का शासन होने का संकेत जनभाषा में शासन की ओर जाता है। जहां गांधी जी कह रहे होते हैं कि, “भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएं खूब पढ़ें मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाए या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊंचे से ऊंचा चिन्तन नहीं कर सकता।”

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