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बिस्मिल साहब इतने डिमांडिंग मत बनिए, अब क्रांति के दिन गए

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शहीद बिस्मिल की याद में बना खस्ताहाल पुस्तकालय

“ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्तां, देखते की मुल्क सारा ये टशन ये थ्रिल में है।”

गुलाल फिल्म का ये गाना भले ही डार्क ह्यूमर का हिस्सा हो लेकिन बिस्मिल साहब, आप अगर आज आते तो यकीनन देखते की पूरा मुल्क टशन और थ्रिल में है। आप इसमें कहीं से फिट नहीं होते, माना आप होंगे बड़े क्रांतिकारी अपने ज़माने में लेकिन साहब अब ये ज़माना क्रांति नहीं भ्रान्ति से चलता है। यकीन नहीं तो डालिये कुछ अंट शंट कहीं भी इंटरनेट पर और देखिये फिर इस देश की मुहब्बत और आग का ट्रेल। अब भी आपको यकीन नहीं हो रहा है ना? आप क्रांतिकारियों की दिक्कत यही है, ज़िद छोड़ते ही नहीं, खैर चलिए आपको आपके पैतृक गांव बरबाई ले चलते हैं। ये खंडहर देख रहे हैं बिस्मिल साहब, हाँ यही जिसकी छत भी अब फ्लोर पर आराम कर रही है, क्या कहा आपने? कूड़ादान! अरे बिस्मिल साहब ये कूड़ादान नहीं आपके नाम पर खोला गया पुस्तकालय है। 25 साल से ज़्यादा हो गए इसको बने हुए, किताबें आई यहाँ कि नहीं ये तो छोड़िये, खंडहर की हालत देखकर हमारे रवैय्ये का कुछ तो अंदाज़ा हो ही गया होगा। बुरा मत मानिए लेकिन क्या करें, आप थोड़े ना छपते हैं किसी टी शर्ट पे! अब इतना स्वैग तो चाहिए ना, ताकि आपको याद रखें।

क्या है पुस्तकालय की हकीकत-

अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को हुआ था, मैनपुरी षडयंत्र के बाद उन्होंने अपने पैतृक गांव बरबाई में ही शरण ली थी, और यहीं लगभग 3 महीने 11 दिन खेती बाड़ी की। 6000 से ज़्यादा की आबादी वाले इस गांव में ये पुस्तकालय लोगों को अपने सपूत के बारे में जानकारी देने और उनके लिखे क्रांतिकारी कविताओं, लेखों और पत्रों से अवगत करवाने के लिए स्थापित किया गया। इस पुस्तकालय की हालत बस एक इमारत के ज़मींदोज़ हो जाने की कहानी नहीं है बल्कि शहीदों के प्रति निर्लज्ज हो चुकी हमारी संवेदनाओं की है। गांव के वरिष्ठ राम प्रकाश मरैया बताते हैं कि ये पुस्तकालय 1990 में ही बन गया था, और तब से अब तक कई नेता और सांसद इसके नाम पर अपनी राजनीति चमका चुके हैं। आश्वासनों का उपहास हर बार इस पुस्तकालय को मिला बस नहीं मिलीं तो किताबें और शहादत को सम्मान। इस पुस्तकालय का कूड़ादान बन जाना देशभक्ति के नाम पर राजनीति करने वालों को आइना दिखाता है, और सवाल है कि क्या यही है सरफरोशी का सिला?

बिस्मिल और क्रांतिकारी रचनाएँ:

‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ की वास्तविक प्रति; साभार- शाह आलम

पंडित बिस्मिल ने जितनी क्रांति असलहों के सहारे की उतनी ही या उससे कई ज़्यादा अपने लेखन से समकालीन युवाओं को प्रेरित करके की। शहीद बिस्मिल ने बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखे अद्भुत क्रांति गीत ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ को हर ज़ुबां तक पहुंचाया। काकोरी षड्यंत्र में सुनवाई के दौरान ज़िला जेल से लखनऊ विधानसभा जाते वक़्त बिस्मिल अपने साथियों के साथ अक्सर ये गीत गाया करते थे। 1918 में मैनपुरी निवास के दौरान बिस्मिल ने ‘देशवासियों के नाम संदेश’ के नाम से पैम्फलेट और ‘मैनपुरी की प्रतिज्ञा’ नाम से कविता लिखी और लोगों तक पहुंचाया। साल 1919 और 1920 के दौरान उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में घूमते हुए कई किताबें लिखीं जिनमें उनकी कविता संग्रह ‘मन की लहर’ प्रमुख थी। इसी दौरान उन्होंने बोलशेविकों की करतूत और योगिक साधन का बंगाली से हिंदी अनुवाद भी किया। इसके अलावा स्वदेशी रंग और स्वाधीनता की देवी भी बिस्मिल की ही रचना है। बिस्मिल ने गोरखपुर जेल में रहते हुए अपनी आत्मकथा भी लिखी जिसे उनकी शहादत के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘काकोरी के शहीद’ नाम से छपवाया।

उम्मीद की रौशनी:

“दिन खून के हमारे, यारो न भूल जाना; सूनी पड़ी कबर पे इक गुल खिलाते जाना।
नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके; याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके।”

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियाँ हर दौर में युवा क्रांति को प्रेरित करते रहे हैं, और ऐसे ही युवा क्रांतिकारी शाह आलम ने अब पुस्तकालय के जीर्णोद्धार का ज़िम्मा उठाया है। गुमनाम क्रांतिकारियों को नाम दिलवाने साइकल से बीहड़ की यात्रा करने वाले शाह आलम ने पुस्तकालय में किताब उपलब्ध कराने का ज़िम्मा लिया है और स्थानीय प्रशासन से दुबारा लाइब्रेरी की बिल्डिंग बनवाने की अपील की है। शाह ने दुबारा लाइब्रेरी बनने पर बिस्मिल से जुड़े अहम दस्तावेज़, दोस्तों के साथ उनकी फोटो, उनपर चले मुकदमे के कागज़ात और उनकी जेल डायरी  भी उपलब्ध करवाने की बात कही है।

बिस्मिल साहब आप किस सम्मान के हक़दार हैं, और वास्तव में आपको क्या मिला, खासकर आपकी शहादत के बाद आपका परिवार किन हालातों से गुज़रा वो कहानी ही हमारी देशभक्ति को आइना है। खैर हर दौर में क्रांति के मतवाले हुए हैं, इस दौर में भी हैं, उनसबको आपकी आखिरी पत्र पे छोड़े जाता हूँ।

खंडहर बन चुके पुस्तकालय में शाह आलम

“19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है।

यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी।
हे ईश! भारतवर्ष में, शतबार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का, देशीय कारक कर्म हो।
मरते हैं बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से, होंगे पैदा सैंकड़ों, उनके रूधिर की धार से।
उनके प्रबल उद्योग से, उद्धार होगा देश का, तब नाश होगा सर्वदा, दुख शोक के लव लेश का।

सब से मेरा नमस्कार कहिए,

तुम्हारा
बिस्मिल”

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