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एक खुला पत्र उनके नाम जिन्हें किसी सिंधू के मैडल जीतने के बाद ही देश की बेटियां याद आती हैं

दीपिका सरला शर्मा:

मेरा नाम साक्षी, दीपा कर्मकार या पी.वी. सिंधू नहीं है। मैंने इस देश के लिए आज तक कोई तमगा नहीं जीता और ना ही शायद कभी जीत पाऊं। लेकिन मैं सुबह उठकर हर वो काम करती हूं, जो मुझे सिखाया गया है कि एक औरत होने के नाते मुझे करना है। दस बजे दफ्तर भी जाती हूं और शाम को घर आकर फिर से वह सारे काम करती हूं जो मुझे सिखाए गए हैं कि मुझे ही करने हैं, क्योंकि वह तो औरत को ही करने होते हैं। मैं भी हूं, इस बात को साबित करने की दौड़ में मैंने सारी दहलीजें लांघ दी हैं और अब मैं खोज रही हूं कि आखिर मैं कहां हूं!

मैं इस देश की एक सामान्य महिला हूं, जिसे गालियां भी पड़ती हैं, सड़क पर चलने पर तानों फबतियों का शिकार भी होना पड़ता है और यह बातें किसी से कहने पर अपने कपड़ों को बदलने की सलाह भी मुझे मिलती है। मैं दफ्तर में भले ही कितने भी उंचे पद पर हूं, लेकिन अपने नीचे काम करने वाले मर्द से सम्मान पाना मेरे लिए मुश्किल है। क्योंकि यह उसके लिए बर्दाश्त से बाहर है। मैं, जिसकी यहां बात हो रही है उसे आप किसी भी नाम से पुकार सकते हैं, क्योंकि मेरी पहचान मेरे नाम से नहीं बल्कि मेरे लिंग(जेंडर) से है, जो पूजनीय नहीं है।

आज जब टीवी पर हैदराबाद की एक लड़की को सिल्वर मेडल के लिए जूझते और पसीना बहाते देखा तो लगा, कि यह भी तो मेरी तरह ही अपना काम कितना बेहतर कर रही है, शानदार। लेकिन तभी चारों तरफ देश की बेटी, भारत की शान जैसे जुम्ले उसके लिए सुने तो समझ नहीं आया कि यह क्या है?

क्यों बेटियों की जरूरत बताने के लिए किसी सिंधू या साक्षी के मेडल का इंतजार किया जाता है। [envoke_twitter_link]मुझे अपनी हैसियत तय करने और अपनी जरूरत जताने के लिए सिल्वर के या किसी भी तमगे की जरूरत क्यो है?[/envoke_twitter_link] क्यों मैं बिना साक्षी बने हरियाणा में पैदा नहीं हो सकती? क्यों अपने अस्तित्व की सार्थकता के लिए हर बार मुझे कभी सिन्धु तो कभी साक्षी बनकर अपनी क्षमताएं साबित करनी पड़ती हैं। मैं संघर्ष कर रही हूं सुबह से शाम तक अपने होने का।

सिंधू माफ करना, लेकिन तुम गौरव नहीं हो इस देश का। यह सिर्फ तुम्हारी जीत है, तुम्हारी मेहनत है और तुम्हारे माता-पिता की तपस्या है। सिंधू के गले में लटके चांदी और साक्षी के तांबे पर अपना हक जताने और उसे देश की बेटी कहने से पहले, हर उस बेटी को भी स्वीकार करो जिसके जिस्म से सरेआम कपड़े उतार लिए जाते हैं। सालों से अपने अस्तित्व के लिए लड़ती इन बेटियों की मेहनत पर, अगर अपनी इच्छाओं की रोटियां सेक ही रहे हो तो उन जलते चहरों को भी सम्मान और स्थान दो जो किसी मर्द की मर्दानगी के दंभ में झुलस जाते हैं।

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