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क्यों दसवीं के बाद ह्युमेनिटीस की जगह कॉमर्स चुनना मेरा गलत निर्णय था

2007 की गर्मियां थी और मेरा दसवीं की बोर्ड परीक्षाओं का रिजल्ट आ चुका था। मेरे नंबर किसी टॉपर जितने तो नहीं पर फिर भी अच्छे आए थे। इस वजह से मुझे अपने पसंद के विषय चुनने की छूट मिली थी। मैं साउथ दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ रह था और मेरे पिता कभी-कभी मुझ पर दसवीं के बाद साइंस लेने का दबाव डालते थे। लेकिन मैं ये तय कर चुका था कि किसी भी हालत में दसवीं के बाद साइंस नहीं पढूंगा। मुझे नहीं पता कि ये मेरी खुद की साइंस पर कमज़ोर पकड़ के बारे में पता होने की वजह से था या फिर केवल एक सामाजिक जीवन की इच्छा रखने की वजह से था, लेकिन मुझे ये तो अच्छे से पता था कि साइंस मुझसे नहीं हो पाएगी।

तो अब मेरे पास दो ही ऑप्शन थे कॉमर्स या फिर आर्ट्स (या ह्युमेनिटीस)। और मैंने इनमें से किसी एक को कैसे चुना? मैं किसी करियर काउंसलिंग के लिए नहीं गया, ना ही किसी पीसीएम (फिजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ्स) के जानकार पड़ोसी के पास गया और ना ही मेरे सीमित सोच वाले उन रिश्तेदारों के पास गया जो बस छूटते ही बोल देते कि, ‘कंप्यूटर कोर्स कर ले’।

आखिरकार मैंने कॉमर्स को आगे की पढ़ाई के लिए चुना वो भी मैथ्स के साथ, ये जानते हुए भी कि आर्ट्स मुझे ज्यादा पसंद है (दसवीं में मुझे सोशल स्टडी में 100 नंबर आये थे)। लेकिन क्यों?

क्योंकि मेरे स्कूल में पढ़ाई के अलावा जो भी खेल-कूद और अन्य गतिविधियाँ होती थी उनकी सुविधाएँ कॉमर्स के बच्चों को ही मिलती थी। क्योंकि आर्ट्स  के बच्चों में स्कूल के ज्यादातर ‘बिगड़े’ हुए बच्चें जिन्हें ‘गुंडा’ करार दिया गया था, शामिल थे। क्योंकि मुझे लगता था कि मैं दिन-रात पढ़ कर 90% नंबर ले आऊंगा और मुझे एस.आर.सी.सी. कॉलेज या फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी के किसी अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल जाएगा। क्योंकि मुझे लगता था कि मैं मेरे परिवार में पहला ऐसा बच्चा होंगा, जिसने दसवीं के बाद मैथ्स ली हो (मेरे माता-पिता दोनों ने ही अपने समय में आर्ट्स को ही चुना था)। और सबसे ज्यादा इसलिए क्योंकि मुझे लगा मैं ये कर सकता हूँ।

आपको मेरे बताये ये सभी कारण बड़े अजीब लग सकते हैं, पर मैंने जो किया उसके कारण ये ही थे। लेकिन काफी बाद में जाकर मुझे इस फैसले के कारण पछताना पड़ा, और इसी अफ़सोस के साथ मैं इसे लिख रहा हूँ।

मुझे नहीं मालूम था कि डी.यू. में ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए कॉमर्स के लिए कट-ऑफ लिस्ट काफी ऊंची जाती है, खासकर कि आर्ट्स के लिए आवेदन करने वाले बच्चों के मुकाबले। मुझे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि मेरे इस फैसले के कारण मुझे एक ‘अच्छे कॉलेज’ में दाखिला लेने के लिए कड़ा और कभी ना ख़त्म होने वाल संघर्ष करना पड़ेगा। तो फिर कॉमर्स लेने के इस ‘एक्सपेरिमेंट’ का क्या नतीजा निकला?

