वह निडर है, साहसी है, अपने हुनर की धुरंधर है और वह एक बेटी है। वह जानती है कि ज़िंदगी की जंग लड़ रहे कैंसर पीड़ित बच्चों के चेहरों पर मुस्कान कैसे लाई जाती है। दिव्यांग और मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चों की ज़िंदगी में जीवन के रंग भरना भी वह बखूबी जानती है। छब्बीस साल की यह लड़की कोई और नहीं बल्कि कोलकाता की मशहूर पपेटियर बिदिशा विश्वास है। जिसने अपनी पपेट्री को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। वह इसके ज़रिए समाज की हर कुरीतियों पर बड़े ही सटीक और धारदार तरीके से हमला करती है। वह पिछले दस से भी ज़्यादा सालों से निरंतर समाज को आईना दिखाने का काम करती आ रही है।
बिदिशा के पपेट्री में पारिवारिक रिश्ते, वर्तमान समयकाल, सामाजिक समस्याएं और जीवन की सच्चाई बड़ी गंभीरता से नज़र आती है। अपने काम और विषय की विशेषता ने इन्हें आज अपनी खुद की एक पहचान दी है। खिदरपुर, कोलकाता की रहने वाली बिदिशा के पिता श्री बैधनाथ विश्वास बंगाल सरकार के ऑडिट विभाग में सीनियर एकाउंटेंट हैं। मां सुजाता विश्वास गृहणी हैं जबकि भाई सुभोजित विश्वास भी पिछले दस सालों से बहन के साथ ही पपेट्री करते हैं। स्नातक कर चुकी बिदिशा अपने हाथ से जापानी पपेट, बंगाल का रोट पपेट, टॉकिंग पपेट और गल्बस पपेट भी बनाती हैं। वह जानती है कि मुर्दों में कैसे जान डाली जाए। जब वह उन पपेट्स को हाथों में उठाती है तो वह बिदिशा की आवाज का सहारा लेकर ज़िंदा हो उठते हैं। यह पूछे जाने पर कि आज के वक़्त में जब नई पीढ़ि डॉक्टर, इंजीनियर बनने के पीछे भाग रही है तो बिदिशा ने पपेट्री को ही अपना करियर क्यों चुना, बिदिशा हँसते हुए कहती है –
“आप देखिए, हम कहाँ जा रहे हैं? देश के हालात पर बात करना तो छोड़ दीजिए , हमारे अपने घरों में ही रिश्तों में कड़वाहट भरती जा रही है। पारिवारिक रिश्ते कमज़ोर होते जा रहे हैं। बुज़ुर्गों की स्थिती आप भी जानते हैं और मैं भी। इसलिए, मैंने इसे अपना जीवन चुना ताकि मैं कम से कम खड़े होकर अपने पपेट्री के माध्यम से समाज की हकीकत को उनके सामने रख सकूं।”
बिदिशा को बचपन से ही गुड़ियों से बहुत गहरा लगाव रहा है। 14 वर्ष की उम्र में पहली बार इन्होंने टॉकिंग डॉल पपेट्री सिखना शुरू किया। पिता और माँ दोनों ही चाहते थे कि बेटी पढ़ने के अलावा कुछ अलग विधाओं की भी जानकारी रखे। जिस कारण पिता ने बिदिशा को बचपन से ही पेंटिंग, म्यूज़िक, डांस और सिंगिंग जैसी कई कलाओं को सीखने के लिए प्रेरित किया। लेकिन बिदिशा का मन इस सब से ऊबता रहा और आखिरकार उसने पपेट्री को अपना साथी चुना। कोलकाता के मशहूर पपेटियर दिलिप मंडल से पहली बार इन्होंने सीखना शुरू किया जो सफर बाद में पपेट्री में पद्मश्री श्री सुरेश दत्ता तक भी पहुँचा।
अपनी विशेष प्रस्तुतियों की वजह से बिदिशा आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है। भोपाल, कोलकाता, राजस्थान जैसे कई बड़े शहरों में आज बिदिशा को देखने के लिए दर्शकों की एक बड़ी हुजूम उमड़ती है। मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर से सीनियर स्कॉलरशिप प्राप्त बिदिशा जब कोलकाता में होती है तो कैंसर पीड़ित एवं मानसिक रूप से असामान्य बच्चों के साथ मुफ्त में काम करती है। अपना अनुभव साझा करते हुए वह कहती है कि –
“वो भी हमारी ही तरह हैं। मैं जब उन्हें पपेट्री सीखाती हूँ या उनके सामने शो करती हूं तो उनकी हँसी मुझे, मेरी आत्मा तक को प्रफुल्लित कर जाती है। मैं हमेशा बिना किसी पैसे और लोभ के उनके लिए काम करती रहूँगी। इस काम में मेरी आत्मिक खुशी ज़्यादा है। बस, इतना ही मैं कह सकती हूं।”
बिदिशा अपने आने वाले दिनों में बच्चों और बूढ़ों के लिए अपनी खुद की एक पपेट्री एकेडमी खोलना चाहती है। साथ ही वह सरकार से यह गुज़ारिश करना चाहती है कि अन्य कलाओं के स्कूलों की तरह पपेट्री के लिए भी राज्य एवं केन्द्र सरकार आवश्यक कदम उठाए ताकि इस विद्या में बच्चें अपने देश से शिक्षा लेने के बाद विदेश में भी जाकर पढ़ सकें और वहां की सभ्यता-संस्कृति की समझ पाने के बाद अपने देश लौटकर अपनी माटी के लिए काम कर सकें। बिदिशा के इस जज़्बे ने आज इन्हें अपने यहां का यूथ आईकॉन बना दिया है। यह पूछे जाने पर कि वह अपने उम्र के साथियों के लिए क्या कुछ कहना चाहेंगी तो बिदिशा मुस्कुराती हुई कहती हैं –
“अरे, मैं तो अभी खुद सीख रही हूँ। मैं क्या कह सकती हूँ। पर एक बात मैं सबसे ज़रूर कहना चाहूँगी कि भीड़ के पीछे मत भागीए। वही किजिए जो करने को अंदर से आवाज़ आती हो।”