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चुनावी इंतज़ाम और चुनाव आयोग का खर्च बनता जा रहा है देश पर बोझ

केपी सिंह:

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में विधान सभा के नए चुनाव इस वर्ष के अन्त या अगले वर्ष के शुरूआत के किसी महीने में हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश आबादी और भौगौलिक विशालता दोनों ही दृष्टियों से इतना बड़ा प्रदेश है कि दुनिया के कई दूसरे देश उसके मुकाबले छोटे पड़ जाते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे में इस प्रदेश की विधान सभा के चुनाव की तैयारी के लिए भारत निर्वाचन आयोग को बहुत बड़ी कवायद की ज़रूरत पड़ती है। सोमवार को मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने लखनऊ में प्रदेश भर के डीएम एसपी के साथ बैठक की, जिसमें उन्हें तमाम हिदायतें दी गईं।

टी. एन. शेषन के समय से भारत निर्वाचन आयोग ने व्यवस्थित चुनाव कराने के मामले में पूरी दुनियाॅं में नई साख बनाई है। शेषन ने चुनाव आयोग में जो लीग बनाई उससे जो दो बड़ी उपलब्धियां हासिल की गईं, उनमें सबसे पहली उपलब्धि तो यह है कि बाहुबलियों के लिए बूथ कैप्चरिंग के ज़रिए चुनाव प्रणाली को हाईजैक करने की गुंजाइश इसमें खत्म हुई है। दूसरी उपलब्धि इसी से जुड़ी है कि स्वतंत्र मतदान का माहौल सुनिश्चित होने से निरीह मतदाता की भागीदारी मतदान में बढ़ी है। लेकिन यह परिमाणात्मक उपलब्धियां हैं। गुणात्मक तौर पर देखें तो निर्वाचन आयोग के एक्टविज्म बढ़ने के बाद से चुनाव लड़ना इतना मंहगा हो गया है कि धरातल का आदमी तो अब माननीय बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता।

सोमवार को एक ओर मुख्य चुनाव आयुक्त साफ-सुथरे लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने की माथापच्ची में अधिकारियों के साथ जुटे थे, तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की सरकार में दागी मंत्रियों की दोबारा भर्ती के लिए शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था। शक्तिशाली लोगों के सामने जनमत का महत्व कितना बौना हो गया है, इसकी यह प्रत्यक्ष बानगी वर्तमान व्यवस्था के निरंकुशता के मामले में सामन्तशाही से भी ज्यादा बुरी गत हो जाने की कहानी सुना रहा था।

टी. एन. शेषन को भले ही एक वर्ग मसीहा का दर्जा दिलाता हो लेकिन वे आईएएस संवर्ग के दूसरे अधिकारियों से किसी मामले में अलग नहीं थे। इस संवर्ग की पहचान केवल अपने रुतबे और साधन संपन्नता बनाए रखने के लिए काम करने वाले तंत्र की बन चुकी है। जो चाहता है कि व्यापक समाज उसके सामने शक्तिहीन बना रहे। इसलिए लोकतंत्र समृद्ध बनाने की दृष्टि से शेषन ने कुछ किया होगा यह सोचना अपने को मुगालते में रखना है। कैरियर मैनेजमेण्ट के तहत उन्होंने चुनाव आयोग का सख्त रूप बेलगाम नेताओं को दिखाया लेकिन साथ-साथ एक काम यह भी किया कि चुनाव आयोग के अधिकारियों को अपने बजट में बेशुमार बढ़ोत्तरी कैसे की जाए, इसका रास्ता भी दिखा दिया। चूंकि नौकरशाही के लिए वेतन से ज्यादा महत्व उसके विभाग में आने वाले बजट के कमीशन का होता है जो प्रतिशत के हिसाब से अफसरों को मिलता है। चुनाव आयोग का बजट जितना बढ़ा, आयोग के अधिकारियों की उतनी ही बल्ले-बल्ले होती गई।

शेषन ने अपने कार्यकाल में फोटो पहचान पत्र जारी करने की नींव रखी थी। उनके ज़माने में मतदाताओं की फोटोग्राफी की कवायद पर भारी भरकम बजट फूक डाला गया लेकिन एक भी मतदाता को फोटो पहचान पत्र जारी नहीं हो पाया। देश के सरकारी खज़ाने को बपौती मान लिया गया है शायद इसलिए खर्च के मामले में किसी की कोई जवाबदेही नहीं है। अगर होती तो इतना पैसा लुटाकर नतीजा सिफर बटा सिफर देने वाले उस समय के अधिकारियों पर कार्रवाई की जाती, ताकि उन्हें यह समझ में आता कि यह चाणक्य जैसे व्यवस्था के कर्ता धर्ताओं का देश है। जो उन से रात मेें मिलने आए विदेशी मेहमान से बात शुरू करने से पहले सरकारी तेल से जल रहे दीपक को बुझा देने की फिक्र तक करना याद रखते थे।

