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शहरी विकास की मार में झांसी का ये आदिवासी समुदाय प्लास्टिक बीनने को है मजबूर

एक तरफ भारत आज़ादी के 70 साल पूरे कर चुका है, वहीं देश की आबादी का एक बड़ा तबका रोज़ की बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल जनसँख्या में 8.6 % आदिवासी आते हैं। शहरीकरण के बढ़ते चलन और खेती की ज़मीन और उद्योगों के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई से, जंगलों पर अपनी ज़रूरतों के लिए निर्भर रहने वाले कई आदिवासी समुदाय खतरे में हैं। इनके साथ-साथ कई भाषाओं, संगीत और कला जैसी सांस्कृतिक आदिवासी विरासतें भी खतरे में हैं। विकास की सीमित परिभाषाओं के बीच अपने मूल निवास स्थान से हटा दिए गए ये समुदाय, अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए शहरी तौर तरीकों में ढलने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में इनके पास अनियमित मज़दूरी, या कारखानों में बेहद कम मज़दूरी पर काम करने जैसे सीमित विकल्प ही इनके पास मौजूद हैं। खबर लहरिया का यह वीडियो झाँसी के एक ऐसे ही सहरिया आदिवासी समुदाय की कहानी दिखाता है, जो प्रशासन और मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा का शिकार है।

Video Courtesy: Khabar Lahariya.
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