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कैसे पूंजीवाद तय करता है सरकारी नीतियां, और बढ़ाता है राजनीतिक भ्रष्टाचार

मुकेश त्यागी:

अम्बानी, अडानी जैसे पूंजीपतियों के प्रति बीजेपी, कांग्रेस, या अन्य किसी भी दल की सरकार की सेवक मुद्रा की आलोचना अक्सर ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ कहकर की जाती है। इससे ऐसा महसूस होता है कि पूंजीवादी व्यवस्था तो अच्छी है सिर्फ भ्रष्ट नेताओं-अफसरों की अपने करीबी पूंजीपतियों को फायदा पहुँचाने की दुष्प्रवृत्ति की वजह से समस्या है। इसी विचार की वजह से राजीव गाँधी, वी पी सिंह, वाजपेयी, मनमोहन, मोदी, केजरीवाल, आदि एक के बाद एक खुद को ‘मिस्टर क्लीन’ हीरो की तरह पेश करते हैं जो इस से छुटकारा दिलाकर सब समस्याओं का निपटारा कर देंगे; लेकिन नतीजा – पहले से भी बद्तर।

असल में घनघोर मोनोपॉली, बहुदेशीय वित्तीय पूंजी के कार्टेल वाले साम्राज्यवाद के दौर में पूरा पूंजीवाद ही खुली प्रतियोगिता और न्याय के अपने सारे सिद्धांतों को तिलांजलि दे चुका है।

भारत से अमेरिका, चीन से यूरोप, रूस से ब्राजील, जापान से दक्षिण अफ्रीका सभी पूंजीवादी देशों में सरकारें इन बड़े मोनोपॉली कॉरपोरेट के हाथ में हैं। योजना-निवेश के फैसले इनके हित को देखकर होते हैं, ज़मीन हो या खनिज, स्पेक्ट्रम हो या नदियां, स्कूल-कॉलिज हों या वैज्ञानिक शोध केंद्र सब को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में इनके हाथों में सौंपा जा रहा है। जनतंत्र का दिखावा करते हुए सारी प्रशासनिक-पुलिस-न्याय व्यवस्था इनके हित में काम कर रही है।

ऊपर से पूंजीवादी व्यवस्था के मूल ‘कॉन्ट्रैक्ट’ के सिद्धांत के अनुसार भी ना तो इन सब साधनों-स्रोतों की ये उचित कीमत अदा कर रहे हैं और ना ही इस व्यवस्था को चलाने वाले खर्च के रूप में कोई टैक्स देने को तैयार हैं – ‘अनिवासी’ कंपनी/व्यक्ति बन कर ये किसी देश में टैक्स नहीं देते। (पनामा, मॉरीशस, सिंगापुर, आदि टैक्स चोरी के अड्डे इसी सुविधा से बनाये गए हैं!) नतीजा मेहनतकश जनता पर बढ़ता बोझ, गैर बराबरी और गरीबी-कंगाली।

सभी पूंजीवादी देशों की सरकारें/नेता इनके सामने नतमस्तक हैं और इनके सेल्समैन बने हुए हैं। एक उदाहरण – एप्पल बड़ी कंपनी है, अभी यूरोपीय संघ की जाँच में पाया गया कि उसने आयरलैंड में 14.5 बिलियन डॉलर (लगभग 980 अरब रुपये) की टैक्स चोरी की। लेकिन आयरलैंड की सरकार इस टैक्स चोरी को पकड़े जाने से दुखी है, एप्पल के पाले में खड़ी है क्योंकि उसे अपने देश के जनमत से ज्यादा चिंता एप्पल के मालिकों की नाराजगी से है। जनमत तो देखा जायेगा, चुनाव तो एप्पल जैसी ही कम्पनियाँ धन और अपने मीडिया कंट्रोल से लड़वाएंगी! उसका क्या डर!

तो पूरी पूंजीवादी व्यवस्था ही इस भ्रष्टाचार की जड़ में है। इसके चलते कोई ‘मिस्टर/मिसेज क्लीन’ इसे नहीं मिटा सकते। इसे मिटाने के लिए तो पूंजीवाद को ही मिटाना होगा।

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