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इरोम शर्मिला, आप मेरे जैसी कई लड़कियों के लिए एक मजबूत महिला का प्रतीक हैं

अलका मनराल:

इरोम! हमनें पहली बार तुम्हारा नाम अन्ना आंदोलन के समय सुना था। बड़े हैरान थे हम कि कैसे कोई बिना खाए पीए रह सकता है। तुम्हारा नाम उससे पहले ना सुनने का कारण हमारी राष्ट्रीय मीडिया (दिल्ली वाली) में पूर्वोत्तर की खबरों का ना के बराबर होना है। तभी जाना था कि पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसा कोई कानून भी लागू होता है, जो हमारे सुरक्षा बलों को इतना निरंकुश भी बना देता है कि वे किसी व्यक्ति को संदेह के आधार पर गिरफ्तार कर सकते हैं, बिना वारंट छापे मार सकते है और आरोपी पर मृत्यु होने की हद तक बल प्रयोग कर सकते हैं। इतना सब करने के बाद भी कोई उनसे प्रश्न नहीं कर सकता है।

खैर, आज तुम 16 साल पहले शुरू किया अनशन खत्म करके खाना खाओगी। हम नहीं जानते कि तुमने जो निर्णय लिया वो गलत हैं या सही। पर तुमनें जो भी सोचा होगा उस निर्णय में तुम डटी रहोगी ये हम जानते हैं। हमारी बहरी सरकार ने तुम्हारी मांग नहीं सुनी और न कभी आम आदमी ने ही तुम्हारा साथ दिया। इस कारण ही तुमनें अपने विरोध का तरीका बदल दिया है और तुमनें भूख हड़लात को छोड़कर राजनीति में आने का फैसला किया। तुम राजनीति में अच्छा भी करोगी, क्योंकि जो औरत मानवता के लिए 16 साल बिना खाएं पीएं रह सकती है वो लोगों के हक के लिए भी बहुत कुछ कर सकती है।

इरोम मैं जानना चाहती हूं कि कैसे तुम 16 साल बिना खाए रह पाई। तुम्हें कभी अपने पसंद के खाने की याद नहीं आई। तुम्हारी भी तो कुछ पसंद की चीज होगी और आज उसे खाने से पहले कुछ पल के लिए सोचना कि क्या तुम्हारी जीभ को उसका स्वाद याद है। 16 साल के अनशन में तुम अपनी मां से ना चाहते हुए सिर्फ एक-दो बार ही मिली हो। शायद तुम सोचती होगी कि मां तुम्हें इस हालत में नहीं देख पाएंगी, या तुम ही मां को देखकर बोलती कि मां देखो किस दुनिया में लेकर आई हो तुम मुझे। जहां लोग अपने फायदे के लिए लोगों की जान लेने से भी परहेज नहीं करते। मां बेचारी भी क्या जवाब देती उसका भी तो यही सवाल अपनी मां से रहा होगा। पर तुमने पूछने की जगह इससे रोकना ही सही समझा।

इरोम तुम सच में बहादुर हो और उन लोगों के लिए उलटा जवाब भी जो कहते हैं कि लड़कियां कमजोर होती हैं। हम लड़कियों के लिए एक हिम्मत हो जो अपनी थोड़ी सी परेशानी में किसी का सहारा ढ़ूंढ़ने लगती हैं।

आज से 16 साल पहले तुमनें 10 बेगुनाहों को असम राइफल के जवानों की मुठभेड़ में मरते देखा और तुमनें इस बेइंसाफी के खिलाफ अनशन करने का फैसला किया। तब तुम 28 साल की ही तो थी, और अपने इस फैसले के हिसाब से बहुत छोटी भी। इस उम्र में लोग बहुत कुछ सोचते हैं, पर ऐसी भूख हड़ताल तो कोई नहीं करता और कितने लोग भला इंसानियत और इंसाफ के लिए खाना पीना छोड़ देते हैं।

हमें दुख है कि सरकार ने तुम्हारी जिद नहीं मानी, लेकिन तुम ने भी अपनी बात को मनवाने का दूसरा रास्ता ढूंढ ही लिया। अच्छा किया तुमने कि राजनीति में आने का फैसला लिया और राजनीति को तुम जैसे लोगों की जरूरत भी है। हो सकता है कि अब तुम इस व्यवस्था में आकर ही कुछ बदलाव ला पाओ। शायद तुम 1958 में बने इस अफस्फा को हटा ना पाओ पर इस पर दुबारा से विचार करने के लिए ही शायद सरकार को मजबूर कर दो, और केंद्र सरकार को बता दो कि 2016 तक आते-आते पूर्वोत्तर के राज्यों की स्थितियां बहुत बदल भी गई हैं। [envoke_twitter_link]इरोम तुम्हें देर सबेर जीत मिल ही जाएगी क्योंकि बुलंद हौलसे वाले कभी हारते नहीं।[/envoke_twitter_link]

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