हबीब ज़ालिब के ‘दस करोड़ गधे’ से लेकर भगवान मांझी के ‘गाँव छोड़ब नाही’ तक, ऐसे ना जाने कितने जाने और अनजाने गीत लिखे गए जो हमारे आस-पास की छोटी-से-छोटी समस्याओं से लेकर बड़े-से-बड़े मुद्दों पर बात करते हैं। इन गीतों को कहा गया ‘प्रोटेस्ट म्यूज़िक’ यानि कि विरोध का संगीत। प्रोटेस्ट म्यूज़िक का इतिहास काफी पुराना है, उतना ही पुराना जितना इंसान की समस्याओं और उसके मुद्दों का है।
हमारी आज़ादी के संघर्ष के वक्त भी प्रोटेस्ट म्यूज़िक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ पर समय के साथ मानो आज़ादी मिलते ही इसका भी समय ढल गया। इसके बाद 60 और 70 के दशक में संगठित लेफ्ट की विचारधारा से प्रभावित प्रोटेस्ट म्यूज़िक का दौर आया। जो 80 का दशक आते-आते हिन्दी, उर्दू और बांग्ला से आगे बढ़कर क्षेत्रीय भाषाओं में फैला। ये वो समय था जब कम्युनिस्ट मूवमेंट ढल रहा था और भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हो रहा था। प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ने की दौड़ शुरू हो चुकी थी, जिसकी सीधी मार भारत के आदिवासी समुदाय को झेलनी पड़ी।
तो आइये देखते हैं पांच ऐसे गीत जिन्होंने भारत (और पाकिस्तान) में ‘प्रोटेस्ट म्यूज़िक’ को एक नया आयाम दिया।
1)- झारखण्ड की खनिज सम्पदा के दोहन में सरकारों और निजी कंपनियों ने वहां के आदिवासियों पर जिस तरह के अत्याचार किए, वह किसी से छुपा नहीं है। झारखंड के ही काशीपुर में बॉक्साइट खनन के विरोध में आदिवासी कार्यकर्ता भगवान मांझी का लिखा ‘गाँव छोड़ब नाही’, आज आदिवासी आन्दोलनों का प्रमुख गीत बन चुका है।
2)- हबीब ज़ालिब जो एक पाकिस्तानी शायर थे, अपने जीवनकाल में उन्होंने दो तानाशाहों को पाकिस्तान पर राज़ करते हुए देखा। ज़ालिब का लिखा ‘मैंने उससे ये कहा’ जनरल अयूब खान की तानाशाही पर एक तंज़ था जो किसी भी समय उतना ही सटीक है, जितना कि वो तब था जब हबीब ने इसे लिखा था। पाकिस्तानी म्यूज़िक बैंड ‘लाल’ ने एक बार फिर इस गीत को लोगों के सामने बेहतरीन संगीत में पिरोकर रखा।
3)- ‘हिल्लेले झकझोर दुनिया’ प्रसिद्ध कवि गोरख पाण्डे का लिखा गीत है। सम्पूर्ण क्रांति में आम जनता की भागीदारी, उसकी शक्ति और उसके महत्व को दर्शाने वाला यह गीत, लेफ्ट की विचारधारा से जुड़े आन्दोलनों का बेहद लोकप्रिय गीत है। कई नामी और गुमनाम कलाकारों के साथ-साथ इस गीत को इंडियन ओशियन ने भी गाया।