चुनाव आयोग उम्मीदवारों के अनापशनाप खर्च की तो बहुत ज्यादा बात करता है। लेकिन उसे अपने बजट के बारे में भी बताना चाहिए। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के इन्तज़ामों पर आयोग ने लगभग 35 अरब रुपए खर्च कर डाले। यह खर्चा 2009 में हुए इसके पहले के लोकसभा आम चुनाव के खर्च से 150 प्रतिशत ज्यादा था। अनुमान करिए कि जिस देश में एक चुनाव कराने के तामझाम में इतना बजट निकल जाता हो, उस देश में लोगों की वास्तविक जरूरतें पूरी करने के लिए संसाधनों की पूर्ति कैसे हो सकती है। शेषन गुरु ने जो रास्ता खोला है उस पर कदम बढ़ाते हुए आने वाले चुनाव आयुक्त खर्चे की कोई परवाह भी नहीं कर रहे। कई ऐसे काम उन्होंने अपना लिए हैं जिनमें खर्चा बढ़ाने की काफी गुंजाइश रहती है। मतदाताओं को मतदान के लिए जागरूक करने के नाम पर चुनाव आयोग ने पिछले चुनावों में कितना खर्चा दिखाया, अगर इसका ब्यौरा सामने लाया जा सके तो कुछ अन्दाज़ा लग सकता है।

इस तरह चुनाव इन्तज़ामों का बढ़ता खर्चा इस देश के लिए एक बड़ा बोझ बनता जा रहा है। फिर भी यह मंजूर हो सकता है अगर बेहतरीन चुनावों से लोगों की परवाह करने वाली सरकारें बनतीं हों। इन इन्तज़ामों की कोख से निकलने वाला निजाम जितना अमानुषिक हो रहा है, उतनी तो हृदयहीनता राजशाही के दौर में नहीं रही। यूपी के सीएम कुछ भी कहें लेकिन इस सूबे में हालत यह है कि किसी के घर में हत्या भी हो जाए तो भी कार्यवाही पुलिस पर पैसा खर्च किए बगैर नहीं हो सकती। और अत्याचार में तो टका खर्च किए बिना पुलिस तंत्र दुम तक हिलाने को तैयार नहीं होता।

इलाज के बिना भारतीय संविधान में लोगों को दिए गए जीने के अधिकार का कोई मतलब हो सकता है यह बात यूपी के निजाम को चलाने वाले प्रभुओं को लोगों को बतानी चाहिए। सरकारी अस्पताल एक ढकोसला है जहां कोई इलाज नहीं होता। मरने वाले आदमी को भी डॉक्टर तब हाथ लगाने के लिए तैयार होता है जब उसके तीमारदार लाल नोटों की गड्डी निकालने में सक्षम हों। अन्दाज़ा लगाइए कि इस तरह की निष्ठुरता से कितने लोग हर रोज बेमौत मर रहे होंगे। एक तरफ हर बार और ज्यादा शानदार तरीके से चुनाव कराने की वाहवाही लूटी जा रही है, दूसरी तरफ व्यवस्था की हालत इतनी गई गुजरी बनती जा रही है कि लोग या तो गुलाम से भी ज्यादा बदतर तरीके से जीने की नियति स्वीकार कर लें या किसी दिन बगावत का ऐसा ज्वालामुखी इस व्यवस्था के खिलाफ उनमें फट पड़े कि पूरी व्यवस्था रसातल में चली जाए। चुनाव आयोग को भी व्यवस्था के प्रति लोगों में बढ़ती अनास्था के लिए इतिहास में कहीं न कहीं ज़िम्मेदार ज़रूर ठहराया जाएगा। इसलिए अगर आयोग के अधिकारियों को कैरियर मैनेजमेण्ट की संकीर्ण हद तक काम करने के बजाय इस बारे में विचार करना चाहिए कि वे सकारात्मक फलदायी लोकतंत्र के निर्माण के लिए सार्थक और प्रभावी भूमिका कैसे निभा सकते हैं।

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