मैं पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में तो काफी आगे रहा, लेकिन ग्यारहवीं की सभी परीक्षाओं में मैं मैथ्स में फेल हो गया सिवाय आखिरी परीक्षा के। उसमें भी मेरे बगल में बैठे बच्चे के कॉपी से पूरी नक़ल करने के बाद ही मैं इस परीक्षा में पास हो पाया। ग्यारहवीं में तो मैं किसी तरह पास हो गया, लेकिन बारहवीं में फिर वही कहानी दोहराई जा रही थी। मैं बारहवीं में भी मैथ्स की सभी परीक्षाओं में फेल हो रहा था। मुझे याद है कि कैसे परीक्षा शुरू होने के आधे घंटे के बाद ही मैं अपनी कॉपी जमा कर देता था, क्योंकि आधे घंटे तक वहीं बैठे रहना ज़रूरी था।

मैं जब परीक्षा देकर एकदम किसी फ़िल्मी हीरो की तरह बाहर निकलता, तो बाहर मेरी क्लास के कुछ साथी बड़ी हसरत से मेरी तरफ देख रहे होते थे। उन्हें पता था कि बोर्ड परीक्षाओं में केवल उनकी ही हालत खराब नहीं होने वाली थी। मेरी किस्मत अच्छी थी या शायद कॉपी जांचने वाले का दिल बड़ा था, बोर्ड परीक्षाओं में मुझे मैथ्स में 100 में से 55 नंबर आए जिसने मुझे भी हैरान कर दिया था।

और बारहवीं के बाद? नतीजा ये निकला कि मुझे डी.यू. के किसी भी अच्छे कॉलेज में दाखिला नहीं मिला और मैंने पांचवी कट ऑफ लिस्ट में नाम आने के बाद डी.सी.ए.सी. (डेल्ही कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड कॉमर्स) में पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स में ग्रेजुएशन के लिए दाखिला लिया। मुझे मेरे कॉलेज का पहला दिन अच्छे से याद है, जब मैं डी.सी.ए.सी. की टूटी-फूटी बिल्डिंग में मेरे उन दोस्तों के साथ बैठा था जो मेरी ही तरह जैसे-तैसे बारहवीं में पास हुए थे। उस वक़्त हम सब यही सोच रहे थे कि हमारे आज को बदलने के लिए हमें क्या करना चाहिए था। मैं डी.सी.ए.सी. की बहुत इज्ज़त करता हूँ लेकिन वहां का अच्छे से अच्छा छात्र भी इस बात को मानेगा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी की खेलों और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों से यह कॉलेज काफी अलग-थलग है। और ये गतिविधियाँ वो थी जिनका मैं एक हिस्सा बनना चाहता था।

मेरे लिए एक साल ऐसे माहौल में बिताना जो बिलकुल भी प्रेरित ना करता हो, काफी मुश्किल था। इस माहौल से निकलने के लिए मैंने कॉलेज के बाहर कई और गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। लेकिन मेरी इस कहानी में एक नया मोड़ आया। मैं कॉलेज के पहले साल में पॉलिटिकल साइंस में फर्स्ट डिवीज़न से पास हुआ और अब इस माहौल के बदलने का समय आ चुका था।

मैंने कॉलेज बदलने की प्रक्रिया ज़ोर-शोर से शुरू कर दी। इसके लिए मुझे कॉलेज के दफ्तरों, बाबुओं, और प्रिंसिपलों के कई चक्कर लगाने पड़े, और आखिरकार मैं दूसरे साल में श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में दाखिला लेने में सफल रहा। वहां जाने के बाद मैंने कॉलेज के लिए फुटबॉल खेला और बाद में यूनिवर्सिटी के लिए भी, वहां मैंने कॉलेज में एक अच्छा समय बिताया।

कभी-कभी मुझे लगता है कि शायद मैं इन सब परेशानियों से बच सकता था, अगर मैंने पहले ही सीनियर सेकेंडरी स्कूल में आर्ट्स को चुना होता। क्या पता शायद आज जिंदगी कुछ और ही होती। लेकिन मैं मेरे इस पछतावे का कारण रही इन सब गलतियों के बाद आयी अक्ल का शुक्रमंद भी हूँ।

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