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“कितना कमा लेते हो, सब पूछते हैं, काम से खुश हो कि नहीं, कोई नहीं पूछता”

अमन सिंह:

मेरा नाम राजू है। मैं बिहार का रहने वाला हूँ। बिहार में कहाँ रहता हूँ, ये नहीं बताऊंगा। मैं पाँचवी कक्षा पास हूँ। मेरा काम है ज़िन्दगी को पूरी अच्छी तरह से कैसे जिया जाए, इसपे मैं अनुसंधान और विकास का काम करते रहता हूँ। लेकिन लोगों को ये बात “बुझाता” (समझ आता) ही नहीं है। मेरे माता-पिता चाहते थे कि बेटा हमारा डॉक्टर, इंजीनियर या सरकारी अफसर बनेगा, जैसा कि अधिकतर भारतीयों के माता-पिता चाहते हैं, लेकिन ऐसा हो नही पाया। नेता, किसान या एक अच्छा इंसान बने ये भी तो सोच सकते थे, खैर ये अलग बात है। लेकिन मेरे माता-पिता के लिए अफ़सोस की बात ये है कि ना तो उनका बेटा डॉक्टर बना, ना इंजीनियर और ना ही सरकारी अफसर, क्या बना “जीवन जीने वाला”। जो अधिकतर लोगों को बुझाता ही नहीं है कि ये कौन सा “व्यवसाय” है।

हद तो तब हो गई, जब कुछ लोगो ने यहाँ तक पूछ डाला कि कितना कमा लेते हो इस व्यवसाय में। और ये जो अफ़सोस है, मेरे माता-पिता से ज़्यादा मेरे समाज वालों को हुआ है, तभी तो जब भी मेरे समाज के बड़े लोग मिलते हैं मेरी पढ़ाई की “गरीबी” को दर्शाने में कोई कसर नही छोड़ते। लेकिन अब इनकी बातों से मुझे “इश्क़” हो गया है , जब तक दिन में दो बार और रात में दो बार ना सुन लूं, ना तो मेरा खाना हजम होता है और ना ही मुझे अच्छी नींद आती है। अब सवाल ये है कि लोगों को क्या नहीं बुझाता है? लोग ये तो जानते हैं कि पाँचो उँगलियाँ बराबर नही होती है, लेकिन लोगों को ये बात बुझाता ही नहीं है। लोग ये जानते हैं कि अगर सब कोई डॉक्टर या इंजीनियर बनने लगे, तो रिक्शा और ठेला वाला कौन बनेगा, लेकिन लोगों को ये बुझाता नहीं है। लोग ये भी जानते हैं, कि ज़िन्दगी जीने के लिए होती है, लेकिन लोग ज़िन्दगी काटते हैं, ये लोगों को नही बुझाता है। और ऐसे लोगों की तादाद बहुत है हमारे भारत देश में।

कुछ दिन पहले अमेरिका के ट्रक चालकों के बारे में एक वीडियो देखा, उसमे ये बताया जा रहा था कि कैसे वहाँ के ट्रक चालकों को डॉक्टर के समान आदर दिया जाता है, और उनकी लाइफस्टाइल कितनी अच्छी है। उनकी आमदनी भी अच्छी खासी है। ये देख कर मेरा दिल गद-गद हो गया। भारत के ट्रक चालकों के बारे में भी उसी वीडियो में दिखाया गया, कि उनको भारत में कितना आदर सत्कार दिया जाता है। अब कितना आदर सत्कार दिया जाता है, मुझे नहीं लगता ये आप लोगो को बताने की जरुरत पड़ेगी । ऐसा क्यों है, क्या हम इस मानसिकता को बदल नहीं सकते? एक और चीज़ है, जो लोगों को बुझाता नही है, सफलता और असफलता की परिभाषा।

जी हाँ दोस्तों, बहुत से लोग आजकल सफलता और असफलता की “डिग्रियाँ” बांटते चल रहे हैं, कि कौन सफल है और कौन असफल। एक ऐसे ही “महान” इंसान से मेरी मुलाकात हो गई, और मजे की बात ये है कि वो महान इंसान उस समय डिग्रियाँ बाँट रहा था। उसने दो आदमियों की सच्ची कहानी सुनाई। पहले आदमी के पास गाड़ी था, बंगला था, बैंक बैलेंस था और माँ भी थी और जो दूसरा आदमी था उसके पास ना तो गाड़ी थी, ना बंगला और ना ही बैंक बैलेंस लेकिन हाँ, इसके पास भी माँ थी और वो बहुत खुश रहता था। जो पहला आदमी था वो भी खुश रहता था लेकिन वो बहुत ही चिड़चिड़ा और गुस्सैल इंसान था। शायद काम का बोझ ज़्यादा होने के कारण वो ऐसा था। तो हमारे डिग्री बांटने वाले महाशय ने सफलता की डिग्री पहले वाले आदमी को और असफलता की डिग्री दूसरे आदमी को बांट दी।

मेरा मानना है कि सफलता और असफलता की जो परिभाषा है, वो हर किसी के हिसाब से अलग-अलग होती है। मैं ये नहीं कहता हूं कि पहला वाला आदमी असफल है और दूसरा वाला आदमी सफल। मेरा मनना है कि दोनों सफल हैं। पहले वाले आदमी के लिए गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस सफलता की परिभाषा है और जो दूसरा आदमी है उसके लिए ख़ुशी सफलता की परिभाषा है। हम कैसे किसी को अपनी परिभाषा के हिसाब से सफल और असफल कह सकते हैं? अब आगे क्या लिखूं कुछ समझ में नही आ रहा है, फ़ोन की बैटरी भी कम है कब ख़त्म हो जाए कुछ मालूम नही, और ट्रांसफार्मर भी ख़राब है हमारे मोहल्ले का। बिहार सरकार कब तक नया ट्रांसफार्मर भेजेगी, ये भी मालूम नहीं। खैर, आखिर में मुझे रबिन्द्र नाथ टैगोर की बात याद आ रही है : “जीवन हमें दिया गया है, हम इसे देकर कमाते हैं ।”

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