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अनचाहे गर्भ और जन्म देने का निर्णय हो पूरी तरह से महिलाओं का

रिचा बाजपाई:

मातृत्व नारी का एक अभिन्न अंश है, लेकिन यही मातृत्व अगर उसके लिए अभिशाप बन जाए तो? वर्ष 2015 में गुजरात में एक 14 साल की बलात्कार पीड़िता ने बलात्कार से उपजे अनचाहे गर्भ को समाप्त करने के लिए उच्च न्यायालय से अनुमति मांगी थी लेकिन उसे अनुमति नहीं दी गयी। एक और मामले में गुजरात की ही एक सामूहिक बलात्कार पीड़िता के साथ भी ऐसा हुआ। बरेली की 16 वर्षीय बलात्कार पीड़िता को भी ऐसा ही फैसला सुनाया गया।

यह समस्या सिर्फ अविवाहित स्त्री की नहीं है। विवाहित स्त्रियां भी कई बार ज़रूरी कारणों से गर्भ नहीं चाहती। सविता हलप्पनवर और निकिता मेहता भी ऐसी विवाहित स्त्रियां थी। प्रसिद्ध सविता हलप्पनवर केस में आयरिश कानून व्यवस्था ने गर्भपात की अनुमति नहीं दी, बाद में सेप्टिक गर्भपात की वजह से सविता की मौत हो गयी। वहीं निकिता मेहता का गर्भ अनचाहा नहीं था, लेकिन कुछ समय बाद उन्हे यह पता चला कि पैदा होने वाला बच्चा गंभीर रूप से अपंग होगा। उन्होनें गर्भपात की अनुमति चाही लेकिन यहां भी कानून ने उनका साथ नहीं दिया।

महिला के शरीर पर समाज का अधिकार जमाना कोई नयी बात नहीं है। हमेशा से ही स्त्री की कोख का फैसला उसका पति, उसके घर वाले करते रहे हैं। लड़की कब माँ बन सकती है और कब नहीं, लड़का होना चाहिये या लड़की, ये सभी निर्णय समाज स्त्री पर थोपता आया है। वह क्या चाहती है यह कोई न तो जानना चाहता है और न ही मानना चाहता है। बलात्कार पीड़िता के लिए ये समाज कितना असंवेदनशील है यह जगजाहिर सी बात है। बलात्कारी की जगह पीड़िता को ही शर्म और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। ऐसे में अगर कानून भी उसकी मदद न करे और बलात्कार से उपजे गर्भ को उसके ऊपर थोप दिया जाए तो उसकी स्थिति की कल्पना कीजिए। वह कानून और समाज की चक्की के दो पाटों के बीच पिसकर रह जाती है। लड़की के पास इस घृणित घटना से उबरने के सारे रास्ते ख़त्म हो जाते है और ऐसे बच्चे का भी कोई भविष्य नहीं रह जाता जिसे समाज और उसकी अपनी माँ स्वीकार नहीं करती।

पिछले साल तक आए इस तरह के कई फैसलों ने इस मान्यता को बढ़ावा दिया था कि किस तरह से महिला के शरीर से जुड़े फैसलों का अधिकार समाज और कानून ने अपने हाथ में ले रखा है। वह अपनी कोख का फैसला लेने को आज़ाद नहीं। अनचाहा और थोपा हुआ मातृत्व ढोना उसकी मजबूरी है।

लेकिन 21 सितंबर को आए मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले ने स्थिति को पलट दिया है। न्यायालय ने महिला के शरीर और कोख पर सिर्फ और सिर्फ महिला के अधिकार को सम्मान देते हुए यह फैसला दिया है कि कोई भी महिला चाहे वो विवाहित हो या अविवाहित, अवांछित गर्भ को समाप्त करने के लिए स्वतंत्र है, चाहे वजह कोई भी हो। इस अधिकार को, गरिमापूर्ण जीवन जीने के मूल अधिकार के साथ सम्मिलित किया गया है। महिलाओं के अधिकारों और स्थिति के प्रति बढ़ती हुई जागरूकता और समानता इस फैसले में दिखाई देती है। अविवाहित और विवाहित महिलाओं को समान रूप से ये अधिकार सौंपते हुए उच्च न्यायालय ने लिंग समानता और महिला अधिकारों के पक्ष में एक मिसाल पेश की है।

बच्चे के जन्म का माँ और बच्चे दोनों के जीवन पर बहुत गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता है। इसलिए मातृत्व किसी भी महिला के लिए एक सुखद एहसास होना चाहिए, दुखद और थोपा हुआ नहीं। उम्मीद है कि इस फैसले की वजह से बहुत सी महिलाओं के जीवन में रौशनी की किरण जगमगाएगी।

 

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