Site icon Youth Ki Awaaz

सुबह 2 घंटे ट्रेनिंग, फिर वेटर की नौकरी- कैसे ये एथलीट पहुंचा ओलिंपिक तक

सिद्धार्थ भट्ट:

रिओ-डी-जनेरो में खेले जा रहे ओलिंपिक खेल 21 अगस्त को समाप्त हुए। अगर मैडल की बात की जाए तो भारत को इस बार केवल 2 ही मैडल से संतोष करना पड़ा। बेडमिन्टन में जहाँ पी.वी. सिन्धु ने सिल्वर मेडल जीत कर इतिहास रचा, वहीं साक्षी मालिक ने कुश्ती में ब्रोंज मैडल जीतकर अपना लोहा मनवाया। लेकिन इनके अलावा भी कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने मुश्किल हालातों और कई सारी परेशानियों को पार कर रिओ ओलिंपिक तक का सफ़र तय किया।

इन्ही में से एक हैं मनीष सिंह रावत। 25 वर्षीय मनीष नें 20 किलोमीटर की पैदल दौड़ (वाक रेस) के फाइनल में भारत की तरफ से भाग लिया और 1:21:21 के समय के साथ तेरहवें नंबर पर रेस ख़त्म की। मनीष नें भले ही कोई मैडल ना जीता हो,  लेकिन उन्होंने इस दौड़ में 4 पूर्व वर्ल्ड चैम्पियन, 3 एशियाई चैम्पियन, 2 यूरोपियन चैम्पियन और 2 ओलिंपिक मैडल विजताओं को पीछे छोड़ा।

वाक रेस यानि कि पैदल दौड़ एक मुश्किल खेल है, जिसके बारे में भारत में बेहद कम चर्चा होती है। लेकिन 2012 के लन्दन ओलिंपिक खेलों में जब केरल के एथलीट के.टी. इरफ़ान ने इस खेल में दसवां स्थान हासिल किया, तो इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ़ एथलेटिक्स फेडरेशन (आइ.ए.ए.एफ.) नें,  स्पोर्ट्स अथोरिटी ऑफ़ इंडिया (एस.ए.आइ.) से देश में इस खेल के विकास के लिए कोशिशे करने का आग्रह किया। यह खेल तकनीक, फिटनेस और मानसिक मजबूती का खेल है जिसमें 20 किलोमीटर की दूरी इस तरह से तय की जाती है कि खिलाड़ी का जमीन पर हर वक्त पाँव रहे। अगर किसी भी वक़्त खिलाड़ी के दोनों पाँव हवा में हों तो उसे दौड़ना माना जाता है, जिससे उसे डिसक्वालीफाई किया जा सकता है।

मनीष भारत के छोटे से पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की एक छोटी सी लेकिन प्रसिद्ध जगह बदरीनाथ से हैं, जो भारत का एक मशहूर तीर्थस्थल है। मनीष के रिओ तक के सफ़र की कहानी बेहद दिलचस्प और प्रेरित करने वाली है। 2002 में जब मनीष दसवीं कक्षा में थे, उनके पिता का देहांत हो गया जिसके बाद परिवार की सारी जिम्मेदारियां मनीष पर आ गयी। इन्ही जिम्मेदारिओं के चलते मनीष को पढाई छोड़नी पड़ी और उन्होंने अपनी परिवार की जरूरतों के लिए खेतों में मजदूरी, एक होटल में वेटर की नौकरी से लेकर घर का काम करने (हाउसमेड) और टूरिस्ट गाइड तक का भी काम किया।

भारत में खेलों को कितना बढ़ावा दिया जाता है, यह तो जाहिर ही है और ख़ासकर ट्रैक एंड फील्ड के खेलों की हालत तो और ही ज्यादा खराब है, ऐसे में एक छोटे से पहाड़ी कस्बे से विश्वस्तरीय खिलाडियों का आना देश का सौभाग्य ही कहा जाएगा। स्पोर्ट्सकीड़ा की एक रिपोर्ट के अनुसार,सुविधाओं के अभाव में मनीष ने हिमालय की तलहटी में बसे इस छोटे से कस्बे में ही बिना किसी के मदद के ट्रेनिंग की। वो हर सुबह 4 बजे उठकर 2 घंटे ट्रेनिंग करते और फिर उसके बाद होटल में जाकर वेटर की नौकरी करते थे। वाक रेस के दौड़ने की तकनीक कुछ इस तरह से होती है कि पहली बार देखने पर यह थोड़ा अजीब लग सकता है, इस वजह से इनका हौंसला बढाने की बजाय आस-पास के लोग इनका मजाक उड़ाया करते थे। लेकिन ये मनीष का हौंसला, उनके मजबूत इरादे थे जिसकी वजह से उन्होंने 300 लोगों को पीछे छोड़ कर रिओ ओलिंपिक तक तक का सफ़र तय किया।

अफ़सोस की बात है कि एक तरफ जहाँ ब्रिटेन नें आधिकारिक रूप से एक ओलिंपिक मैडल विजेता पर 55 लाख ब्रिटिश पाउंड (लगभग 55 करोड़ रूपए) खर्च होने की बात कही, वहीं भारत के इस विश्वस्तरीय खिलाड़ी को स्पोर्ट्स कोटे में मात्र 10000 रूपए की भी पुलिस की नौकरी भी नहीं मिल पाई। भारत में मनीष जैसी ना जाने कितनी प्रतिभाएं हैं, जिन्हें अगर सही ट्रेनिंग और सुविधाएँ दी जाएं तो शायद अगले ओलिंपिक खेलों में हमें ख़ुशी मनाने के और अधिक मौके मिल पाएं।

फोटो आभार: कीप स्माइलिंग ट्विटर हैंडल।

Exit mobile version